गुलाम गौस सीद्दिकी, न्यू एज इस्लाम
16 नवंबर 2019
यह उस जिहादी विचारधारा की रद्द का चौथा भाग है जो ‘इकीस्वी शताब्दी में आतंकवाद का औचित्य पेश करने के लिए इस आयत “मुशरेकीन को मारो जहां पाओ” का प्रयोग करते हैं। हनफी उसूल ‘दलालतू सयाकुल कलाम’ से खुले तरदीद का यह भाग केवल आयत “मुशरिकों को मारो जहां पाओ” (9:5) के संदर्भ के विश्लेषण पर आधारित है।
हनफी फिकह के सिद्धांतों के अनुसार इन पांच में से एक सूरते हाल जिसमें लुग्वी (हकीकी) अर्थ नहीं लिए जाते हैं ‘दलालतू सयाकुल कलाम’ है।
हनफी फिकह के सिद्धांत ‘दलालतू सयाकुल कलाम’ से वह स्थिति मुराद है जहां किसी भी शब्द का शाब्दिक अर्थ कलाम के संदर्भ की वजह से तर्क कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में कुछ करीने ऐसे होते हैं जो यह ज़ाहिर करते हैं कि यहाँ शब्द का शाब्दिक अर्थ मुराद नहीं है।
जैसे कि अरबी भाषा के शब्द “रजुल” का शाब्दिक अर्थ “एक बालिग़ इंसान मर्द” है। अब अगर कोई जंग के बीच अपने दुश्मन से कहता है, “अगर तुम मर्द हो तो मुझसे मुकाबला करो।“ लेकिन यहाँ मौजूदा सूरते हाल इस बात को चिन्हित करता है कि यहाँ शब्द ‘मर्द’ से उसकी लिंग नहीं बल्कि उसकी बहादुरी मुराद है। इसलिए, यहाँ इस शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘मर्द इंसान’ को ‘द्लालतू सयाकुल कलाम’, की वजह से छोड़ दिया गया है।
इसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी की बहादुरी की दास्तान बयान करते हुए यह कहे कि, “एक आदमी जंग में शेर की तरह लड़ रहा था।“ अब यहाँ वाक्य के संदर्भ और महले कलाम की वजह से, शब्द “शेर” का शाब्दिक अर्थ नहीं लिया जाएगा। अर्थात यह नहीं कहा जाएगा कि वह शख्स “बिल्ली के खानदान का एक बहुत बड़ा जंगली जानवर” था बल्कि इसका अर्थ यह होगा कि वह आदमी शेर की तरह बहादुर था।
“दलालतू सयाकुल कलाम” के इस हनफी फिकही उसूल की रौशनी में आइए अब हम आयत “मुशरेकीन को मारो जहां पाओ” (9:5) में वारिद होने वाले शब्द “मुशरेकीन” को समझने की कोशिश करते हैं।
शब्द मुशरेकीन का शाब्दिक अर्थ है वह ‘जो शिर्क का इर्तेकाब करते हैं’ अर्थात वह लोग जो अल्लाह पाक के सिवा और किसी की इबादत करते हैं और अल्लाह के साथ उसकी ज़ात और सिफात में किसी और को भी बराबर का शरीक मानते हैं।
आयत 9:5 में उल्लेखित शब्द ‘मुशरेकीन’ का शाब्दिक अर्थ इस बात का मुतालबा करता है कि शिर्क करने वाले तमाम लोग क़त्ल कर दिए जाएं। लेकिन आयत 9:5 का पूरा संदर्भ इस बात का मुतालबा करता है कि केवल वही लोग क़त्ल किये जाएंगे जो मज़हबी शोषण, अमन मुआहेदे की खिलाफवर्जी और हालते जंग को बहाल करने वाले हैं। इसलिए ‘दलालतू साकुल कलाम’ के सिद्धांत के आधार पर यहाँ शब्द “मुशरेकीन” का शाब्दिक अर्थ तर्क कर दिया जाएगा।
जहां तक आयत 9:5 के सन्दर्भ का संबंध है, इसकी चर्चा हमने पिछले खंडों में कलासिकी उलेमा और मुफ़स्सेरीन की व्याख्याओं की रौशनी में की है। संक्षेप में, मुशरेकीन ने 14 या 15 वर्षों तक मक्का में पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और उनके अनुयायियों को सताया। उन्होंने अल्लाह के पसंदीदा धर्म इस्लाम को स्वीकार करने वालों पर हर तरह का अपमान किया था। उन्होंने अल्लाह के नाजिल किये हुए आयत पर निराधार आपत्ति की, शरीअत के अह्कामों का उपहास किया और तेरह वर्षों तक अपने अत्याचारों को जारी रखा। शुरुआत में, मुसलमानों को धैर्य रखने की आज्ञा दी गई थी। नबूवत के एलान के तेरहवें वर्ष में हिजरत की अनुमति दी गई थी। पवित्र पैगंबर और उनके साथी मक्का से ढाई सौ मील दूर यसरब नामक एक बस्ती में एकत्र हुए। लेकिन मक्का के काफिरों का कोप कम नहीं हुआ। यहां भी मुसलमानों को चैन से सांस लेने की इजाजत नहीं थी। काफिरों के दस दस -बीस बीस के जत्थे आते। यदि किसी मुसलमान के मवेशी मक्का के चरागाहों में चर रहे होते, तो उन्हें ले जाते। अगर कोई मुसलमान मिल जाता, तो वह उसे भी क़त्ल करने से बाज़ न आते। जब मुसलमानों के खिलाफ मक्का के मुशरेकीन के उत्पीड़न ने अपनी सारी हदें पार कर दी, तो अल्लाह ने मुसलमानों को आत्मरक्षा में हथियार उठाने की अनुमति दी।
