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Maulana Azad's Cultural and Political Insight In The Current Circumstances मौलाना आज़ाद की सांस्कृतिक और राजनीतिक अंतर्दृष्टि: आज के संदर्भ में

प्रोफ़ेसर अख्तरुल वासे

२२ फरवरी, २०२१

मौलाना आज़ाद (जन्म मक्का मुकर्रमा ११ नवंबर १८८८ ई०: मृत्यु देहली २२ फरवरी १९५८ ई०) इतिहास के ऐसे लम्हे में पैदा हुए जब सारी दुनिया एक ज़बरदस्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कशमकश से दो चार थी। इतिहास और संस्कृति का एक दौर ख़तम कर दुसरा दौर शुरू हो रहा था। यह उथल पुथल सबसे अधिक शिद्दत के साथ यूरोप में ज़ाहिर हो रही थी जहां एक तरफ सलतनते उस्मानिया की सूरत में इस्लामी इतिहास का एक ख़ास ज़माना अपनी आखरी साँसे ले रहा था और यूरोप की सारी ताकतें इस ज़वाल में शरीक थीं और इसे तेज़ तर करने की कोशिश कर रही थीं। सारी इस्लामी दुनिया में मगरिब मुखालिफ जज़्बात का एक हशर बरपा था, जिसकी गूंज सबसे अधिक भारत में सुनाई पड़ रही थी। इसी के साथ यूरोप की विभिन्न ताकतें कू=खुद आपस में भी बरसरे पैकार थीं, जिसका सबब औद्योगिक क्रान्ति और औपनिवेशीकरण के परिणाम में पैदा होने वाली वह प्रतियोगिता थी जो राजनीतिक हितों के झडप की शकल में ज़ाहिर हो रही थी। यह झड़प और कशमकश बहुत जल्द पहली आलमी जंग की सूरत में सामने आई। सांस्कृतिक स्तर पर यह उन्नीसवीं शताब्दी की बे कैद अकलियत परस्ती के नशे के उतार का जमाना था। जिसके नतीजे में सारी पश्चिमी सभ्यता जबर्दस्त समाजी फुट और रूहानी फसाद में मुब्तिला हो गई थी।

उस समय, भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ एक बड़े टकराव की तैयारी कर रहा था। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौट आए थे और उन्होंने इसे सार्वजनिक आकांक्षाओं के साथ जोड़कर स्वतंत्रता के तूफान को आकार देना शुरू किया। गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस, देश के सभी लोगों के संयुक्त प्रयास के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ा रही थी, जिसका वैचारिक आधार शांतिपूर्ण और अहिंसक प्रतिरोध था। दूसरी ओर, कई अन्य वैचारिक पद थे, जिनमें से कुछ ब्रिटिशों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में विश्वास करते थे, जबकि अन्य ने धार्मिक पुनरुत्थानवाद के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को बहुसंख्यक संप्रदाय तक सीमित करने की मांग की। उसी समय, समाजवादियों का एक समूह था, जो इतिहास और सभ्यता की मार्क्सवादी समझ के आधार पर देश में एक आर्थिक क्रांति का सपना देख रहे थे। अंतर्दृष्टि के मौन और एकांत में, वह खुद के लिए एक बौद्धिक और व्यावहारिक रूपरेखा तैयार कर रहे थे। ऐसा प्रयास जो उन्हें आधुनिक भारत के इतिहास में एक अविस्मरणीय स्थान प्रदान करे। इस स्केच को उनकी अस्तित्वगत और आध्यात्मिक विवेक की कलम से संकलित किया जा रहा था, जिसका खंभा एक श्रेष्ठ और धर्मी बुद्धि और गहरी गूढ़ धार्मिकता के संतुलित संश्लेषण से उठाया गया था। इसे उनकी बौद्धिक और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि की परिणति कहा जा सकता है। तर्जुमानुल कुरआन में, मौलाना आज़ाद ने इस्लाम के सार्वभौमिक मानव एकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के संदेश पर आधारित है, ने धर्म को स्वतंत्रता की एक शक्तिशाली शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जो मानव पक्ष में जारी रहने पर सभी पूर्वाग्रहों को पार कर जाता है और एक वैश्विक मानव समुदाय का हिस्सा बन जाते हैं। अपनी इस कुरआनी तफ़सीर में मौलाना ने इस्लाम द्वारा दी गई आजादी की आग को फिर से हवा दी, जिसने मनुष्य द्वारा पहनी गई सभी जंजीरों को पिघला दिया और उसके बाद मनुष्य ने अपने रब को छोड़कर किसी को भी गुलामी को अस्वीकार कर दिया। मौलाना आजाद के अनुसार:

