तहज़ीबी नर्गिसियत
मुबारक हैदर
सांझ
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किताब: तहज़ीबी नर्गिसियत Book : Tehzeebi Nargasiat
लेखक: मुबारक हैदर Writer: Mobarak Haider
पहला प्रकाशन: जनवरी 2009 1st Edition: January 2009
दूसरा प्रकाशन: अगस्त 2009 2nd Edition: August 2009
तीसरा प्रकाशन: जनवरी 2009 3rd Edition: January 2009 3
चौथा प्रकाशन: फरवरी 2011 4th Edition: February 2011 4
टाइटल डिज़ाइन: सईद इब्राहिम Title Design: Saeed Ibrahim
मूल्य: 200 Price in Pakistan: 200
विदेश में मूल्य: $10 Out of Pakistan : $10
प्रिंटरः शाह मोहम्मद, शाह प्रिंटर, लाहौर Printer: Shah Muhammad, Shah Printers
ISBN: 978-969-8957-56-8
सूची
1- भूमिका के रूप में 7
2- तहज़ीबी नर्गिसियत 11
3- विश्वासों में अराजकता 28
4- पाकिस्तान की अफगान नीति 32
5- मूल उद्देश्य क्या है? 40
6- धार्मिक नेतृत्व की चिन्ता 43
7- अश्लीलता और नग्नता का सवाल 47
8- अफगानिस्तान, इराक के मुद्दे को प्राथमिकता 49
9- नर्गिसियत का रोग 56
10- समानता और एकरूपता 62
11- उत्तरी क़बायली और तहज़ीबी नर्गिसियत 67
12- नर्गिस क्रोध 72
13- चित भी मेरी पट भी मेरी 75
14- अस्थिरता का व्यवहार 79
15- एहसासे मज़लूमियत 83
16- नर्गिसियत और खुश फ़हमी 87
17- वर्तमान स्थिति और तहज़ीबी नर्गिसियत 90
18- पूरी जीवन पद्धति 96
19- इस्लाम का प्रभुत्व 100
20- सुन्नते रसूल (स.अ.व.) का नज़रिया 103
21- अस्लाफ का गर्व 106
22- निजी व्यवहार 112
23- आध्यात्मिकता क्या है? 114
24- धर्म बतौर आध्यात्मिकता 117
25- जिहाद फी सबीलिल्लाह 123
26- अगर नहीं तो फिर ये हंगामा बला क्या है? 138
भूमिका के रूप में
पिछले कुछ बरसों के दौरान मुसलमानों ने आतंकवाद के सम्बंध में बड़ा नाम कमाया है। लेकिन आतंकवाद की घटनाओं से पहले भी हमारे मुस्लिम समाज विश्व समुदाय में अपने अलगाववाद और आक्रामक गर्व की वजह से प्रमुख स्थिति में रहे हैं।
दुनिया भर में इस्लाम और आतंकवाद के बीच सम्बंध की तलाश जारी है और ज्यादातर समृद्ध या विकसित समाज का दावा है कि जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है, वो इस्लामी सक्रियता के बुनियादी चरित्र का हिस्सा है। दूसरी ओर मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी लगातार स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं कि इस्लाम में हिंसा और आतंकवाद की कोई अवधारणा ही मौजूद नहीं है।
सच क्या है, ये जानने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। खासकर ये सवाल महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम समाज में मौजूदा हिंसा की लहर के खिलाफ विरोध न होने के बराबर क्यों है? जाहिर है कि जो तत्व तबाही पैदा करने की मौजूदा प्रक्रिया में लगे हुए हैं, उन्हें अपने प्रिय लोगों, अपने पड़ोसियों और अपनी बस्तियों की तरफ से नफरत का सामना नहीं है। अगर किसी समाज के रवैये में किसी अमल से सख्त नफरत मौजूद हो तो वो अमल फल फूल नहीं सकता। जैसे औरत की आज़ादी और मज़हबी आज़ादी के खिलाफ हमारे समाज में नफरत मौजूद है तो इन आज़ादियों के पनपने का सवाल ही पैदा नहीं होगा। इसलिए कहीं न कहीं हिंसा और तबाही को कोई ऐसा समर्थन हासिल है जो उसे ऊर्जा प्रदान करती है।
