अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
29 जुलाई 2022
अधिकतर मुसलमान दुनयावी अखलाकी मूल्यों के अनुसार जीवन व्यतीत
करते हैं लेकिन पैगम्बराना नमूने पर यकीन रखते हैं
प्रमुख बिंदु:
1. पुरी दुनिया में मुस्लिम पुनर्जागरण का आंदोलन मुसलमानों
को नबी और उनके सहाबा के नमूने की तकलीद करने की दावत देती है।
2. आज अधिकतर मुसलमान बिलकुल अलग मेयार के मुताबिक़ जीवन
व्यतीत करते हैं, और मारुज़ी तौर पर इस तरह के एक पैगम्बराना नमूने में बहुत अधिक कमी महसूस करेंगे।
3. इस्लाम के पैगम्बर और उनके सहाबा की जिंदगी के पहलु,
जैसा कि हमारे मज़हबी
लिट्रेचर में दर्ज है, आज इंसानी हुकूक और लैंगिक समानता के दौर में तकलीद का नमूना नहीं बन सकते।
4. मुसलमानों को यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या वह किसी
ऐसे मज़हबी उसूल पर कारबंद होना चाहते हैं जिसकी साधारणतः पैरवी नहीं की जा सकती।
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पुरी दुनिया के बाज़मीर मुसलमान हमेशा यह मानते रहे हैं कि इस्लाम के पैगम्बर का दौर और उसके फ़ौरन बाद के कुछ साल मुस्लिम इतिहास के बेहतरीन साल रहे हैं। एक रिवायत है जिसमें कहा गया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि मेरा ज़माना हर जमाने से बेहतर है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि नबी के जमाने के बाद खिलाफत राशदा कायम हुई। उन्हें इस लिहाज़ से हिदायत याफ्ता माना गया कि वह नबी के करीबी साथी थे और उन्होंने इस्लाम और इसकी शिक्षाओं को सीधे आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सीखा। यहाँ तक कि जब 18 वीं सदी के बाद मुसलमानों ने दुनिया के अधिकतर हिस्सों में अपनी राजनीतिक ताकत खो दी, तब से ही पैगंबर और उनके सहाबा के दौर की तरफ लौटने की दावत शुरू हो गई। हमें बताया जाता है कि उस जमाने में इस्लाम अपनी खालिस तरीन शक्ल में रायज था और मुसलमान अपनी जिन्दगी दीन के मुताबिक़ गुज़ार रहे थे। नबूवत के नमूने और खिलाफत राशदा के जमाने की तरफ वापसी की यह दावत केवल इस्लाम पसंदों ने ही नहीं दी बल्कि नीम राजनीतिक मुसलमानों ने इसे अपना वतीरा बना लिया।
इस मकाम पर हमें एक बुनियादी सवाल यह पूछने की आवश्यकता है कि क्या पैगम्बराना नमूना और खिलाफत वाकई तकलीद के लायक हैं और क्या आज मुसलमानों को इसकी तरफ आकर्षित होना चाहिए? हमारे मज़हबी लिट्रेचर के मुताबिक़, नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अधिक तर वही मक्का में नाज़िल हुई और कुछ मदीना में। जब कि मक्का में नाज़िल होने वाली वही में कोई असली बात नहीं है, क्योंकि इसमें यहूदियों और ईसाईयों की वही कहानियाँ दुबारा पेश की गई हैं, लेकिन उनके बीच एक ख़ास समानता है जो तारीफ़ के काबिल है। लेकिन मदीना में नाज़िल होने वाली एक छोटी सी वही इन सब चीजों को बदल देती है, क्योंकि इसमें मुसलमानों को हुकम दिया जाता है कि वह जहां कहीं भी काफिरों को पाएं उन्हें क़त्ल कर दें। इन दोनों विरोधाभासी संदेशों की पैरवी नबी ने की: जब मक्का में रहे उन्होंने अमन की तबलीग की लेकिन जब वह मदीना में ताकतवर हो गए तो उन्होंने जंगें की और औरतों और बच्चों को गुलाम बनाया। हमें बताया जाता है कि यह रक्षात्मक जंगें थीं लेकिन ज़ाहिर है कि यह सहीह नहीं है। अगर जंग इस बुनियाद पर हो कि या तो मज़हब बदल लिया जाए या जज़िया अदा किया जाए तो इसे शायद ही रक्षात्मक जंग कहा जा सके। मज़ीद यह कि बहुत सी सूरतों में उन्हें तो जंग भी नहीं कहा जा सकता। उन्हें छापा मारी कहना अधिक उचित होगा और अल तबरी ने इनमें से बहुत से घटनाओं को अपनी सीरत की किताब में दर्ज भी किया है। ऐसा लगता है कि काफ्लों पर छापा मारना इस इलाके के कौमी खेल का हिस्सा है जो 18 वीं सदी तक जारी रहा, यहाँ तक कि उस्मानी आजमीन ए हज पर हमला किया गया, तावान के लिए उन्हें अगवा किया गया और कभी कभी अरबों के हाथों उनका क़त्ल भी हुआ। ऐसे छापे नबी से पहले भी होते रहे होंगे और उनके बाद भी होते रहे होंगे। महत्वपूर्ण बात यह है कि नबी ने इसे तब्दील करने के लिए बहुत कम काम किया। बल्कि, तबरी और दूसरों के मुताबिक़ कुछ छापों में हिस्सा लेने और उसकी कयादत करने के लिए, उन्होंने इसे मज़हबी जवाज़ भी फराहम किया। क्या यह एक माडल है जो आज तकलीद के लायक है?