जहां तक आयत 9:5 के संदर्भ की बात है तो हमें इसे आयत 9:1 की रौशनी में समझना चाहिए, जिसमें अल्लाह ने फरमाया है कि “बेज़ारी का हुक्म सुनाना है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ से उन मुशरिकों को जिनसे तुम्हारा समझौता था और वह कायम न रहे (बल्कि उन्होंने अमन मुआहेदे का उल्लंघन किया और जंग की हालत को बहाल किया)। उपर्युक्त संदर्भ की रौशनी में हमने देखा है कि अरब के मुशरेकीन धार्मिक शोषण करने वाले थे जिनके साथ आयत 9:1 के अनुसार अमन मुआहेदे किये गए थे लेकिन जब उन्होंने उस अमन मुआहेदे का उल्लंघन किया तो अल्लाह की तरफ से “बराअत” का एलान कर दिया गया। लेकिन यहाँ भी एक अपवाद उन लोगों का था जिन्होंने अमन मुआहेदे का उल्लंघन नहीं किया था जैसा कि आयत 9:4 में अल्लाह का फरमान है, “मगर वह मुशरिक जिनसे तुम्हारा मुआहेदा था फिर उन्होंने तुम्हारे अहद में कुछ कमी नहीं की और तुम्हारे मुकाबले किसी को मदद न दी तो उनका अहद ठहरी हुई मुद्दत तक पूरा करो, बेशक अल्लाह परहेज़गारों को दोस्त रखता है।“ इस आयत से ज़ाहिर होता है कि जिन लोगों ने अमन मुआहेदे का उल्लंघन नहीं किया था उनके खिलाफ लड़ने का हुक्म नहीं दिया गया था। अल्लाह के इन तमाम अह्कामों की रौशनी में आसानी से यह समझा जा सकता है कि उनके साथ जंग इसलिए नहीं हुई कि वह मुशरेकीन थे बल्कि इसलिए कि वह ज़ालिम व सितमगर थे जिन्होंने अहद करने के बाद अहद शिकनी की। इसकी ताईद इस आयत से भी होती है जिसमें अल्लाह का फरमान है, “और ऐ महबूब अगर कोई मुशरिक तुमसे पनाह मांगे तो उसे पनाह दो कि वह अल्लाह का कलाम सुने फिर उसे उसकी अमन की जगह पहुंचा दो यह इसलिए कि वह नादान लोग हैं”। (9:6)
कलामे इलाही के इस संदर्भ को देखते हुए, यहाँ शब्द "मुशरेकीन" का शाब्दिक अर्थ नहीं लिया जा सकता है। बल्कि, इसका शाब्दिक अर्थ छोड़ दिया जाएगा और इसे इस तरह से समझाया जाएगा कि इस आयत में मुशरेकीन से मुराद वह अरब के मुशरेकीन थे जो धार्मिक शोषण और शांति संधि का उल्लंघन कर रहे थे। यही कारण है कि हम इमाम बैजावी, अल्लामा अलुसी, अल्लामा जस्सास, इब्न हातिम, इब्न मुंज़र और जलालुद्दीन अल-सुयुती जैसे प्रसिद्ध क्लासिकी उलमा और मुफ़स्सेरीन की पुस्तकों में भी समान स्पष्टीकरण मिलती हैं।
“इमाम बैज़ावी कहते हैं कि, “आयत 9:5 में शब्द “मुशरेकीन” से मुराद “नाकेसीन” हैं अर्थात वह लोग जिन्होंने अमन मुआहेदे का उल्लंघन किया और जंग की हालत को दुबारा बहाल कर दिया। (बैज़ावी, “अनवारुल तंजील व असरारुल तावील, जिल्द 3 पेज 71, 9:5) इसी तरह अल्लामा आलूसी ने भी कलामे इलाही के संदर्भ की वजह से शब्द मुशरेकीन के शाब्दिक अर्थ को तर्क कर दिया और यूँ उन्होंने शब्द “मुशरेकीन” से “नाकेसीन” मुराद लिया (आलूसी, रुहुल मुआनी, जिल्द 10, पेज 50, 9:5)। इमाम सुयूती लिखते हैं, “इमाम इब्ने मुन्जर, इब्ने अबी हातिम और अबू शैख़ (रज़ीअल्लाहु अन्हुम) ने हजरत मोहम्मद बिन इबाद बिन जाफर से नकल किया है कि उन्होंने फरमाया “यह मुशरेकीन बनू खुजैमा बिन आमिर के हैं जो बनी बकर बिन कनआना से संबंध रखते हैं, “(दुर्रे मंसूर, जिल्द 3- पेज 666)। अल्लामा अबू बकर अल सुयूती के अनुसार” यह आयत (मुशरिकों को मारो जहां पाओ) अरब के मुशरेकीन के लिए ख़ास है और इसका इतलाक किसी और पर नहीं किया जा सकता। (अह्कामुल कुरआन लिल जसास, जिल्द 5, पेज 270)
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English Article: Refutation of ISIS In The Context and Structure of
the Quranic Verse ‘Kill the Mushrikin wherever you Find them’ (9:5)- Part 4
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