न्यू एज इस्लाम स्टाफ राइटर
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
29 जुलाई 2022
मानव इतिहास में हिजरत एक मुस्तकिल बाब है। मानव प्रचीन काल से ही विभिन्न जमीनी व आसमानी कारणों के आधार पर हिजरत करता रहा है, कभी व्यक्तिगत तौर पर तो कभी सामूहिक तौर पर। आदिवासी दौर में जब जीवन के संसाधन सीमित थे तो कबीले रोज़ी की तलाश में सामूहिक तौर पर हिजरत करते थे और किसी नदी के किनारे बस जाते थे। कबायली लड़ाकों की वजह से भी कबीले एक जगह से दूसरी जगह हिजरत कर जाते थे। कभी कभी लोग किसी ज़ालिम बादशाह के ज़ुल्म से बचने के लिए अपना वतन छोड़ कर किसी शांतिपूर्ण जगह चले जाते थे और बस जाते थे। कुदरती आफतों या कहत की वजह से भी लोग हिजरत करने पर मजबूर होते थे। इतिहास में सामूहिक हिजरतों के असंख्य किससे सुरक्षित हैं।
आधुनिक युग में जब सारे देशों की सीमाएं निर्धारित कर दी गईं और कौमी रियासत का तसव्वुर एक स्वीकार्य वास्तविकता बन गया तो कौमें अपनी सरहदों के अंदर महफूज़ जीवन गुज़ारने लगीं। अब किसी वुक्ति या गिरोह के लिए अपनी कौमी रियासत से निकलना या किसी दूसरी कौमी रियासत में दाखिल होना वैकल्पिक नहीं रह गया बल्कि इसके लिए दो कौमी रियासतों की इजाज़त लाज़मी हो गई। इंसान अब अपनी रियासत के अंदर ही रह कर अपने रोज़गार के संसाधन और अपनी शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के मौके तलाश करता है और अपने समस्याओं के समाधान के लिए अपनी सरकार से रुजूअ करता है।
इस तरह इंसान ने सभ्य दौर में आकर कबायली दौर की परेशानियों, मुसीबतों और असुरक्षा से निजात हासिल कर ली। कबायली दौर में इंसानों की इज्ज़त जान व माल महफूज़ नहीं होती थी। कोई भी ताकतवर कबीला किसी कमज़ोर कबीले पर हमला कर के इसके असबाब और औरतों को लूट लेता था और मर्दों को गुलाम बना लेता था। जदीद मुहज्ज़ब समाज में कौमी रियासतों के अफराद इस मुसीबत से महफूज़ हैं क्योंकि रियासत अब अपने नागरिकों की बाहरी हमलों से हिफाज़त करती है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आधुनिक वैश्विक समाज में इंसान हिजरत करने पर मजबूर नहीं है। आधुनिक दौर में कबीले तो नहीं हैं मगर कबायली मानसिकता ने इंसानों का पीछा पुरी तरह से नहीं छोड़ा है। इल्म व तहज़ीब की तरक्की के बावजूद इंसान पुरी तरह कबायली मानसिकता से आज़ाद नहीं हो सका है। आज कौम परस्ती ने कबायलियत का लिबादा ओढ़ लिया है और कौम परस्ती के नाम पर नस्ल बरतरी के नाम पर या लिसानी कौम परस्ती के नाम पर इंसानों ने एक दुसरे के खिलाफ हिंसा कर के और एक दुसरे पर अपनी वैचारिक बरतरी साबित करने के नाम पर कौमों को हिजरत करने पर मजबूर किया है। इस तरह की कबायली कौम परस्ती कम या अधिक दुनिया के हर खित्ते में नुमाया है लेकिन इसका अधिक असर मुस्लिम देशों में देखा जाता है। आज अधिकतर मुस्लिम देशों में इसी काबायली मानसिकता का हिंसक प्रदर्शन हो रहा है और इसके नतीजे में मुसलमान सामूहिक तौर पर हिजरत करने पर मजबूर हैं। मुसलमान कहीं मसलक के नाम पर कहीं भाषा के नाम पर, कहीं जातीय और सांस्कृतिक पहचान के नाम पर और कहीं तर्ज़े हुकूमत के नाम पर एक दुसरे के खिलाफ लामबद्ध ही नहीं हैं बल्कि एक दुसरे की इज्जत व आबरू और जान के दुश्मन बने हुए हैं। इस्लाम से पहले वह जिस कबायली मानसिकता में मुब्तिला थे आज भी वह उसी काब्य्ली मानसिकता में मुब्तिला हैं अंतर केवल यह है कि इस कबायली मानसिकता ने केवल खुबसूरत नज़रियात का लिबादा ओढ़ लिया है।
