मुफ्ती मुहम्मद जाहिद कमर अल-कासिमी
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
11 अगस्त 2011
कुरआन मजीद जिस दौर और समाज में नाजिल हुआ उसका सबसे तकलीफ देने वाला पहलु अराजकता, अशांति और लूट था। अराजकता का अंदाजा इससे किया जा सकता है कि अरब में कोई औपचारिक सरकार का वजूद नहीं था, अरब के आस पास जो सरकारे स्थापित थीं, वह जातीय बरतरी और कह्तरी पर विश्वास रखती थीं और जो मानव समाज पैदाइशी अजमत और तह्कीर के अवधारणा पर कायम हो, ज़ाहिर है कि वहाँ न्याय का कायम होना असंभव नहीं। ऐसे माहौल में अल्लाह की आखरी किताब कुरआन मजीद के नाजिल होने का आरम्भ हुआ, इस किताब में जो सबसे पहली आयत नाजिल हुई उसमें इल्म और कलम की अहमियत को बताया गया और यह भी बताया गया कि तमाम इंसान के तखलीक का माद्दा एक ही है। इसमें इंसानी वहदत की तरफ इशारा था। इल्म इंसान को कानून का पाबन्द बनाता है और इंसानी बराबरी के अवधारणा से न्याय का जज्बा उभरता है और तकरीमे इंसानियत का अकीदा परवान चढ़ता है। इसी लिए एक ऐसा देश जो अमन व अमान से बिलकुल वंचित था और जहां अत्याचार और आतंकवाद ने कानून का दर्जा हासिल कर लिया था, इस्लाम ने उसको अमन व सलामती से हमकिनार किया, इंसानी भाईचारे का सबक पढ़ाया और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की भविष्यवाणी पूरी हुई कि एक महिला अकेले ऊंटनी पर सवार हो कर सना यमन से शाम तक का सफर करेगी।
इसने अपने मानने वालों के लिए दो ऐसी ताबीरें इख्तियार कीं, जिनके अर्थ ही “अमन व अमान” और “सुलह व सलामती” के हैं, अर्थात “मोमिन और मुस्लिम”। मोमिन के अर्थ अमन देने वाले के हैं और मुस्लिम के अर्थ सुलह और दूसरों की सलामती का लिहाज़ रखने वाले के। इस किताब की शुरुआत बिस्मिल्ला हिर्रह्मानिर्रहीम से हुई है जिसमें अल्लाह पाक की आम रहमत और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मेहरबान होने का ज़िक्र है और पहली सूरत की पहली आयत में ही खुदा को “तमाम कायनात का रब” करार दिया गया है। रब शब्द बे पनाह शफकत और ममता को ज़ाहिर करता है और आलम का रब कह कर पुरी इंसानियत एक कुंबा और खानदान का दर्जा रखती है। तो कुरआन मजीद अमन व अमान, इंसानियत भाईचारे और सार्वभौमिकता का अलमबरदार है, लेकिन बदकिस्मती से सूरज पर थूकने की कोशिश की जा रही है और कुछ तंग नजर लोग यह कहने की हिम्मत कर रहे हैं कि कुरआन मजीद में कुछ कमी है, जिसकी वजह से इस किताब के पढ़ने वालों में आतंकवाद का रुझान पैदा होता है, यह ऐसी बोहतान तराशी है कि कोई ऐसा शख्स सरसरी तौर पर भी कुरआन मजीद का अध्ययन किया होगा वह हरगिज़ इससे प्रभावित नहीं हो सकता कि यह दिन को रात और बर्फ को आग कहने की तरह है।
अरबी भाषा में आतंकवाद को “अरहाब” के शब्द से ताबीर किया जाता है। कुरआन ने हर मुसलमान को इस बात की अवश्य शिक्षा दी है कि उनके पास ऐसी ताकत मौजूद रहनी चाहिए कि उनके दुश्मनों को ज़ुल्म व जोर करने की हिम्मत न हो और वह मरउब रहें, इसको कुरान ने “कुव्वते मरहबा” से ताबीर किया है, इसलिए इरशाद है: “उनके लिए जितना संभव हो ताकत और घोड़े तैयार कर के रखो, ताकि तुम इसके जरिये अल्लाह और अपने दुश्मन और दुसरे लोग जिन्हें तुम नहीं जानते लेकिन अल्लाह उन्हें जानता है मरउब रख सको।“ कुरआन के इस बयान से स्पष्ट है की ताकत दुश्मनों को मरउब रखने और उनको ज़ुल्म व जोर से बाज़ रखने के लिए है न कि मासूमों को निशाना बनाने और तबाही व बर्बादी फैलाने के लिए।
