डॉक्टर अब्दुल हमीद सैफ अल अज़हरी
२८ दिसंबर, २०१४
बहुत
से लोग अभी तक इस्लाम के प्रसार के संबंध में गलत व्याख्या पेश करते नज़र आते हैं, इस्लाम
दुश्मन बबांगे दहल यह कहते हैं कि इस्लाम तलवार की ज़ोर पर फैला जबकि आश्चर्य की
बात यह है कि इस्लामी शिक्षाओं के स्रोत कुरआन पाक में तलवार का कहीं उल्लेख नहीं
मिलता।
हम
जानते हैं कि लोग क्यों ज़िद पर हैं कि इस्लाम ने ज़ोर व जबरदस्ती और तलवार के ज़ोर
पर गलबा हासिल किया और दुनिया भर में फैला। असल में इस बात से इस्लाम की सहीह छवि
को मजरुह करने की कोशिश की जाती है जबकि इस्लाम के फरोग से संबंधित बात तफ़सीर से
पहले बिलकुल उलटी है।
बहुत
सारे मुसलमानों को कुफ्फारे मक्का व मुशरेकीन के हाथों तकलीफ और मुश्किलों और
सज़ाओं का केवल इसलिए सामना करना पड़ा क्योंकि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से इस्लाम के
दामने आफियत में पनाह हासिल की। बताया जाए उन पहले मुसलमानों पर तलवार किसने उठाई
जिनमें अबू बकर व उमर, उस्मान व अली? उनको
किस बात ने मजबूर किया कि वह इस्लाम कुबूल करें?
जबकि
दूसरी जानिब कमज़ोर मुसलमानों को जिन्होंने इस्लाम कुबूल किया मुशरेकीने मक्का ने
ज़ेरे इताब कर के उन पर अत्याचार की हद को पार किया, उन मज़लूम सहाबा
रज़ीअल्लाहु अन्हुम में हज़रात बिलाल बिन रबाह रज़ीअल्लाहु अन्हु, यासिर के खानदान और उनकी पत्नी सुमैय्या रज़ीअल्लाहु अन्हा पर कितने ज़ुल्म
ढाए गए। जब तक तस्वीर का एक और रुख देखते हैं तो मालुम होता है कि फ़तहे मक्का के
बाद अरब कबीले अपने शौक व रगबत से इस्लाम में बड़ी तेज़ी से दाखिल हुए जबकि उन पर तो
कोई ताकत जब्र करने वाली या उन पर तलवार उठाने वाली नहीं थी। इसी तरह मदीना के आस
पास के कबीलों ने भी इस्लाम को अपना ओढ़ना बिछौना बनाना शुरू किया।
इसी
कारण ९ हिजरी को आमुल वफूद कहते हैं कि अरब कबीले एक के बाद एक हुजुर सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम की दस्ते हक़ पर बेअत करने हाज़िर होते थे। इस्लाम ने तलवार उठाने की
इजाज़त की शर्त रखी है कि जब कोई दीने इस्लाम की दावत जो बिलकुल प्रकृतिक है के
रास्ते में रुकावट डाले या फिर मुसलमानों पर कोई हाथ उठाए। इसके सिवा इस्लाम ने
तलवार को इख्तियार करने की कोई इजाज़त नहीं दी।
कुरआन
पाक की सुरह हज में ‘‘أُذِنَ
لِلَّذِينَ يُقَاتَلُونَ بِأَنَّهُمْ ظُلِمُوا ۚ وَإِنَّ اللَّهَ عَلَىٰ
نَصْرِهِمْ لَقَدِيرٌ، الَّذِينَ أُخْرِجُوا مِن دِيَارِهِم بِغَيْرِ حَقٍّ إِلَّا
أَن يَقُولُوا رَبُّنَا اللَّهُ ۗ وَلَوْلَا دَفْعُ اللَّهِ النَّاسَ بَعْضَهُم
بِبَعْضٍ لَّهُدِّمَتْ صَوَامِعُ وَبِيَعٌ وَصَلَوَاتٌ وَمَسَاجِدُ يُذْكَرُ
فِيهَا اسْمُ اللَّهِ ’’ जंग की इजाज़त से संबंधित हुक्म साबित
है लेकिन इसमें जिस कारण को बयान किया गया है कि मुसलमानों को इजाज़त दी जानी है कि
वह क़िताल करें उन लोगों से जो उनके उपर ज़ुल्म ढाते हैं, क़िताल
का हुक्म इसलिए दिया जाता है क्योंकि मुसलमानों को उनके घरों से केवल इस लिए निकाल
दिया गया कि वह अल्लाह को अपना रब मानते हैं.....!
