सुलतान शाहीन,
एडिटर न्यू ऐज इस्लाम
स्विट्जरलैंड में मीनारों पर प्रतिबंध की
आवाज़ भारत में भी सुनाई दी थी। सहयोग कल्चरल सोसाईटी मुंबई के अब्दुल समीअ हीरे ने
कथित तौर पर कहा “भड़काऊ निर्णय
स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व के सिद्धांत के उलट है। यह रेफेरेंडम बहुसंख्यक के
अत्याचार के समानार्थी है। इससे कट्टरवाद को बढ़ावा मिलेगा। इस प्रतिबंध को त्वरित
रूप से हटा लेना चाहिए, क्योंकि इससे जिहादियों
को बल मिलेगा, जो इस्लाम की गलत
व्याख्या करते हैं।“
उपर्युक्त ख्यालों से मैं पुरी तरह से
सहमत हूँ, हालांकि मैं इतने कड़े
शब्दों का प्रयोग नहीं करूंगा। यह विश्लेषण भी सहीह है कि इससे कट्टरवाद को बढ़ावा
मिलेगा। ऐसा असल में हो भी रहा है। कट्टरवादी स्विट्जर लैंड में मीनारों और फ्रांस
में बुर्के पर प्रतिबंध से पैदा होने वाली स्थिति का लाभ उठा रहे हैं। लेकिन फिर
मेरे दिमाग में प्रश्न उठता है कि गैर मुस्लिम समाज में जब हमारी आज़ादी दाँव पर
लगती है तभी हम क्यों बेचैन होते हैं। जब इस्लामी समाज में गैर मुस्लिमों की तो
बात जाने दीजिये, खुद मुसलामानों को
धार्मिक स्वतंत्रता नहीं दी जाती तो हमें इसकी चिंता नहीं होती।
हमें हथियारों की सहायता से अपना बचाव
करने की अनुमति है (जोकि एक तरह का जिहाद ही है,
बल्कि कमतर दर्जे का) क्योंकि अगर हमने
बचाव नहीं किया होता तो लोग मंदिरों खानकाहों,
गिरजाघरों और यहूदी इबादतगाहों इत्यादिओं
में जहां खुदा को याद किया जाता है और उसकी तारीफ़ बयान की जाती है इबादत करने के
लायक ही नहीं रहने देते।
प्रसिद्ध पाकिस्तानी विद्वान जावेद अहमद
अमीदी लिखते हैं। “कुरआन इस बात को मानता
है कि अगर इन मामलों में ताकत के प्रयोग को जायज करार नहीं दिया गया हो तो सरकश
कौमों के जरिये फैलाया गया फसाद और अराजकता इस हद तक पहुँच जाती कि इबादत गाहें
जहां कादिरे मुतलक को लगातार याद किया जाता है वीरान हो जातीं,
समाज में जो अशांति फैलती वह अलग।“
“ऐसा नहीं होता कि
अल्लाह एक प्रकार की इबादत गाहें जहां कादिरे मुतलक को लगातार याद किया जाता है
वीरान हो जातीं, समाज में अशांति फैलती
वह अलग”।
“अगर ऐसा नहीं होता कि
अल्लाह एक प्रकार के लोगों को दूसरे प्रकार के लोगों से आज़माता तो खानकाहें,
गिरजा गहर,
और मस्जिदें जहां उसकी तारीफ़ बयान की जाती
है पूरी तरह से तबाह कर दी जातीं।“ (२२-४०)
स्पष्ट है कि हमें एक कमतर दर्जे के जिहाद
(क़िताल) की अनुमति दी गई है जिसमें जिस्मानी तौर पर लड़ाई की जाती है ताकि हम हर
व्यक्ति के इंसानी अधिकारों की सुरक्षा कर सकें ताकि वह अपनी पसंद की इबादतगाह में
खुदा की तारीफ़ कर सके। चाहे वह खानकाह हो,
मंदिर हो,
गिरजा घर हो या मस्जिद हो। लेकिन ऐसा
क्यों होता है कि जब किसी मस्जिद का मामला होता है हम चिंतित होते हैं जबकि
रियासतें ख़ास कर मुस्लिम और एलामिया तौर पर इस्लामी रियासतें मंदिरों,
खानकाहों,
गिरजाघरों और यहूदी इबादतगाहों को काम
करने नहीं देतीं या गैर मुस्लिमों के अपने तरीके से खुदा की इबादत करने में कठिनाई
खड़ी करती हैं तो हमें इसकी परवाह नहीं होती।
केवल इतना ही नहीं। हम में कुछ उलेमा में
जो यह दावा करते हैं कि जिस तरह से गैर मुस्लिमों को इस्लामी राज्य में अपने
