सुहैल अरशद, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
22 जनवरी 2022
इस्लाम ने तौहीद पर यकीन रखने और नमाज़ पर कायम रहने के साथ बंदों के हक़ पर भी बहुत अधिक ज़ोर दिया है। खुदा नहीं चाहता कि बंदा केवल उसकी वहदानियत पर ईमान रखे और केवल उसकी इबादत करे और बंदों का कोई ख्याल न रखे। बल्कि खुदा ने बंदों के हुकूक अदा करने को भी ईमान का जुज़ बनाया है। अगर कोई शख्स तमाम दिन रोज़ा रखे और तमाम रात नमाज़ें पढ़े मगर बंदों के हुकूक अदा न करे और उनकी परेशानियों का कोई ख्याल न करे तो उसकी इबादतें और रोज़े उसके किसी काम की नहीं। इसलिए खुदा नमाज़ कायम रखने के साथ साथ निसाब वाले मुसलमानों पर ज़कात को भी फर्ज़ किया है। ज़कात केवल उन मुसलमानों पर फर्ज़ है जो निसाब वाले हैं मगर निसाब वाले लोगों के लिए ज़कात उतना ही जरूरी है जितना कि बालिग़ मुसलमान पर नमाज़ पढ़ना। ज़कात की अहमियत और फज़ीलत इस्लाम में इतनी है कि कुरआन में बहुत से जगहों पर नमाज़ और ज़कात का हुक्म साथ साथ आया है।
“और कायम रखो नमाज़ और दिया करो ज़कात और झुको नमाज़ में झुकने वालों के साथ।“ (अल बकरा:23)
“और नमाज़ पढ़ते रहो और ज़कात दिये जाओ और जो कुछ भलाई अपने लिए (खुदा के यहाँ) पहले से भेज दोगे उस (के सवाब) को मौजूद पाआगे जो कुछ तुम करते हो उसे खुदा ज़रूर देख रहा है” (अल बकरा: 110)
“(हॉ) जिन लोगों ने ईमान क़ुबूल किया और अच्छे-अच्छे काम किए और पाबन्दी से नमाज़ पढ़ी और ज़कात दिया किये उनके लिए अलबत्ता उनका अज्र व (सवाब) उनके परवरदिगार के पास है और (क़यामत में) न तो उन पर किसी क़िस्म का ख़ौफ़ होगा और न वह रन्जीदा दिल होंगे” (अल बकरा: 277)
“(ऐ ईमानदारों) तुम्हारे मालिक सरपरस्त तो बस यही हैं ख़ुदा और उसका रसूल और वह मोमिनीन जो पाबन्दी से नमाज़ अदा करते हैं और हालत रूकूउ में ज़कात देते हैं” (अल मायदा:55)
“नमाज़ को पाबन्दी से अदा करते हैं और जो हम ने उन्हें दिया हैं उसमें से (राहे ख़ुदा में) ख़र्च करते हैं” (अल अनफाल:3)
“ख़ुदा की मस्जिदों को बस सिर्फ वहीं शख़्स (जाकर) आबाद कर सकता है जो ख़ुदा और रोजे आख़िरत पर ईमान लाए और नमाज़ पढ़ा करे और ज़कात देता रहे और ख़ुदा के सिवा (और) किसी से न डरो तो अनक़रीब यही लोग हिदायत याफ्ता लोगों मे से हो जाऎंगे” (अल तौबा: 18)
“और ईमानदार मर्द और ईमानदार औरते उनमें से बाज़ के बाज़ रफीक़ है और नामज़ पाबन्दी से पढ़ते हैं और ज़कात देते हैं और ख़ुदा और उसके रसूल की फरमाबरदारी करते हैं यही लोग हैं जिन पर ख़ुदा अनक़रीब रहम करेगा बेशक ख़ुदा ग़ालिब हिकमत वाला है” (अल तौबा:71)