गवर्नमेंट को भी याद रखना चाहिए कि अगर हम मुसलमान सच्चे मुसलमान हो जाएं तो जिस कद्र अपने नफस के लिए लाभदायक हों उतना ही गवर्नमेंट के लिए और इसी कद्र अपने पड़ोसियों के लिए। इसको भूलना नहीं चाहिए कि अगर हम सच्चे मुसलमान हों तो हमारे हाथ में कुरआन होगा और जो हाथ कुरआन से रुका हुआ हो वह बम का गोला या रिवाल्वर नहीं पकड़ सकता। बल्कि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस्लाम ने हमको आज़ादी बख्शने और आज़ादी को हासिल करने दोनों की शिक्षा दी है हम जब हाकिम थे तो हम ने आज़ादी दी थी और अब हम महकूम हैं तो वही चीज तलब करते हैं। उस ज़माने तक देश के सामाजिक और राजनीतिक हालात इस चरण तक आ पहुंचे थे जब यह बात निश्चित हो गई थी कि भारत को विदेशी प्रभुत्व से आज़ाद कराने के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों का इत्तेहाद और साझा संघर्ष एक अनिवार्य शर्त की हैसियत रखती है। उन्होंने अपनी पुरी इस्लामी बसीरत की रौशनी में कहा कि: भारत के मुसलमानों का यह फर्ज़ शरई है कि वह भारत के हिन्दुओं से कामिल सच्चाई के साथ अहद व मुहब्बत का पैमान बाँध लें और उनके साथ मिल कर एक नेशन हो जाएं...मैं मुसलमान भाइयों को सुनाना चाहता हूँ कि खुदा की आवाज़ के बाद सबसे बड़ी आवाज़ जो हो सकती है वह मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आवाज़ थी। इस पवित्र वजूद ने अहद नामा लिखा। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के यह शब्द हैं इन्नहा उम्मतुन वाहिदा हम उन तमाम कबीलों से जो मदीने के आस पास में बसते हैं सुलह करते हैं और हम सब मिल कर एक उम्मते वाहिद बनना चाहते हैं उम्मत का अर्थ है कौम और नेशन और वाहिद का अर्थ है एक। मौलाना आज़ाद की यह आवाज़ किसी राजनीतिक जब्र या मसलेहत का नतीजा नहीं थी बल्कि इस्लाम के असल पैगाम भाईचारे और कर्ने उला की इस्लामी तारीख की रौशनी में कायम की हुई धार्मिक व राजनीतिक स्टैंड का मज़हर थी जिसने बीसवीं शताब्दी की तारीखे हिन्द में उन्हें एक अत्यंत प्रतिष्ठित राजनीतिक मुफक्किर और मुदब्बिर की हैसियत से कायम किया।

मौलाना आज़ाद ने हिन्दू बिरादराने वतन के साथ एक संयुक्त और साझा संघर्ष के सिलसिले में मुसलमानों के एक वर्ग के अंदेशों को लक्ष्य बनाते हुए अल हिलाल के एक सितंबर १९१२ ई० के शुमारे में लिखा। मुसलमानों की बड़ी गलती यही है कि वह संख्या की कमी व अधिकता के चक्कर में पड़ गए हैं। संख्या को मजबूत करना चाहते हैं मगर दिलों को मजबूत नहीं करते।...हिन्दुओं से तो डरने की आवश्यकता नहीं। बल्कि खुदा से डरना चाहिए....तुमको भारत में रहना है तो अपने पड़ोसियों को गले लगा लो और ज़िंदा रहना है तो उनसे अलग रहने का परिणाम देख चुके...अगर उनकी तरफ से रुकावट है तो इसकी परवाह मत करो....कौमें अगर तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करतीं तो तुम उनके साथ अच्छा व्यवहार करो। संयुक्त कौमियत पर मौलाना आज़ाद का यही इकान था जिसने उन्हें मुस्लिम लीग की अलगाव वादी राजनीति का सबसे बड़ा दुश्मन बना दिया। उनके नज़दीक पाकिस्तान की कल्पना एक ऐसी हार का संकेत था जो मुसलमानों को शोभा नहीं देता। उन्होंने इस सिलसिले में पूरी हिम्मत के साथ अपने स्टैंड का बार बार एलान किया। वह कहते हैं: स्वीकार करता हूँ कि मुझे तो पाकिस्तान की इस्तिलाह ही असंगत मालुम होती है। यह ज़ाहिर करती है कि दुनिया के कुछ हिस्से पाक हैं और दुसरे नापाक। पाक और नापाकी की यह जमीनी वितरण ना केवल यह कि गैर इस्लामी है बल्कि इस्लाम की रूह के विपरीत भी। इस्लाम किसी ऐसी विभाजन को स्वीकार नहीं करता क्योंकि खुद इस्लाम के पैगम्बर ने फरमाया है कि खुदा ने पूरी दुनिया को मेरे लिए मस्जिद बना दिया है।मौलाना आज़ाद ने अपनी कुरआनी बसीरत, अपने रूहानी विजदान और एतेहासिक आगही की रौशनी में जिस फिकरी और अमली रास्ते का चुनाव किया था उस पर अपने आखरी दम तक कायम रहे। उन्हें इस सिलसिले में तरह तरह के आरोप के नश्तर झेलने पड़े। अपने हम ख्यालों और रफीकों की उदासीनता के ज़ख्म सहने पड़े, यहाँ तक कि देश के विभाजन के बाद जिसे रोकने की उन्होंने सबसे अधिक और सबसे आखिर तक कोशिश की, वह एक गहरी तनहाई के हिसार में आ गए लेकिन उनके जाने के बाद आने वाला हर दिन उनके ख्यालों व विचारों और फैसलों की तस्दीक करता जा रहा है और वह कल के मुकाबले में आज कहीं अधिक अर्थ पूर्ण हो गए हैं।

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