हिंसा और तबाही का ये अमल जिसने दुनिया भर के मुस्लिम लोगों को विश्व समाज की नज़र में संदिग्ध बना दिया है। यहां तक कि भारतीय उपमहाद्वीप और अफगानिस्तान के मुसलमान भय और नफरत का प्रतीक बन गए हैं। क्या ये अमल कुछ लोगों की सोच बिगड़ने से शुरू हुआ है? क्या मुस्लिम समाज दुनिया के दूसरे समुदायों के साथ चलने को तैयार हैं? क्या भारतीय उपमहाद्वीप अर्थात् बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान के मुसलमान आधुनिक युग की सभ्यताओं के साथ शांतिपूर्वक रह सकते हैं? क्या अफगानियों की भूमिका एक क्षेत्रीय संस्कृति तक सीमित रह सकता है? या प्राचीन विजेताओं की ये क़बायली आबादी मध्य एशिया, चीन, पाकिस्तान और भारत को जीतने की आज भी वैसी ही इच्छा रखती है जैसे हज़ारों साल के दौरान रही है? और सबसे बढ़कर ये कि दुनिया की मौजूदा सभ्यताओं से मुस्लिम संस्कृति का टकराव क्या नतीजा दिखाएगा? क्या वैश्विक आबादी जो मुसलमानों की आबादी से चार गुना बड़ी है और जिसमें अमेरिका, रूस, यूरोप, चीन, जापान और भारत जैसे संगठित और सशस्त्र समाज हैं, अपने देशों की तबाही बर्दाश्त करते रहेंगे?
दुनिया के विभिन्न देशों में यात्रा करने वाले मुसलमान यात्रा के दौरान जिस अनुभव से गुज़रते हैं, मैं भी कई बार इस पीड़ा से गुज़रा हूँ। मुझे यातना और अपने प्रिय लोगों, अपने दोस्तों और देशवासियों का सामूहिक अपमान परेशान करता है। अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों की बेबसी और बर्बादी की कल्पना बेचैन करती है। मैं पाकिस्तानियों की उस पीढ़ी से हूँ जिसने एक आधुनिक और सभ्य पाकिस्तान का सपना देखा था। हमने 1960 और 1970 के दशकों में कदम कदम पर उगती हुई उम्मीदों की फसल देखी। फिर अपनी आँखों के सामने अपनी खाक उड़ती देखकर हम बर्बादी के अमल को रोक न सके, हमारा समाज अज्ञानता और नर्गिसियत का शिकार हो गया और राष्ट्रों के आधुनिक मानवीय आंदोलनों से कटता चला गया, नींद में चलते हुए एक काम की तरह जिसे अमल करने वाले ने अपने खेल के लिए सुला दिया हो।
मुझे इस किताबचे की कटुता का एहसास है। मुझे ये भी पता है कि जिस वर्ग को अकास बेल से उपमा दी है और जिन आदरणीय लोगों के विचारों पर आपत्ति की है वो कितने प्रभावशाली और तुनक मिजाज़ हैं और मेरे समाज को कितना तुनक मिजाज़ बना दिया गया है ... मुझे डर है कि हमारे समाज को तबाही की ओर धकेलने वाला कारक अपने विचारों की तबाही का विश्लेषण करने पर तैयार नहीं होगा। बल्कि तरह तरह के कारण और आरोप प्रत्यारोप के माध्यम से अपने खेल को जारी रखने की कोशिश करेगा। इसके बावजूद मेरा मानना है कि इस कारक का हाथ रोकना ज़रूरी है, जितना भी हमसे हो सके।