आज इसी जातीय, भाषाई, और सांप्रदायिक कौम परस्ती की वजह से मुसलमान लाखों की संख्या में हिजरत करने और अजनबी खित्तों में इफ़्लास, असुरक्षा और अपमान का जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं। 1971 में बांग्लादेश में भाषाई कौम परस्ती के नाम पर मुसलमानों ने एक दुसरे का खून बहाया, लाखों लोगों की जान गई, लाखों औरतों की मुसलमानों ने ही आबरू रेज़ी की और लाखों मुसलमान आज भी मुहाजिर बन कर बांग्लादेश के महाजिर कैम्पों में बेबसी की जिंदगी गुज़ार रहे हैं। 2014 में सीरिया में मसलकी खाना जंगी शुरू हुई जो आज भी जारी है। केवल एक विशेष तर्ज़े हुकूमत कायम करने के नाम पर हिंसा का बाज़ार कर्म किया गया, मस्जिदें, मज़ारात, इबादतगाहें और रिहायशी इमारतें तबाह कर दी गईं लाखों मुसलमानों का मुसलमानों ही के हाथों क़त्ल हुआ, लाखों मुस्लिम औरतों की मुसलमानों ने ही इज्जत लुटी उन्हें लौंडी बना कर उनकी खरीद और फरोख्त की गई और उन्हें तकलीफें दी गईं। इस क़त्ल व गारत गरी से जान बचा कर लाखों मुसलमान अपने वतन से भाग कर दुसरे देशों में पनाह गुज़ीं हुए और आज भी वह अपने देश वापस आने की हालत में नहीं हैं। शहर का शहर खाली हो चुका है और मकानों में भूत बसते हैं।
अफगानिस्तान में बीस वर्षों की गृहयुद्ध के दौरान लाखों मुसलमान हिजरत कर के पाकिस्तान, इरान और तुर्की के अलावा यूरोपीय देशों में पनाह गुजीं हुए। पाकिस्तान में बारह लाख अफगान पनाह गुज़ीं 2021 से पहले आबाद थे। 2021 में अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद और दो लाख अफगान वहाँ से हिजरत कर के पाकिस्तान चले आए क्योंकि वह तालिबान की हुकूमत में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करते। इस तरह पाकिस्तान में अब 15 लाख अफगान मुहाजेरीन पनाह गुजीं हैं जो अब भी अपने वतन वापस जाना नहीं चाहते। यह एक विडंबना है कि मुसलमान खुद मुसलमान की सरकार में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करते। अगस्त 2021 में तालिबान सत्ता में आने के बाद अफगान वहाँ से ऐसे भाग रहे थे जैसे वहाँ मुसलमानों की हुकूमत नीं आई है दज्जाल आ गया है। 2014 में भी सीरिया और इराक में अबू बकर बगदादी की तथाकथित खिलाफत कायम होने के बाद वहाँ से मुसलमान ऐसे भाग रहे थे जैसे मुसलमानों की हुकूमत न कायम हुई हो दज्जाल आ गया हो।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संगठन के हाई कमिश्नर बराए मुहाजेरीन ने अपनी एक रिपोर्ट में खा है कि पिछले केवल एक साल के बीच एशिया पेसिफिक खित्ते में एक लाख 38 हज़ार पनाह गुज़िनों का इज़ाफा हुआ है। अगर पुरी दुनिया में केवल मुस्लिम मुहाजेरीन की संख्या का अंदाजा लगाएं तो यह संख्या 30 लाख से अधिक होती है। यह वह मुसलमानों हैं जो मसलकी लिसानी या नस्लीय हिंसा के नतीजे में उजाड़े गए हैं और उनकी तबाही के जिम्मेदार मुसलमानों का मसलकी नज़रियाती और नस्ली असहिष्णुता और हिंसक प्रतिक्रिया है। इन मुहाजेरीन के अलावा ऐसे लाखों मुसलमान हैं जो अपने ही देश में उजड़ गए हैं और अपने घर को छोड़ कर देश के दुसरे हिस्से में पनाह लेने पर मजबूर हुए हैं। ऐसे अफराद की संख्या में भी पिछले एक साल में इज़ाफा हुआ है। अर्थात मुस्लिम देशों में हालत सुधरने की बजाए मज़ीद खराब हुए हैं। 2021 के आखिर तक दुनिया में 44 लाख अंदरूनी तौर पर मुहाजिर थे। केवल अफगानिस्तान में अंदरूनी तौर पर पनाह गुज़ीं अफराद की संख्या 35 लाख है। यह अफराद फाका कशी, बेरोजगारी, शैक्षिक सहूलियात के अभाव, चिकित्सा सहूलियात के अभाव और असुरक्षा के शिकार हैं और उनका भविष्य अँधेरे में डूबा हुआ है। यह मुसलमानों का अलमिया है कि उन्होंने मुसलमानों की शैक्षणिक, वैज्ञानिक और आर्थिक विकास के मंसूबों पर अमल दरआमद करने की बजाए केवल किसी राजनीतिक नजरिये को लागू करने को ही अपनी जिंदगी का मकसद बनाया जिसके नतीजे में तबाही, ज़िल्लत और पसपाई के सिवा कुछ हाथ न आया।
Urdu Article: Why Are Muslims Compelled To Migrate? مسلمان ہجرت پر مجبور کیوں
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