धार्मिक कार्य बजा लाने की पूरी आज़ादी होती है (हालांकि अमलन उन्हें इस तरह की
आजादी आम तौर पर नहीं होती) वैसी आजादी मुस्लिमों को नहीं। आप एक बार मुस्लिम
माता-पिता के घर में पैदा हो गए तो फिर हमेशा के लिए मुसलमान रहना है वरना,
जी हाँ,
कम से कम आपकी शह रग तो काट ही दी जाएगी।
बेशक विभिन्न फिरकों के सम्मानीय उल्मा ऐसे भी है जिनका कहना है कि अगर कोई जुमे
की नमाज़ अदा करते हुए ना देखा जाए उसकी शह रग काट दी जाए। नमूने के तौर पर देखें:
न्यू एज इस्लाम में प्रकाशित एक लेख में सलमान तारिक कुरैशी कहते हैं:
“ जो लोग जुमे की नमाज़ अदा नहीं करते उन्हें कत्ल कर दिया
जाना चाहिए। एक साहब मशहूर आलिम हैं और देवबंद मदरसा के बानियों में से एक हज़रत
मौलाना रशीद गंगोही के प्रशंसकों में से हैं। जिन साहब की बात कर रहा हूँ वह बहुत
रहमदिल और फैय्याज इंसान हैं। जिन पर लोग मदद के लिए आश्रित करते हैं। बहर हाल जब
मैंने दो दिन की बातचीत में कहा कि इंसान में सबसे आधारभूत विशेषता दूसरों के साथ
हमदर्दी और सिला रहमी है तो उन्होंने मुझसे मतभेद किया और कहा हमदर्दी व मेहरबानी
के हकदार केवल दीनदार और परहेज़गार मुसलमान हैं। जहां तक दूसरों का मामला है तो
उनको अपनी इस्लाह का मौक़ा मिलना चाहिए। इसके बाद वह वाजिबुल कत्ल होंगे। एक दुसरे
साहब से मेरी मुलाक़ात हुई जो बहुत धनी हैं। उनका कहना था कि जो लोग जुमे की नमाज़
नहीं पढ़ते उन्हें कत्ल कर दिया जाना चाहिए। उनकी गर्दन काट दो।“
“ इसलिए इस प्रकार की खून
आशाम लफ्ज़ी दरिंदगी उस शांतिपूर्ण पारसाई और सहिष्णुता की परम्परा से बहुत भिन्न
है जिसमें मुसलमानों की अक्सरियत पली बढ़ी है। मुझे अपने ज्ञान के आधार पर यह दावा
नहीं है कि राय दे सकूँ कि इस्लामी फ़िक्र का यह जाविया दुरुस्त है या वो। बहर हाल
उलेमा की एक ख़ास संख्या ऐसी है जिनकी राय है कि इस तरह की जारेहाना लफ्फाज़ियत जिसे
आम तौर पर लेकिन गलत तौर पर कट्टरपंथी कहा जाता है हाल के दौर की एक नज़रियाती
बिदअत है। यह एक Pseudo-Logical
सोच की पैदावार है, जो हमारे हिंसक और
संकुचित मानसिकता से इबारत है। ऐसा दौर जिसने आधुनिक साम्राजियत के उत्थान से जन्म
लिया और जिसके हानिकारक सांस्कृतिक और चेतनात्मक प्रतिक्रिया ने अपनी बुनियादों को
पीछे छोड़ दिया। इस प्रकार की मानसिक विरासत के पृष्ठभूमि में पाकिस्तान में किस
तरह का राजनीतिक वार्ता संभव है?”
एक खुले ज़हन के इस्लामी विद्वान डॉक्टर ए
बी एम महबूबुल इस्लाम जो इंटरनेशनल इस्लामिक यूनिवर्सिटी,
मलेशिया से जुड़े हैं कि एक इबारत देखें।
वह अपनी किताब “शरीअत में मज़हबी आज़ादी
(Freedom of
Religion in Shariah)”
में लिखते हैं।
“आजादी एक निष्पक्ष शब्द
है। धर्म के साथ इसको जोड़ने का अर्थ है कि व्यक्ति को इस बात की आज़ादी है कि उसका
कोई धर्म हो या ना हो। वह अपने धर्म पर अमल करे या ना करे उसकी तबलीग और प्रचार
करे या ना करे। उस पर ईमान लाए या ना लाए और उसमें परिवर्तन करे या ना करे। अगर वह
इस बात का निर्णय करता है तो बिना किसी दखल अंदाजी के उसे इसकी अनुमति है। उपर
उदहारण से आज़ादी का मफहूम स्पष्ट हो जाता है।
क्या किसी मुसलमान को यह आज़ादी हासिल है?