जैसे ही नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस दुनिया से पर्दा किया, मुसलमानों ने अपने ‘काफिराना’ अकीदों की तरफ लौटना शुरू कर दिया। यह पहले खलीफा अबू बकर थे जिन्होंने अपनी तलवार के ज़ोर से उन्हें इस्लाम में दाखिल किया। ऐसी मिसालें भी मिलती हैं कि उनकी फ़ौज ने कुरआन के हाफिजों को भी नहीं बख्शा क्योंकि वह भी दुसरे मुर्तदीन के साथ मारे गए थे। मुसलमान पुरी दुनिया को बताते हैं कि दीन में कोई जब्र नहीं है, लेकिन फिर उन मुसलमानों को इस्लाम के दायरे में रहने पर इस्लाम के पहले खलीफा ने ही मजबूर किया। क्या यह एक ऐसा अमल है जो आज की दुनिया में तकलीद के लायक है जिस में मज़हबी विविधता और बहुलता की कसम खाई जाती है?
मुस्लिम फुकहा का कहना है कि पहले चार खुलफा अहले हक़ व हिदायत थे। इसलिए वह इसी बुनियाद पर यह कहते हैं कि किसी को भी उनकी नीयतों और तर्ज़े अमल पर शक नहीं करना चाहिए। और इस्लामी लिट्रेचर में यह भी मौजूद है कि तीसरे खलीफा उस्मान रज़ीअल्लाहु अन्हु ने अपने रिश्ते दारों को अहम पदों पर नियुक्त किया और उन्हें तरक्की दे कर अक्रबा परवरी को बढ़ावा दिया। उस्मान रज़ीअल्लाहु अन्हु को उन्हीं मुसलमानों ने क़त्ल किया, जिनमें से बहुत से नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सहाबा थे। इसलिए, अगर यह असहाब वाकई मिसाली थे जैसा कि फुकहा ए इस्लाम चाहते हैं कि हम मानें, तो उन्होंने अपने ही खलीफा को क्यों क़त्ल कर दिया? और केवल उस्मान ही नहीं बल्कि उन चार में से तीन खुलेफा ए राशेदीन अपनी फितरी मौत नहीं मरे। वह सब अपने साथी मुसलमानों के हाथों मारे गए। अगर हम यह मानते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़िन्दगी के करीब रहने वाले लोग आज के मुकाबले में बेहतर मुसलमान थे तो उनके अन्दर इस कातिलाना गुस्से की क्या तौजीह की जाए गी? इसकी क्या वजह बयान की जाएगी कि हिदायत याफ्ता खुलेफा में से आखरी खलीफा अली को नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बीवी के साथ बालादस्ती की जंग लड़नी पड़ी? जंगे जमल में कौन मारा गया? जवाब तकलीफदेह लेकिन स्पष्ट है: नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इन दो रिश्तेदारों ने महज़ अपनी कयादत की खातिर सैंकड़ों मुसलमानों को क़त्ल किया। क्या वह तकलीद के लायक हैं
आज के मुसलमान पहली नस्ल के मुसलमानों के मुकाबले बहुत बेहतर नज़र आते हैं। यकीनन इन्तेहापसंदी की लानत आज मुसलमानों के एक छोटे से वर्ग को प्रभावित कर रही है, लेकिन बड़ी अक्सरियत दुसरे के लिए हिंसा और घृणा के बिना इंसानों के साथ मिल कर रहना चाहती है। आज कोई मुसलमान काफलों पर छापा मार कर और माले गनीमत पर कब्ज़ा कर के, औरतों और बच्चों को गुलाम बना कर रोज़ी नहीं कमा रहा। आज कोई भी मुसलमान अपने साथी इंसान को महज़ इसलिए क़त्ल करने के लिए तैयार नहीं है कि वह काफिर हो सकता है। और फिर भी, यह गलत ख्याल कि इब्तिदाई मुसलमान बेहतरीन मुसलमान थे, आज तक बरकरार है। मसला यह है कि हम अपने परेशान हाल अतीत का सामना नहीं करना चाहते। किसी न किसी तरह इस्लामी स्कालर शिप की पूरी कोशिश अतीत में जो कुछ हुआ उसे सहीह साबित करना और तकलीफ दह हकाएक को पुरकशिश अंदाज़ में पेश करना है।
हम एक ऐसे दौर में रहते हैं जिसकी अखलाकी कदरें सातवीं सदी के अरब के मुकाबले में बहुत अलग हैं। अधिकतर मुसलमान भी दुनयावी अखलाकी मूल्यों के अनुसार ही जीवन व्यतीत करते हैं जिसकी तशकील मकाफाती कानून, मज़हबी और जिंसी अल्पसंख्यकों को स्वीकार किया जाना, लैंगिक समानता और मानवीय अधिकार से होती है। और फिर भी, हम मुसलमान अपने लिए बनाए गए मज़हबी नज़रियात और नमूनों पर सवाल उठाने में बहुत अधिक हिचकिचाहट महसूस करते हैं। क्या मुस्लिम समाज के लिए ऐसे नमूनों को अस्वीकार किये बिना आगे बढ़ने का कोई रास्ता है?
English Article: How Relevant is the Prophetic Model Today?
Urdu
Article: How Relevant is the Prophetic Model Today? پیغمبرانہ نمونہ آج کتنا
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