जावेद अहमद गामदी
11 मई, 2018
यह बात अब तर्क का मोहताज नहीं रहा कि पाकिस्तान के लिए इस समय सबसे बड़ी समस्या धार्मिक उग्रवाद हैl हमारी बदकिस्मती है कि फ़िक्र व ख़याल और जुबान व कलम से आगे अब यह क़त्ल व गारत और आतंकवाद का रूप धारण कर चुका हैl राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज हर चीज इसकी चपेट में है और हज़ारों बच्चे, बूढ़े और जवान इसकी नज़र हो चुके हैंl इतिहास बताता है कि इस तरह की स्थिति में अंततः लड़ने ही का निर्णय करना पड़ता है और हमारी राजनीति को भी शायद एक दिन यही करना पड़ेगाl फिर तौबा व इस्तिग्फार भी करनी होगी कि भविष्य में हम धर्म को अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कभी इस्तेमाल नहीं करेंगेl इसकी नौबत अगर आ जाए तो उग्रवाद को उसकी बुनियाद से उखाड़ने के लिए यह कुछ बातें अतिरिक्त मद्देनजर रहनी चाहिए:
एक यह कि उग्रवाद का दानव सीधे आसमान से नहीं उतराl यह उसी धार्मिक विचार का जन्मा फसाद है जो शरीअत के प्रवर्तन और जिहाद व किताल के शीर्षक के तहत और कुफ्र, शिर्क और इर्तेदाद के इस्तिसाल के लिए हमारे मदरसों में पढ़ा और पढ़ाया जा रहा हैl चरमपंथी लोग और संगठन उसी से प्रेरणा प्राप्त करते हैं और कुछ परिवर्तन के बाद अपने मद्देनजर उद्देश्यों के लिए उसको अमल के टेम्पलेट में ढाल लेती हैंl यह धार्मिक विचार कुरआन व हदीस की जिन व्याख्याओं पर आधारित है, उनकी गलती वर्तमान समय में इस्लाम के जलीलुल कद्र विचारक स्पष्ट कर चुके हैंl इल्म व इस्तिदलाल के मुकाबले में हंगामा व एहतिजाज और शक्ति के इज़हार का तरीका खत्म हो जाए तो इन विचारकों के रुश्हाते फ़िक्र ज़हनों को परिवर्तित कर सकते हैंl प्रचलित धार्मिक विचार के मुकाबले में यह जैसे एक जवाबी बयान (counter narrative) होगाl लेकिन पाकिस्तान की विडंबना यह है कि उसमें दीन व शरीअत की हिफाजत का यही तरीका प्रचलित हैl सभ्यता और विनम्रता के साथ मतभेद की परंपरा बदकिस्मती से यहाँ कायम नहीं हो सकीl यह स्थिति मांग करती है कि हमारे बुद्धिजीवी और अरबाब ए हल व अकद धार्मिक विचारधारा के स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए भी उसी तरह संवेदनशील हों, जिस तरह वह राजनीतिक विचारों के मामले में संवेदनशील हैं और इस स्वतंत्र अभिव्यक्ति को रोकने के लिए जो लोग दबाव डालने की कोशिश करें, उनहें साफ़ साफ़ बता दें कि यह दबाव अस्वीकार्य हैl वह अगर अपने साथ मतभेद रखने वालों की गलती सपष्ट करना चाहते हैं तो उनके लिए भी एक रास्ता यही है कि उसे इलाम व इस्तिदलाल से स्पष्ट करने की कोशिश करेंl इल्म की दुनिया में हंगामा व विरोध प्रदर्शन और जब्र व इस्तिब्दाद के लिए कोई जगह नहीं है फिर यह बुद्धिजीवी और अरबाब ए हल व अकद खुद भी उस बयान को समझने की कोशिश करें जिसका उल्लेख ऊपर हुआ हैl मुसलामानों के समाज में सेक्युलरिज्म की तबलीग नहीं, बल्कि धार्मिक फ़िक्र का एक जवाबी बयानिया ही स्थिति का सुधार कर सकता हैl अल्लामा इकबाल ने “तश्कील ए जदीद इलाहियाते इस्लामिया” के शीर्षक से अपने खुतबात में इसी हकीकत की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की थीl
दूसरी यह कि हम किसी व्यक्ति को यह अनुमति तो नहीं देते कि बारह साल की सार्वजनिक शिक्षा के बिना ही वह बच्चों को डॉक्टर, इंजिनियर या किसी दुसरे क्षेत्र का माहिर बनाने के इरादे कायम करेl मगर दीन का आलिम बनने के लिए इस तरह की कोई पाबंदी नहीं हैl इस उद्देश्य के लिए छात्र प्रारम्भ ही से ऐसे मदरसों में दाखिल कर लिए जाते हैं, जहां उनके भविष्य का फैसला हो जाता हैl कुदरत ने, हो सकता है कि उनहें डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक या शायर व अदीब और चित्रकार बनने के लिए पैदा किया हो, मगर यह मदरसे उनकी योग्यता और जोक व रुझान से परे उनहें आलिम बनाते और चेतना की आयु को पहुँचने के बाद जीवन के किसी दुसरे क्षेत्र का चुनाव कर लेने के लिए मौके उनके लिए कहातम कर देते हैंl फिर जिन को आलिम बनाते हैं, बारह साल की सार्वजनिक शिक्षा से महरूमी के कारण उनके व्यक्तित्व को भी एक ऐसे सांचे में ढाल देते हैं जिससे वह अपने समाज में अजनबी बन कर रह जाते हैंl इस गलती के परिणाम अब पुरी कौम भुगत रही हैl इसलिए अपरिहार्य है कि दीनी शिक्षा के संस्थाओं को भी विशिष्ट शिक्षा के दुसरे संस्थाओं की तरह पाबन्द किया जाए कि बारह साल की सार्वजनिक शिक्षा के बिना वह किसी छात्र को अपने संस्थाओं में दाखिल नहीं करेंगेl
