शकील शम्सी
बिहार के सीतामढ़ी से एक दुखद खबर आई कि वहां मस्जिद में नमाज़ पढ़ने को लेकर दो मसलकों में विवाद पैदा हो गया। मस्जिदों के मामले में विवाद होना कोई नई बात नहीं है, पहले भी कई बार शिया और सुन्नी समुदायों के बीच मस्जिदों के स्वामित्व को लेकर झगड़े हुए हैं। बरैलवी और देवबंदी सज्जनों के बीच भी मस्जिदों के मामले में झगड़े के समाचार आना कोई नई बात नहीं है। बल्कि कई जगहों पर तो हालात इतने खराब हो गए हैं कि मस्जिदों में बोर्ड लगा दिए गए हैं कि यहां केवल एक विशेष समुदाय के लोग ही प्रार्थना कर सकते हैं,लेकिन सीतामढ़ी से जो खबर आई वह इस लिये हैरान करने वाली है कि अहले हदीस और देवबंदी सज्जन एक मस्जिद के स्वामित्व को लेकर आमने-सामने हैं। हम स्पष्ट कर दें कि हमको इससे सरोकार नहीं कि इस मामले में कौन सही है, क्योंकि हमारी नज़र में मस्जिदें केवल अल्लाह की संपत्ति हैं और जो कुछ अल्लाह का है वह सभी मुसलमानों के स्वामित्व में है उस पर किसी विशेष संप्रदाय या किसी विशिष्ट आस्था का कब्जा नहीं हो सकता। इसका उदाहरण ऐसे भी दीया जा सकता है कि दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भारत सरकार ने नमाज़ पढ़ने के लिए जो आराधनालय मुसलमानों को प्रदान किया है उसमें हर फिरके का मुसलमान बे रोक टोक नमाज़ पढ़ सकता है क्योंकि वह किसी की संपत्ति नहीं वहाँ कोई नहीं कह सकता है कि यहां अमुक पंथ का इंसान नमाज़ पढ़ेगाl हमारे विचार में भारत की हर मस्जिद का रूप ऐसा ही होना चाहिए जैसा कि एयरपोर्ट पर है।
जरा ठंडे दिल से विचार कीजिए कि वह मुसलमान मस्जिदे हराम और मस्जिदे नबवी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम में मसलक और अक़ीदे से बेनियाज़ होकर नमाज़े बाजमाअत अदा करते हैं भारत के हवाई अड्डों पर उतरते,ही अपने मसलक की मस्जिद क्यों ढूंढने लगते हैं? बात यहीं तक रहती तो भी गनीमत थी आज तो भारतीय मुसलमानों का आलम यह हो गया है कि तबलीगी जमाअत और उलेमा ए देवबंद के बीच लोग फूट डाल रहे हैं,खानकाहों से खानकाहें संघर्षरत हो गई हैं। शियों पर शिया ही अभिशाप व मलामत कर रहे हैं, बल्कि यूं कहूं तो गलत नहीं होगा कि बात अब यहाँ पहुँच गई है कि एक ही मसलक के उलेमा के खानवादों में फूट पड़ी हुई है। राष्ट्र का हाल यह है कि सगा भाई के पीछे नमाज़ पढ़ने को राजी नहीं,चाचा भतीजों के बीच बनती नहीं,मामा भानजों की दरगाहें भले ही कई शहरों में मौजूद हों,लेकिन मुसलमानों के कई घरों में मामा भांजे भी एक दूसरे से खफा हैं। अब तो मुसलमानों के विभाजन का एक कारण राजनीतिक पार्टियां भी हो गई हैं।
जो मुसलमान जिस पार्टी से जुड़ा है उसी को मुसलमानों का मसीहा बताता है और दूसरी पार्टी से जुड़े मुसलमानों को दज्जाल का पालन करने वाला करार देने से भी उसको कोई संकोच नहीं होता। हमने सुना था कि जब किसी देश पर दनिया वाले आक्रमण करते हैं तो वो कौम अपने सभी मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाती है, लेकिन मुसलमानों के मामले में यह बात बिल्कुल उलटी साबित हो रही है, जैसे-जैसे इन पर दुनिया वालों की ओर से आक्रमण हो रहा है वे एकजुट होने के बजाय बिखरते जा रहे हैं और इस बिखराव को हर दिन तालिबान बोको हराम, आईएस, अल नुस्रह, लश्कर-ए-तैयबा, जमातुद्दावा, लश्करे झंगवी जैश ए मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन अधिक हवा दे रहे हैं। हम कहाँ से चले थे ओ रकहाँ आ गए, आज मुड़कर देखिए तो पता चलेगा कि बचपन से लेकर जवानी तक जो मुसलमान सिर्फ दो संप्रदायों में विभाजित लगते थे आज मसलक दर मसलक वह कहाँ तक विभाजित हैं। अब तो मुसलमानों की हालत यह हो गई है कि मसलक के बजाय अलग-अलग देशों से प्रतिबद्धता भी उनके अक़ीदे का एक हिस्सा हो गया है। उनमें से कोई अमेरिका समर्थक है, कोई रूस समर्थक, कोई ईरान का साथ देना अपना धार्मिक कर्तव्य समझता है और कोई सऊदी अरब के राजा के पक्ष को अपने धर्म का हिस्सा मानता है। किसी को तुर्की के शासकों से आस्था है तो कोई फ़तहुल्लाह गोलन के समर्थन कोअपना दीनी कर्तव्य समझता है। एक तरफ यह स्थिति है और दूसरी ओर खंडहर में तब्दील होती बस्तियां हैं और रक्त में नहाए हुए शहर हैं। जिन्होंने लाखों मुसलमानों को पलायन पर मजबूर किया वही आज प्रवासियों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा रहे हैं और अफसोस सद अफसोस कि हम मस्जिद की तवल्लियत पर झगड़ रहे है।
सौजन्य: इन्केलाब, नई दिल्ली
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