असल में शरई कानून के तहत मुसलमान ऐसा
करने के मजाज़ नहीं हैं चाहे वह मुस्लिम सरकार में हों या गैर मुस्लिम सरकार में,
जबरदस्ती और अपवाद के साथ। असल में इस्लाम
का मफहूम ही खुदा के आगे खुद सुपुर्दगी और आज्ञा पालन है जो कि खालिस आजादी के
मुबहम अर्थों की उलट है। इसलिए एक मुसलमान ईमान के हिस्सों,
इस्लाम के अरकान और जीवन के नियम पर अमल
दर आमद के लिहाज़ से आज़ादी हासिल नहीं कर सकता,
क्योंकि यह सब उसके मुसलमान और अहले ईमान
कहलाने के लिए जरूरी हैं। उसे इन मामलों में शर्त के साथ आज़ादी हासिल हो सकती है
जो मज़हब के बुनियादी और लाजमी अरकान और हिस्सों के दायरे में नहीं आते हैं”।
बेचारे जंगी यतीम जिन्हें हम तालिबान के
नाम से जानते हैं, जिन्होंने कुछ समय के
लिए अफगानिस्तान पर शासन की, अजीब
व गरीब सोच के मालिक हैं जो यह मानते हैं कि अगर कोई मर्द एक विशिष्ट लम्बाई की
दाढ़ी नहीं रखता है या विशिष्ट लम्बाई का लिबास नहीं पहनता है या फिर कोई औरत अपने
जिस्म की एक इंच जिल्द भी ज़ाहिर करती है वह सज़ा की हकदार है। मगर मेरे खयाल में
दरअसल यह इस्लाम में रुढ़िवादी सोच की असल धारा है जिसका विरोध मेन स्ट्रीम इस्लाम
नहीं कर रहा है। इस बात का क्रेडिट तालिबान को जाता है कि उन्होंने उलेमा के इन
दकियानूसी (Outstandish) सोच
को लागु करने की कोशिश में इस सोच को जग ज़ाहिर कर दिया है। यह उन्ही लोगों की वजह
से हुआ कि मेरे जैसे लोगों की जो इस्लाम की असल धारा को अमन और बहुलतावाद में रच
बस जाने वाला इस्लाम समझ कर संतुष्ट थे। सच्चाई तक पहुँचने के लिए मज़हबी लिट्रेचर
का गहराई से अध्ययन करना पड़ा। यही वह रुढ़िवादी मानसिकता है जो मुसलमानों की
अक्सरियत के ज़ेहन पर छाई हुई है। इसलिए इसमें हैरत की कोई बात नहीं है कि जहां हम
में से कुछ लोग तालिबानी इस्लाम के नाम से ही बिदकते हैं और इस बात पर संतुष्ट हैं
कि इस्लाम की असल धारा से जुड़े लोग इस्लाम की इस व्याख्या को किसी भी तरह स्वीकार
नहीं करेंगे। वहीँ गौर से देखने पर यह दिखता है कि असल में मेनस्ट्रीम कम से कम
पिछड़े समाज में यह कोई बड़ा मसला नहीं है। इससे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ
इलाकों में तालिबान की मकबूलियत की वजह समझ में आती है। वैसे भी सऊदी अरबिया लाखों
डॉलर की मदद से जिस इस्लाम की तबलीग व प्रचार कर रहा है वह तालिबानी इस्लाम से
अधिक अलग नहीं है। यही इस्लाम भारत और इंडोनेशिया में इस्लाम की असल धारा के मानने
वाले वर्गों, कसीर तहज़ीबी मुस्लिम
समाज और सूफियाना वर्गों में दिन प्रतिदिन विकास कर रहा है।
मैं आशा करता हूँ कि मुंबई के सहयोग
कल्चरल सुसाईटी के अब्दुल समीअ हीरे और वह सभी लोग जो स्विट्जरलैंड में मीनारों और
फ्रांस में बुर्के पर पाबंदी से चिंतित हैं या फिर भारत के दाएं बाजू के लोग जो
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तहलील का मुतालबा करते हैं वह तथाकथित इस्लामी समाज
में गैर मुस्लिमों और उनसे अधिक मुस्लिमों की मज़हबी आजादी के अभाव पर अपनी नाराज़गी
का इज़हार करेंगे। तथाकथित इस्लामी उलेमा कुरआनी आयतों ‘ला
इकराह फिद्दीन’ (दीन
में कोई जब्र नहीं) और ‘लकुम दीनुकुम वालीयदीन’
(तुम्हारा दीन तुम्हारे साथ और मेरा दीन
मेरे साथ) से यह साबित करने के लिए लम्बी चौड़ी तकरीर कर देते हैं कि आज के
मुसलामानों के लिए उनकी आध्यात्मिकता नहीं है और उन्हें हमारे चेतना से बाहर कर
देना चाहिए। ऐसे आलिमों पर हमें शर्म आती है।
जब तक कि हम अपने समाज में (मुस्लिमों और
गैर मुस्लिमों दोनों के लिए) मजहबी आज़ादी के लिए संघर्ष नहीं करते हैं तब तक गैर
मुस्लिम समाज में मज़हबी आज़ादी के हुसूल के लिए हमारे संघर्ष को बजा तौर पर
मुनाफिकत से ताबीर किया जाएगा।
URL for English article: https://www.newageislam.com/islam-and-tolerance/those-who-do-not-attend-friday-prayers-should-simply-be-killed-slit-their-throats---deoband/d/1795
URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/religious-freedom-indivisible-muslims-demand/d/124615
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