सुहैल अरशद न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
24 अक्टूबर, 2022
कुरआन एक ऐसे क्षेत्र के लोगों के सामाजिक और नैतिक सुधार के लिए प्रकट किया गया था जहां सामाजिक और नैतिक बुराइयां आम थीं। व्यक्ति अपने स्वयं के खोल में बंद था और स्वार्थ और स्वार्थ मनुष्य की दूसरी प्रकृति बन गया था। लूटपाट, विश्वासघात और बेईमानी आम बात थी, बल्कि अज्ञानी लोगों के धन को बेईमानी से हथियाना जायज माना जाता था। मानो समाज का हर सदस्य दूसरों से लेने में विश्वास रखता हो। लेने की इस संस्कृति ने क्रूरता, अन्याय, हिंसा और चोरी और डकैती को बढ़ावा दिया। समाज में हर कोई एक-दूसरे से डरता था और लोग एक-दूसरे को शक की नजर से देखते थे। समाज में असुरक्षा की भावना प्रबल थी। भय और असुरक्षा की इस भावना ने समाज के ताने-बाने को तोड़ दिया था।
इस्लाम ने इस बीमारी की जड़ यानी लेने की संस्कृति को मिटा दिया, इसने समाज में देने की संस्कृति को बढ़ावा दिया। इस देने की संस्कृति ने समाज में एकता और सद्भाव को बढ़ावा दिया। कुरआन में, देने की इस संस्कृति को औपचारिक रूप दिया गया था। दान और ज़कात को शरिया का दर्जा दिया गया था और कहा गया था कि जब तक कोई दाता नहीं बन जाता, वह पूर्ण मोमिन नहीं बन सकता। इंफाक मुसलमानों की धार्मिक प्रथाओं का एक अभिन्न अंग बन गया। देने की इस संस्कृति ने समाज के सदस्यों को एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति और सहायक बना दिया। पारस्परिक सद्भावना को धर्म का महत्वपूर्ण अंग बना दिया गया। समाज में रब्त और एकता पैदा करने के लिए पड़ोसी के हक़ की अवधारणा को प्रख्यापित किया गया था। गरीबों, यात्रियों और जरूरतमंदों को देने की तलकीन की गई। अनाथों की परवरिश, उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण और शादी पर खर्च करने की तलकीन की गई।
ज़कात की व्यवस्था इस्लामी समाज को एक देने वाला समाज बनाती है। और साहबे निसाब और साहबे सरवत के माल में गरीबों का हिस्सा निर्धारित करता है। कुरआन अन्य धार्मिक समाजों में धार्मिक नेताओं द्वारा कौम का धन खाए जाने का उल्लेख करता है। कुछ धर्मों में धर्मगुरुओं को दान देना धार्मिक कर्तव्य माना जाता है। लेकिन इस्लाम में धर्मगुरुओं को ऐसा करने की इजाजत नहीं है, लेकिन उन्हें समाज में देने की व्यवस्था को मजबूत करने की जिम्मेदारी दी गई है।
जब इस्लाम ने अरब में लेने की संस्कृति पर प्रहार किया, तो इसके विरोधी वह लोग पहले हुए जिन लोगों ने लेने की संस्कृति को बढ़ावा दिया था। मक्का के यहूदियों का मानना था कि अशिक्षित लोगों की संपत्ति हड़पने में कोई पाप नहीं है। उन्होंने चक्रवृद्धि ब्याज की प्रणाली स्थापित की थी ताकि उधारकर्ता से अधिकतम ब्याज वसूल किया जा सके। अमानत में खयानत आम बात थी। कुरआन ने खयानत को गुना कहा, सूदखोरी को बड़ा गुना करार दिया, और सदके और खैरात को एक बड़ा सवाब काम करार दिया। इस प्रकार इस्लाम ने लेने की संस्कृति को हतोत्साहित किया और देने की संस्कृति को प्रोत्साहित किया।
आज फिर समाज में देने की संस्कृति कमजोर होती जा रही है और लेने की संस्कृति विकसित हो रही है। और यह कुरआन की शिक्षाओं से दूरी के कारण ही हो रहा है। दहेज की प्रथा, घूसखोरी की प्रथा, विश्वासघात यानि वित्तीय गबन और राष्ट्रीय संस्थानों में भ्रष्टाचार ये सब लेने की संस्कृति का हिस्सा हैं जो आज भी मुसलमानों में आम है। मुसलमानों ने कभी लेने की संस्कृति को समाप्त किया था, लेकिन आज वे इस संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं। यही कारण है कि आज फिर मुस्लिम समाजों में भय, असुरक्षा की भावना और आर्थिक और नैतिक बुराइयों का प्रसार हुआ है। इन बुराइयों का उन्मूलन तभी संभव है जब मुसलमानों में देने की संस्कृति पूर्ण रूप से विकसित हो जाए।
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Urdu Article: Islam Promotes the Practice of Giving Not of Taking اسلام میں لینےکا نہیں دینے کا
تصور ہے
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