इस
आयत में क़िताल या जंग का हुक्म दिया गया है अगर हम इसको देखें तो इससे साफ़ मालुम
होता है कि अल्लाह ने मुसलमानों को क़िताल की इजाज़त दी है क्योंकि मुसलमानों को
उनके घरों से, उनके माल व मताअ से, उनके अपने वतन से
महरूम कर दिया गया इसके साथ मुसलमानों पर गाहे गाहे विभिन्न तरीकों से ज़ुल्म ढाए
जाते थे और दावते इस्लाम के रास्ते को बंद किया जाता था तो ऐसे में इजाज़ते क़िताल
केवल नुक्सान व ज़रर को दूर करने के लिए इजाज़त दी गई और यह नुक्सान व ज़रर दूर करने
का सिवाए क़िताल व जंग के कोई रास्ता मौजूद नहीं था। हम कैसे मान लें कि इस्लाम
तलवार के ज़ोर पर फरोग पाया कुरआने पाक की सुरह बकरा में इरशाद है कि "لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ ۖ قَد تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ" कि “दीन में ज़बरदस्ती नहीं तहकीके हिदायत को
बयान किया जाता है कि गुमराही के मुक़ाबिल “हम कहने में हक़
बजानिब हैं इस्लाम सिर्फ दुरुस्त व गलत, हक़ व बातिल के बीच
फर्क को सपष्ट करता है इसके बाद इंसान के सामने इख्तियार छोड़ देता है कि चाहे तो
वह हक़ को इख्तियार करे और अगर चाहे तो गुमराही को अपनाए।
इसी
बात को दूसरी आयत में वजाहत के साथ बयान किया है कि “وَقُلِ الْحَقُّ مِن رَّبِّكُمْ ۖ فَمَن شَاءَ فَلْيُؤْمِن وَمَن
شَاءَ فَلْيَكْفُرْ” कि “कह दीजिए कि हक़ अल्लाह के पास हैई चाहो तो ईमान लाओ और चाहो तो इनकार कर
दो
“उपर्युक्त आयतों की रौशनी में यह स्पष्ट हो जाता है कि मुसलमान केवल दावते
इस्लाम को ज़ाहिर और वाजेह तौर पर बयान करने का फरीज़ा अंजाम देते हैं इसके बाद
इंसान को इख्तियार दे दिया जाता है कि वह चाहे तो इस्लाम के पैगाम को कुबूल करे और
चाहे तो इनकार करे।
चलें
अगर मान लिया जाए कि इस्लाम जजीरतुल अर्ब और उसके आस पास में तलवार के ज़ोर पर फैला
तो बताएं कि मशरिक व मगरिब, एशिया व अफ्रिका में इस्लाम कैसे फ़ैल गया
यहाँ तो अर्ब ताजिर तिजारत करने आते थे तो यहाँ इस्लाम ताजिरों के माध्यम से फैला
क्यों कि उनके अख़लाक़ व किरदार उनके हुस्ने मामला व अमानत व दयानत जो उन को इस्लाम
के सदके मिले थी को देख कर एशिया व अफ्रिका के लोगों ने इस्लाम को अपनी ज़िन्दगी का
मकसद बना लिया।
इसको
दूसरी मिसाल से समझें कि हज़रत अम्र बिन आस रज़ीअल्लाहु अन्हु ने जब मिस्र को फतह
किया तो उन्होंने वहाँ के नागरिकों की अक्सरियत जो ईसाई मज़हब के अनुयायी थे उनको
इस्लाम में दाखिल होने का कोई हुक्म जारी नहीं किया बल्कि जिन लोगों ने मिस्र में
इस्लाम कुबूल किया वह उनकी ज़ाती रगबत व ख्वाहिश थी और यह उन जजीरतुल अरब से आने
वाले दाइयों की अमली दावत से प्रभावित हो कर मुसलमानों हुए।
अगर
ऐसा ना हुआ होता तो आज मिस्र में एक भी ईसाई कुब्ती मौजूद नहीं होता इससे स्पष्ट
संदेश मिलता है कि इस्लाम ने मिस्र में किसी पर जबरन अपने संदेश को नहीं थोपा। इसी
तरह मुसलमानों ने जब आलम पर कयादत की तो कैसे मान लें कि वह लोगों पर इस्लाम कुबूल
करना फर्ज़ या लाज़िम करते थे कि आप इस्लाम को कुबूल करें जब कि उनसे इस्लाम उनकी
खिदमत व हिफाज़त में जज़िया अर्थात टेक्स वसूल किया जाता था इससे साबित होता है कि वह
लोग अपने दीन पर कायम थे मुसलमानों की ममलकत के रहने की वजह से जिज्या भी देते थे
उनको इस्लाम कुबूल करने पर मजबूर नहीं किया गया। अधोलिखित तथ्यों से यह बात साबित
हो जाती है कि इस्लाम ना तो तलवार के ज़ोर पर फैला और ना ही इस्लाम किसी का नाहक
खून बहाने को जायज़ समझता है बल्कि इस्लाम तो अमन व सलामती और दायमी कामयाबी व
कामरानी की तरफ दावत देता है और इस्लाम के पैगाम से फितरते सलीम इत्तेफाक करती है,
इस्लाम
सोचने व समझने, गौर व फ़िक्र करने वाले ज़हनों को दावत देता है, इंसानियत के मुकाम को बुलंद करता है और अल्लाह पाक ने जो कानूने दुनिया
तरतीब दिया है उसकी जान केवल इस्लाम ही निदा देता है।
२८
दिसंबर, १०१४: (उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम)
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