कुरआन के जिहाद के अहकाम से यह गलत फहमी पैदा की जाती है कि वह निर्दोषों, किसी भी गैर मुस्लिम पर हमला करने और उसको हालाक कर देने की अनुमति देता है। इसके लिए इस आयत को पेश किया जाता है, जिसमें कुफ्फार को आम तौर पर क़त्ल करने का आदेश है। यह केवल गलतफहमी है, इस आयत का संबंध मक्का के मुशरेकीन से है। वह लगातार मुसलमानों से बरसरे पैकार थे और मुसलामानों की तरफ से की जाने वाली सुलह की कोशिशों को स्वीकार करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे, इसलिए जो लोग मुसलमानों से बरसरे पैकार हों और जिन लोगों ने उनको घर से बेघर और शहर से शहर बदर किया था, कुरआन उनके साथ अच्छे सुलूक और इंसाफ व एहसान का हुक्म देता है, इसलिए इरशाद है: “अल्लाह पाक तुमको उन लोगों के साथ बेहतर सुलूक और इंसाफ से नहीं रोकता, जो तुमसे दीन के मामले में बरसरे पैकार नहीं हैं और जिन्होंने तुमको तुम्हारे घरों से निकाला नहीं है, बेशक इंसाफ करने वालों को पसंद करता है।“
आतंकवाद में मुल रूप से इस बात पर ध्यान नहीं दी जाती कि असल ज़ालिम कौन है? बल्कि उसके संबंधियों में जो हाथ आ जाए उसे हिंसा का निशाना बनाया जाता है। इस्लाम ने इसको बिलकुल असैद्धांतिक और अमानवीय हरकत करार दिया है। कुरआन ने काएदा निर्धारित कर दिया है कि एक शख्स की गलती का बोझ और उसकी जिम्मेदारी दुसरे पर नहीं डाली जा सकती, कुरआन ने एक शख्स के क़त्ल को पुरी मानवता की हत्या की तरह करार दिया है। (अल मायदा:31)
कुरआन ने उन कारणों को भी रोकने की कोशिश किया है जो आतंकवाद का कारण बनते हैं, अधिक आतंकवाद का कारण यह बात होती है कि लोग दूसरों को जबरन अपने धर्म व अकीदे का इत्तेबा करने वाला बनाना चाहते हैं। ईसाईयों की धार्मिक इतिहास इसकी खुली हुई मिसाल है। कुरआन ने साफ़ एलान कर दिया कि दीन के मामले में जबरदस्ती की कोई गुंजाइश नहीं है (अल बकरा: 256) इसलिए इस बात से भी मना किया गया कि कोई गिरोह दूसरों के धार्मिक मुक्तदा और पेशवा को बुरा भला कहे कि इससे जज़्बात भड़कते हैं। (अल इनआम 10)
किसी समाज में आतंकवाद के पनपने का साल कारण अत्याचार व अन्याय है, जो गिरोह मज़लूम होता है अगर वह ज़ालिम का मुकाबला नहीं कर पाटा और इंसाफ के हुसूल से महरूम रहता है तो उसमें बदले की भावना पैदा होती हैं और जब वह देखता है कि कानूनी रास्ते बंद हैं तो गैर कानूनी रास्ता इख्तियार कर लेता है इसलिए आतंकवाद को रोकने का सबसे प्रभावी तरीका यह है कि समाज में ज़ुल्म व जोर का दरवाज़ा बंद किया जाए और अदल व इंसाफ को पुरी निष्पक्षता के साथ लागू किया जाए ताकि आतंकवाद पर आमादा करने वाले तत्व बाकी न रहें, इसलिए कुरआन की बड़ी ताकीद की है। अल्लाह पाक का इरशाद है कि अदल व इंसाफ करो (अल नहल 90) कुरआन ने ताकीद की है कि किसी कौम से अदावत भी तुमको उसके साथ ज़ुल्म व नाइंसाफी पर कमरबस्ता न कर दे और जादा ए अदल से हटाने न पाए। (अल मायदा:8)
इस समय स्थिति यह है कि आलमे इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ बहुत शिद्दत के साथ आतंकवादी होने का दुष्प्रचार किया जा रहा है हालांकि खुद मुसलमान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का निशाना बने हुए हैं। जिन देशों में मुसलमान अल्पसंख्यक है वहाँ मुसलमानों की दैनीय स्थिति ब्यान के काबिल नहीं है। मुसलमान अगर अपने देश में भी खुद अपनी इच्छा और मर्ज़ी से इस्लामी निज़ामे हयात को लागू करना चाहते हैं तो उनको तहज़ीबी तसादुम और शिद्दत पसंदी का नाम दे कर हस्तक्षेप की राह हमवार की जाती है और उनसे वही कुछ कहा जाता है जो अंबिया की कौमें उनसे कहा करती थीं जैसा कि हजरत शीत अलैहिस्सलाम और उनकी कौम का ज़िक्र करते हुए कुरआन के सुरह आराफ में इसका ज़िक्र किया गया है।
Urdu Article: Quran does not Preach Terrorism قرآن دہشت گردی کی تعلیم نہیں
دیتا
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