हम पुरे इतमिनान के साथ कह सकते हैं कि केवल यही प्रयास उस स्थिति को परिवर्तित कर देगा जो इस समय दीनी शिक्षाओं के संस्थाओं ने पैदा कर रखा हैl लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि सार्वजनिक शिक्षा का निजाम जो महारत हर जीवन के क्षेत्र में विशिष्ट सिक्षा के लिए प्रदान करता है,वह दीन का आलिम बनने के लिए भी प्रदान करेl हमारी तजवीज यह है कि इसके लिए सार्वजनिक शिक्षा के कुछ चुने हुए संस्थाओं में बिलकुल उसी तरह एक दीनियात ग्रुप शुरू किया जाए, जिस तरह विज्ञान और आर्ट्स के ग्रुप इस समय मौजूद हैं ताकि जो छात्र दीन के आलिम बनना चाहते हों, वह अपनी शिक्षा के नौवें साल इस ग्रुप का चुनाव करें और इस क्षेत्र की विशिष्ट शिक्षा के संस्थाओं में दाखिले की योग्यता अपने अंदर पैदा कर लेंl
तीसरी यह कि आतंकवाद से निजात के लिए उस रियासत का खात्मा जरुरी है जो उलेमा को जुमे के मिम्बर और मस्जिदों के एहतिमाम से हमारे देश में हासिल हो चुकी हैl इल्म वाले इस वास्तविकता से वाकिफ हैं कि नमाज़ के बारे में जो सुन्नत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कायम की, वह यह थी कि उसकी इमामत और उसका खिताब हुकूमत के सरबराह और उसके अम्माल करेंगेl उनके सिवा कोई दुसरा व्यक्ति अगर उनकी किसी माजुरी की स्थिति में जुमे के मिम्बर पर खड़ा होगा तो उनकी इजाज़त से और उनके कायम मुकाम की हैसियत से खड़ा होगाl
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद भी यह सुन्नत पुरी शान के साथ कायम रही, लेकिन बाद के जमानों में जब शासक अपने अम्माल की वजह से इस के अहल नहीं रहे तो जुमे का मिम्बर खुद उन्होंने उलेमा के हवाले कर दियाl धर्म के नाम पर फितना व फसाद को असली ताकत इसी से हासिल हुईl यह स्थिति परिवर्तन होनी चाहिए और हमारे शासकों को पुरे प्रतिबद्धता के साथ फैसला करना चाहिए कि इस नमाज़ का एहतिमाम अब हुकुमत करेगी और यह केवल उनहीं स्थानों अपर अदा की जाएगी जो राज्य की ओर से इसके लिए निर्धारित कर दिए जाएंगेl इसका मिम्बर शासकों के लिए ख़ास होगाl वह खुद इस नमाज़ का खुतबा देंगे और इसकी इमामत करेंगे या उनकी ओर से उनका कोई प्रतिनिधि यह जिम्मेदारी अदा करेगाl राज्य के सीमाओं में कोई शख्स अपने तौर पर इस नमाज़ का एहतिमाम नहीं कर सकेगाl
इस तरह फैसला करना चाहिए की आम नमाज़ों की मस्जिदें भी सरकार की अनुमति से बानाई जाएंगीl वह किसी ख़ास फिरके या मकतबे फ़िक्र की मस्जिद नहीं होंगी, बल्कि खुदा की मस्जिदें होंगी, जहां केवल उसी की इबादत की जाएगीl मस्जिद मुसलामानों का एक इज्तिमाई इदारा है, उसे अफ़राद और तंजीमों के कंट्रोल में नहीं दिया जा सकताl इसलिए जरुरी है कि मुसलामानों की हुकूमत जहां भी कायम हो, वह मस्जिदों पर अपनी सत्ता पुरी ताकत के साथ कायम रखें और किसी शख्स को इजाज़त ना दे कि वह उनहीं की तंजीम, तहरीक या किसी ख़ास दृष्टिकोण के प्रचार के लिए इस्तेमाल करे और इस तरह खुदा की इबादतगाहों के बजाए उनहें मुसलामानों के बीच फूट डालने के केन्द्रों में परिवर्तित कर देl यह यह इकदाम नागुज़ीर हैl इसकी बरकात अगर कोई शख्स देखना चाहे तो उन देशों में जाकर देख सकता है, जहां मस्जिदों के इंतज़ाम के लिए यही तरीका अपनाया गया हैl
11 मई, 2018 सौजन्य से: रोजनाम चट्टान, श्रीनगर
URL for Urdu article: https://www.newageislam.com/urdu-section/religious-extremism-/d/115206
URL: