सुलतान
शाहीन, संपादक, न्यू एज
इस्लाम
२२
मार्च २०११, न्यू एज इस्लाम डॉट कॉम,
इस्लामी
श्रेष्ठतावाद दुनिया भर में इस्लाम हरासी (इस्लाम के खिलाफ खौफ व हरास) पैदा कर
रही है। सुलतान शाहीन ने यूएनएचआरसी को संबोधित करते हुए कहा।
संयुक्त
राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, १६ वें बैठक, २८ फरवरी, २५ मार्च २०११- एजेंडा आइटम नम्बर ८: वियाना समझौता (एलामिया समझौता) और एक्शन
प्रोग्राम की पैरवी और तामील पर आम बहस।
संस्थापक
न्यू एज इस्लाम, सुलतान शाहीन की तकरीर। अंतर्राष्ट्रीय कलब
बराए अमन की तहकीकात।
आदरणीय
अध्यक्ष महोदया!
लगभग दो
दशक पहले मानवाधिकार की सभी तरह के उल्लंघन के खात्मे के लिए आयोजित वियाना समझौता
(एलामिया समझौता) और एक्शन प्रोग्राम के बावजूद हम यह देखते हैं कि कुछ मामलों में
हालात बिगड़ते जा रहे हैं। अनुभाग १५ हमें Xenophobia (विदेशी लोगों को न पसन्द करना) के खिलाफ काम करने की हिदायत देती है और
अनुभाग 19 सरकारों को अल्पसंख्यकों के सारे मानवाधिकारों की सुरक्षा का आदेश देतीं
है लेकिन विदेशी हड़क (Xenophobia) विशेषतः इस्लामी खौफ व नफरत की शकल में विभिन्न यूरोपीय देशों में फल फूल
रहा है और ख़ास तौर पर विभिन्न मुस्लिम बहुल देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के
मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन को शह देता है।
पेट्रो
डॉलर इस्लाम (पेट्रोल के माध्यम से अधिग्रहित की हुई दौलत से प्रोत्साहन पाने वाला
इस्लाम) ने वैश्विक स्तर पर मुस्लिम समाज में इस्लामी वर्चस्व का ज़हर घोल दिया है।
यहाँ तक कि मिसाली (मानक) उदारवादी देशों जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया भी अब इस ज़हर से प्रभावित हैं लेकिन बदतरीन स्थिति मुस्लिम परमाणु
शक्ति पाकिस्तान में फल फूल रहे हैं। जिहादी निगरा कमेटी के लोग (Jihadi Vigilantes) पाकिस्तानी पुलिस और
आर्मी के सदस्यों सहित इन तमाम लोगों का पीछा और हत्या कर रहे हैं, जो उनके इस्लामी सिद्धांतों के खिलाफ करते हैं। देश हिंसा के सागर में डूब
रहा है लेकिन सिविल सोसाइटी के लोग, मीडिया की उल्लेखनीय
व्यक्तित्व और पार्लियामेंट के सदस्य भी इस्लाम के नाम पर वहशियाना हत्या की निंदा
करने की हिम्मत इकट्ठा नहीं कर पाते हैं। शिक्षित औसत वर्ग उन हत्यारों को तो
बहादुर समझते हैं। बहुतेरे लोग पाकिस्तानी सेना में रह कर भी तालिबान के पाकिस्तान
और दुसरे देशों पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य की हिमायत करते हैं। उनके उद्देश्य
बेकार हो सकते हैं, लेकिन उनका जूनून २० वीं शताब्दी के
शुरूआती यूरोप में नाज़ीवादियों और फासीवादियों के जूनून से भिन्न नहीं है।
मुसलमानों
को पाकिस्तान और दुसरी जगहों में भी यह समझना है कि हिंसक इस्लामवादी पूरी दुनिया
में जज़्बाती मुद्दों का इस्तेमाल करते हैं जो मुस्लिम जमीअत की कल्पना की शक्ति को
प्रभावित करते हैं और उन्हें अनुचित और अविचारणीय तौर पर अमल करने पर मजबूर करते
हैं। मुस्लिम वर्ग के दिमाग पर कब्ज़ा जमाने के लिए पक्षपातपूर्ण मुल्ले संवेदनशील
मामलों को उठा रहे हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे दुसरे
धार्मिक फिरकों के लोग हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का या पवित्र कुरआन
का अपमान कर रहे हैं। Blasphemy का मुद्दा (रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और कुरआन की बेहुरमती का
मामला) , विशेषतः पाकिस्तान में, लेकिन
दुसरे देशों में भी इतनी उच्च स्तर पर उठाया गया है कि मुस्लिम वर्ग को वजह भी
जानने की अनुमति नहीं दी जाती है। जैसा कि आसिया बेगम के मामले में जिसने
पाकिस्तान में हालिया तूफ़ान बरपा किया है, उसके खिलाफ कोई
गवाह या सबूत का कोई साख भी नहीं है, बस एक खातून के आरोप के
सिवा, जिसके साथ उसकी पहले कोई लड़ाई थी। लेकिन पाकिस्तान में
बहुत सारे लोग कोई सबूत नहीं मांग रहे हैं। अधिकतर लोग तो यह भी जानना नहीं चाहते
हैं कि आसिया बीबी ने क्या कहा है या क्या किया है। मुल्ला लोग टीवी के भाषण में
उन्हें कह रहे हैं कि कुरआन उन्हें अल्लाह, अल्लाह के रसूल
और कुरआन का अपमान करने वाले (Blasphemers) को केवल कत्ल ही करने का आदेश नहीं देता है, बल्कि
उन्हें तो मज़ा ले ले कर मार डालने का आदेश देता है। वह लोग एक अत्यंत अत्याचार और
लुत्फ़ पसंदाना अल्लाह और उसके रसूल की तस्वीर पेश करते हैं जो तकलीफ देने और हत्या
करने में आनंद का अनुभव करते हैं और अपने मानने वालों को भी ऐसा ही करने के लिए
कहते हैं। वह लोग ऐसा करते हैं और साथ ही साथ अल्लाह पाक के मेहरबान और शफीक होने
का भी हवाला देते हैं और हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इंसानियत के लिए
रहमत का कारण भी बताते हैं, आप इंसानियत अर्थात पूरी मानवता
के लिए, केवल मुसलमानों के लिए ही नहीं रहमत का कारण हैं।
लेकिन जिहादी मुल्ला इस तजाद (अंतर्विरोध) से अपरिचित हैं कि वह एक तरफ रसूलुल्लाह
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को हिंसक और हिंसा से आनंदित होने वाला बता रहे हैं और
दूसरी तरफ इंसानियत के लिए रहमत का कारण भी। परिणामस्वरूप पाकिस्तानी समाज में एक
तरह की अफरा तफरी है। कोई भी मुफक्किर मुसलमान लक्ष्य हो सकता है। हाल ही के मामले
से संबंधित विषय को पाकिस्तान के तालिबान ऐसी सूरत में पेश करते हैं कि जैसे
मुसलमानों के अंदर उदारवादी तत्व तो खुद काफिर हैं या कुफ्र और Blasphemy की हिमायत करते हैं।
परिणाम उनके लिए सज़ा से पूर्ण रूप से छुटकारा है, जिसकी
बदौलत ही वह लोग पाकिस्तान सरकार के अकेले ईसाई मंत्री और इसके पहले पंजाब राज्य
के ताकतवर गवर्नर को कत्ल कर सके हैं।
यह
हत्या के मामले इस लिए सामने आए हैं क्योंकि यह लोग पाकिस्तान के बदनामे ज़माना
कानून बे हुर्मती (Blasphemy Laws ), जिसके तहत मज़हबी अल्पसंख्यकों जैसे हिन्दू और ईसाईयों को मौत की सज़ा दी जा
सकती है यहाँ तक कि यह बताए बिना भी कि हकीकत में उन लोगों ने किस अपराध को
प्रतिबद्ध किया है। यही वह मामला है जो आसिया बीबी के मुक़दमे में हाल ही में घटित
हुआ था। यह दोनों सराकरी नेता क़त्ल कर दिए गए क्योंकि वह लोग इस बेकस व बेबस और
असहाय महिला के हमदर्द व खैरख्वाह थे और उसके मौत की सज़ा को कम करके उम्र कैद में
बदलने का प्रयास कर रहे थे क्योंकि उनकी नज़र में आसिया की तरफ से किसी गलतकारी का
कोई गवाह (सबूत) नहीं था। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक लोगों को मौत की सज़ा देने के
लिए केवल अपमान (Blasphemy) का आरोप ही लगा दिया जाना
पर्याप्त है। कोई भी जज वास्तविक न्याय नहीं दे सकता, चाहे
वह ऐसा करना चाहता है, क्योंकि वह खुद ही अदालत के कमरे में
ही मारा जा सकता है।
इस
स्थिति को और अच्छे से समझने के लिए किसी को उन हालात का मुआयना करना पड़ेगा हिनके
तहत यह नियम बनाए गए हैं। १९८४ में उस समय के फ़ौजी हाकिम जनरल ज्याउल हक़ ने अहमदी
फिरके के लोगों के लिए मुस्लिम होने का दावा करने को आपराधिक कार्य करार दिया। दो
वर्षों के बाद उन्होंने मौजूदा कानून में मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का
अपमान (Blasphemy) के लिए मौत की सज़ा का फैसला
सुनाया तभी से इन नियमों का प्रयोग उस समय के लगभग पचास लाख (५ मिलियन) मजबूत
लोगों पर आधारित अहमदी फिरके के साथ हिन्दू और ईसाई धार्मिक अल्पसंख्यकों को
अत्याचार का शिकार बनाने के लिए बड़े पैमाने पर किया गया है।
कुछ
आंकड़े समस्या की गंभीरता को समझने में हमारी मदद कर सकते हैं। १९८६ से इस कानून
के तहत आरोपी करार दिए गए लोगों में से गालिबन ६०० लोग अहमदी और ईसाई फिरकों से
संबंध रखते थे। हालांकि वह लोग पाकिस्तानी आबादी के पांच प्रतिशत से अधिक नहीं
हैं। उच्च अदालतें आम तौर पर अपमान के आरोप को अस्वीकार कर चुकी हैं। यह स्वीकार
करते हुए कि वह गलत हैं और अधिकतर जमीनी विवादों या खानदानी मतभेद से पैदा हुए हैं
लेकिन कानून की जज़्बाती अहमियत ऐसी है कि जिन 32 लोगों को कोर्ट से रिहाई मिली, बाद में इस्लामी बुनियाद परस्तों ने उन्हें कत्ल कर दिया और उसी तरह दो
जजों को भी कत्ल कर दिया जिन्होंने उन्हें किसी के अधिक विरोध प्रदर्शन किये बिना
आज़ाद कर दिया था। इसी तरह जब एक बार कुफ्र (अपमान) का आरोप लग जाता है, तो यह अपरिहार्य रूप से मौत की सज़ा साबित हो जाती है। कोई भी सरकार ना
केवल यह कि इन कानूनों को रद्द करने की हिम्मत नहीं कर सकती, यहाँ तक कि वह अपने नेताओं (लीडरों) के भी क़त्ल की खुले आम निंदा नहीं कर
सकते हैं। कि वह लोग केवल मारे जाने का इन्तिज़ार कर रहे हैं। वह लोग भयभीत हैं,
क्योंकि देश में कोई भी ऐसा इदारा नहीं है, जो
या तो जिहादियों से मिला हुआ ना हो या जिहादियों से मुकाबला करने की सकत रखता हो।
सज़ा से पुर्णतः बरी होने की वजह से जिहादी ताकतें सिविल सुसाईटी के विरुद्ध भड़काने
और तहरीक जारी रखने की ताकत रखती हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां जिहादियों की
रजामंदी की पॉलिसी की तकलीद कर रही हैं। पंजाब के हत्या किये गए गवर्नर सलमान
तासीर ने अतिवाद और इस्लामी जाब्ता परस्ती के खिलाफ मुहिम चलाने वाली सिविल सुसाईटी
के व्यक्तियों की मौत की सज़ा का मुतालबा करने वाले झंडों को हटवा दिया था। लेकिन
उनके क़त्ल के बाद उन्हीं के कातिल को हक़ पर करार देने वाले और उनके कातिल का
स्वागत करने वाले झंडे राज्य भर में लहराए जा रहे हैं और इसे रोकने के लिए अन्य
कोई व्यक्ति बाकी नहीं है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के अधिकतर वर्ग सिविल
सुसाईटी के खिलाफ इस तरगीब व इश्तिआल का हिस्सा हैं।
बरेलवी
फिरके सहित इस्लाम के विभिन्न फिरके, जो कभी उदारवादी समझे जाते
थे, अब वह भी कंधे से कंधा मिला कर अतिवादी प्लेटफ़ॉर्म पर आ
गए हैं। गवर्नर सलमान तासीर का कातिल बहुसंख्यक बरेलवी फिरका से संबंध रखता था,
उसकी जमाअत अहले सुन्नत पाकिस्तान (जेएएसपी) के फिरके के ५००
मुल्लाओं ने एक साझा बयान में उसकी हिमायत कर दी। यह बयान स्वयं में गालिबन अपमान
की चरम है, क्योंकि यह इस्लाम को हत्यारों के पारम्परिक धर्म
और अल्लाह को यातना और सुख चाहने वाली ज़ात के तौर पर पेश करता है, जो केवल अपमान के आरोप के आधार पर निर्दोष लोगों की हत्या को प्रोत्साहित
करेगा जबकि, पीड़ित गवर्नर की जनाज़े की नमाज़ में शिरकत करने
वाले किसी भी व्यक्ति को मौत की धमकी देते हुए इस जमात के मुल्लाओं के बयान ने यह
ज़ाहिर किया: “पैगम्बर के अपमान की सज़ा केवल मौत ही हो सकती
है, क्योंकि पवित्र किताब, सुन्नत,
मुसलमानों के इज्मा (राय में इत्तेफाक) और उलेमा के जरिये दी जाने
वाली सफाई के अनुसार.....यह बहादुर और बेबाक इंसान (क़ादरी, बॉडीगार्ड,
कातिल) ने मुस्लिम रिवायत के १४०० वर्षों को कायम रखा है और दुनिया
के १.५ बिलियन मुसलमानों के सरों को फख्र से उंचा कर दिया है। यह मुख्य धरा के
उदारवादी मुसलमानों के लिए अत्यंत ही अपमानजनक है, क्योंकि
मुकद्दस कुरआन पैगम्बरों की प्रमाणिक हदीसें, या यहाँ तक कि
इस्लामी फिकह में ऐसा कोई बयान नहीं है जिसमें अपमान के आरोपी के लिए मौत की सजा
तजवीज़ हो लेकिन इसकी हिमायत में मुल्लाओं की दखलअंदाजी के बाद उसी आदमी का वह
बुजदिल कातिल, जिसकी सुरक्षा के लिए उसे (कातिल को) तनखाह दी
जाती थी, अब वह प्रसिद्ध और हर दिल अज़ीज़ हीरो बन गया है और
शिक्षित मध्य वर्ग के माध्यम से बुलंदपाया शख्सियत करार दिया जा रहा है। पाकिस्तान
के आंतरिक मंत्री जो अपने देश में कानून के सिद्धांत के देख रेख के जिम्मेदार माने
जाते हैं, ने कहा कि समाअत का इंतज़ार किये बिना, अवश्य अपमान के आरोपी (Blasphmer) को खुद से मारूंगा। ऐसा भड़काऊ बयान देने के बावजूद वह लगातार अपने पद पर
बरकरार हैं।
गवर्नर
के क़त्ल के बाद भी आम आवाजें जो लगातार सुनाई देती थीं, अब वह भी खामोश हो रही हैं, विशेषतः अल्पसंख्यक
मामलों के काबीनी वज़ीर शाहबाज़ भट्टी, उदारवाद के दुसरे
मुजाहिद के क़त्ल के बाद। जैसा कि मानवाधिकार की हामी ताहिरा अब्दुल्लाह ने बताया
कि सलमान तासीर के कत्ल के बाद, पाकिस्तान की राजधानी,
इस्लामाबाद में मानवाधिकार की निगरान कमेटियों की आयोजित मीटिंगें
१०० या २०० से अधिक लोगों को अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकतीं, जहां उच्च शिक्षा प्राप्त दस लाख लोगों की आबादी है, और कराची में आयोजित मीटिंगों में केवल ५०० लोगों ने ही शिरकत की, जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर है, जिसकी आबादी १८
मिलियन (एक करोड़ अस्सी लाख) लोगों पर आधारित है।
आदरणीय
अध्यक्ष महोदया!
कुछ
इलाकों को छोड़ कर, उदारवादी लोग हर जगह इस्लाम के अन्दर ही
लड़ाई हार रहे हैं। १९७४ से दुनिया भर में पेट्रोल के माध्यम से कसब किये हुए दौलत
को दुनिया भर में अतिवादियों में बड़े पैमाने पर बांटा गया। इसकी वजह से धर्म का
मिज़ाज व रुझान काफी हद तक बदल गया है। इस्लामी श्रेष्ठतावाद केवल मुस्लिम बहुल
देशों ही में नहीं, बल्कि ऐसे देशों में भी है जहां मुसलमान
अल्पसंख्यक हैं, अब जाब्ता बन गई है। करोड़ों मुसलमान दुसरे
धर्मों के लोगों को अब हेय दृष्टि से देखते हैं और उन्हें मुस्तकिल (हमेशा के लिए)
जहन्नमी समझते हैं।
पवित्र
कुरआन और इस्लामी रिवायतों के अनुसार, हम मुसलामानों को सारे
१२४००० पैगम्बरों को मानना चाहिए, जिन्होंने अल्लाह के पैगाम
को दुनिया के विभिन्न कोनों और भागों में पहुंचाया और उन सबको दर्जे के एतिबार से
पैगम्बर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बराबर समझना चाहिए। हमें उन सभी
पैगम्बरों के मानने वालों और श्रद्धा रखने वालों के साथ अहले किताब की तरह व्यवहार
करना चहिये, जिनके साथ विवाह सहित नजदीकी सामाजिक संबंध
इस्लाम में जायज है। लेकिन अहले किताब का दृष्टिकोण अब पूर्ण रूप से निरर्थक हो
गया है। बल्कि बच्चों को मदरसे और दुसरे स्कूलों में अब दुसरे धर्मों के लोगों को
तुक्ष और हेय दृष्टि से देखने की शिक्षा व निर्देश दिए जा रहे हैं। यह कार्य
पाकिस्तान और कुछ दुसरे मुस्लिम देशों में भी चल रहा है। हम में से बहुत लोग पहले
से ही दुसरे धर्मों के मानने वालों के लिए नफरत का जज़्बा पैदा कर चुके हैं।
तथाकथित धार्मिक बुद्धिजीवी उनसे बताते हैं कि दुसरे धर्म के लोग अहले किताब हो
सकते हैं, लेकिन इसके बावजूद वह लोग काफिर हैं। वह लोग हरगिज़
यह स्पष्ट नहीं करते कि एक ही सांस में वह लोग इन दो परस्पर विरोधी बयानों को एक
साथ मिला कर कैसे पेश करते हैं। कोई भी वर्ग जो दुसरे वर्गों के लोगों को अपमानित
समझता है, वह किसी भी ग्लोबलाइज़ड कसीर तहज़ीबी दुनिया में
शांतिपूर्ण रूप से रहने के काबिल नहीं है। (Any Community holding other in contempt is Apparently not likely to be
able to live peacefully in an increasingly globalised multi-cultural world).
स्थिति
यह है कि अगर हम मुसलमान किसी देश में मामूली अक्सरियत में भी रहते हैं, हम इंसान के माध्यम से बनाए गए शरई कानून को अल्लाह का बनाया हुआ कानून
बता कर जनता पर थोपना चाहते हैं, जबकि वह अल्लाह का बनाया
हुआ है ही नहीं। अब ऐसे देशों में भी, जहां मुसलमान अल्पसंख्या
में हैं, हम लोग शरई कानून पर अमल करना चाहते हैं और उन्हें
लागू करना चाहते हैं। भारत के सिवा कोई दुसरा देश इसकी अनुमति नहीं देता है और कोई
भी समाज ऐसा करने के लिए राज़ी नहीं है। यह अनावश्यक तनाव पैदा कर रहा है और कुछ
समाज में इस्लाम बेज़ारी और इस्लाम के खिलाफ खौफ व नफरत में बढ़ोतरी कर रहा है। कई
देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए खतरे पैदा कर रहा है।
यह पूरी
दुनिया के लिए अत्यंत ही आवश्यक है कि वह इस्लामी फासीवाद और श्रेष्ठतावाद के
खिलाफ लड़ने के लिए त्वरित रूप से एक प्रभावी व कारगर नीति तैयार करें। मुस्लिम
समाज के उदारवादी व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक है कि वह अधिक गंभीरता से इस्लाम के
अन्दर वैचारिक जंग का आरम्भ करें। हम खुद से पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के
आखरी खुतबे (नसीहत) को याद करें जिसमें उन्होंने इरशाद फरमाया:
“ पूरी मानवता आदम अलैहिस्सलाम और हव्वा से है, ना तो
कोई अरबी, गैर अरबी (अजमी) पर वरीयता रखता है और ना ही कोई
गैर अरबी (अजमी) अरबी पर वरीयता रखता है, कोई गोरा किसी काले
पर कोई वरीयता नहीं रखता है और ना ही कोई काला किसी गोर पर कोई वरीयता रखता है,
लेकिन केवल अल्लाह से डरने वाला और अच्छे कर्म करने वाले के। इसलिए
तुम लोग अपने ऊपर ज़ुल्म (अन्याय) मत करो। याद रखो कि एक दिन तुम अल्लाह (अपने रब)
से मिलोगे और अपने कार्यों का हिसाब दोगे। इसी लिए सावधान हो जाओ: जब मैं इस
दुनिया को अलविदा कह दूँ तो तुम हक़ के रास्ते से मत भटकना।“
साफ़
ज़ाहिर है कि पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह नहीं कहा कि एक मुसलमान किसी
गैर मुस्लिम पर वरीयता रखता है। उनके नज़दीक तो वरीयता पुरी तरह से “तकवा और अच्छे कार्य” का मामला था। बस यही सब कुछ
है। हम इसे याद रखें और इस्लामी श्रेष्ठतावाद के हानिकारक और खतरनाक सिद्धांत की
बढ़ती हुई ताकत के खिलाफ उठ खड़े हो जाएं इस्लामी श्रेष्ठतावाद और फांसीवाद हमें
वर्तमान काल के ग्लोबलाईज्ड बहु धार्मकि दुनिया के शांतिपूर्ण समाज के एक अहले जुज़
की हैसियत से जीवन गुज़ारने के काबिल नहीं रखती है, जो कि हम
मेन स्ट्रीम के मुसलमान (Main
Stream Muslims) हमेशा से रहे हैं।
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