धर्म को राजनीति और रोजगार बनाने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या ईमानदारी से अपने रास्ते को सिराते मुस्तक़ीम (सीधा रास्ता) समझती है। ये सरल लोग आत्ममोह वाले लोग हैं जो मुस्लिम समाज के दूसरे लोगों की तरह कुछ शातिरों की चाल का शिकार हुए हैं, लेकिन धर्म से रोज़गार और सामाजिक सत्ता हासिल होने के कारण ये लोग अपने मौजूदा भूमिका से संतुष्ट हैं, बल्कि गर्व करने की स्थिति में हैं। मेरी कामना और दुआ है कि इस पर ईमानदारी और सरल लोगों के मजमे में से कोई ऐसा आंदोलन जन्म ले जो उन्हें अनावश्यक गर्व से मुक्त करके आत्म आलोचना और सच्ची नम्रता की ओर ले जाए।
मुस्लिम समाज के वो लोग जो आधुनिक सभ्य समाज के नागरिक बन गए हैं, कुछ समय पहले तक अपने पैतृक समाज का मार्गदर्शन किया करते थे। उनकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम और गैर मुस्लिम जनता मानव सभ्यता के विकास को पसंद करने की नज़र से देखते और ईर्ष्या करते थे, लेकिन ये एक बड़ी बदनसीबी है कि आप्रवासी लोग तेज़ी से प्रतिगमन और अज्ञानता के इस आंदोलन से प्रभावित हो रहे हैं जो उन्हें इस्लामी पहचान के नाम पर ज्ञान और चेतना से नफरत पर उकसा रही है और जिसके नतीजे में मुस्लिम जनता के हीरो और रोल मॉडल न तो वैज्ञानिक है न आविष्कारक बल्कि वो क़ारी, मस्जिदों के इमाम उनके लीडर बन गए हैं जिनकी कुल संपत्ति रटी हुई आयतें और कहानियाँ हैं। जिसका अर्थ भी वो पूरी तरह नहीं जानते और जिनके ख़ुत्बों (धार्मिक भाषणों) में झूठे गर्व और वाहियात दावों के अलावा अगर कुछ है तो वो नफरत है जिसका अंजाम मुस्लिम जनता का अकेलापन और पिछड़ापन है ... अगर ये किताबचा (पुस्तिका) आप्रवासी मुसलमान युवकों का ध्यान पा सके तो उसे भी खुश नसीबी समझूँगा।
मुस्लिम नौजवानों के मानस पर मदरसा और क़ारी के कल्चर ने कई नकारात्मक प्रभाव छोड़े हैं। लेकिन इनमें संकीर्णता और लोगों को तकलीफ देने में खुशी सबसे महत्वपूर्ण हैं। तोड़फोड़ उन्हीं का ज़हरीला फल है। हम यातना में जीने और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के आदी हो गए हैं। हमारी मस्जिद का इमाम हो या आम मुसलमान गर्व से दावा करता है कि हम ने अमुक को बर्बाद कर दिया। जैसे हमने रूस को बर्बाद कर दिया, हम अमेरिका को बर्बाद कर रहे हैं, हम भारत को भी बर्बाद करेंगे। चीन को याजूज माजूज कहने की मुहिम जारी है और वक्त आने पर चीन को बर्बाद करने का दावा भी सुना जा सकेगा। लेकिन आप इस इमाम या उस मुक़्तदी के मुंह से ये नहीं सुनेंगे कि हमने किस किस को आबाद किया। उसे अपनी या अपने लोगों की तकलीफें दूर करने में कोई दिलचस्पी नहीं। उसे गर्व है कि वो बर्बाद कर सकता है ... यातना देने और मासूम बच्चों पर हिंसा की जिस संस्कृति ने मदरसा में जन्म लिया था, वो बढ़कर युनिवर्सिटी तक आई और अब बाज़ार तक फैल गयी है। हमारे बुद्धिजीवियों सहित हममें से किसी ने भी अपनी आध्यात्मिक नर्गिसियत से निकलकर इस बर्बरता पर आपत्ति नहीं की।
मुझे स्वीकार है कि ये पुस्तिका अपने विषय के विस्तार और गहराई के सामने बहुत अपर्याप्त, बहुत सरसरी और सतही है। फिर भी इसे इस उम्मीद के साथ पेश करने का साहस कर रहा हूं कि मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवी और समझदार लोग मेरी कमियों को नज़रअंदाज करके इस विषय पर हमारा मार्गदर्शन करेंगे।
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