“और (ये) वह लोग हैं जो अपने परवरदिगार की खुशनूदी हासिल करने की ग़रज़ से (जो मुसीबत उन पर पड़ी है) झेल गए और पाबन्दी से नमाज़ अदा की और जो कुछ हमने उन्हें रोज़ी दी थी उसमें से छिपाकर और खुल कर ख़ुदा की राह में खर्च किया और ये लोग बुराई को भी भलाई स दफा करते हैं -यही लोग हैं जिनके लिए आख़िरत की खूबी मख़सूस है” (अर राअद: 22)
“(ऐ रसूल) मेरे वह बन्दे जो ईमान ला चुके उन से कह दो कि पाबन्दी से नमाज़ पढ़ा करें और जो कुछ हमने उन्हें रोज़ी दी है उसमें से (ख़ुदा की राह में) छिपाकर या दिखा कर ख़र्च किया करे उस दिन (क़यामत) के आने से पहल जिसमें न तो (ख़रीदो) फरोख्त ही (काम आएगी) न दोस्ती मोहब्बत काम (आएगी)” (इब्राहीम: 31)
“और तुम पाबन्दी से नामज़ पढ़ा करो और ज़कात देते रहो और खुदा ही (के एहकाम) को मज़बूत पकड़ो वही तुम्हारा सरपरस्त है तो क्या अच्छा सरपरस्त है और क्या अच्छा मददगार है” (अल हज: 78)
“और (ऐ ईमानदारों) नमाज़ पाबन्दी से पढ़ा करो और ज़कात दिया करो और (दिल से) रसूल की इताअत करो ताकि तुम पर रहम किया जाए” (अन नूर:56)
ज़कात केवल मुसलमानों के लिए फर्ज़ नहीं हुआ बल्कि यह दीने इब्राहीमी का एक अभिन्न अंग है। इस्लाम से पहले अहले किताब को भी नमाज़ और ज़कात देने का हुक्म हुआ। हर दौर में अल्लाह ने अपने नेक बंदों पर यह फर्ज़ किया कि वह समाज के मोहताजों और जरूरतमंदों की माली मदद भी करें। केवल इबादत और तिलावत खुदा की खुशनूदी हासिल करने के लिए काफी नहीं।
“ये सूरा हिकमत से भरी हुई किताब की आयतें है (2) जो (अज़सरतापा) उन लोगों के लिए हिदायत व रहमत है (3) जो पाबन्दी से नमाज़ अदा करते हैं और ज़कात देते हैं और वही लोग आख़िरत का भी यक़ीन रखते हैं (4)” (लुक़मान: 2,3,4)
“(तब) और उन्हें तो बस ये हुक्म दिया गया था कि निरा ख़ुरा उसी का एतक़ाद रख के बातिल से कतरा के ख़ुदा की इबादत करे और पाबन्दी से नमाज़ पढ़े और ज़कात अदा करता रहे और यही सच्चा दीन है” (अल बय्यिना:5)
“और (साफ-साफ) उनवाने शाइस्ता से बात किया करो और अपने घरों में निचली बैठी रहो और अगले ज़माने जाहिलियत की तरह अपना बनाव सिंगार न दिखाती फिरो और पाबन्दी से नमाज़ पढ़ा करो और (बराबर) ज़कात दिया करो और खुदा और उसके रसूल की इताअत करो ऐ (पैग़म्बर के) अहले बैत खुदा तो बस ये चाहता है कि तुमको (हर तरह की) बुराई से दूर रखे और जो पाक व पाकीज़ा दिखने का हक़ है वैसा पाक व पाकीज़ा रखे” (अल अहज़ाब:33)
ज़कात का निज़ाम इस्लाम में आर्थिक विकास और आर्थिक समानता के लिए कायम किया गया है। एक जिम्मेदार मुसलमान हमेशा समाज के कमज़ोर वर्ग की सफलता के लिए प्रयासरत रहता है। ज़कात का निज़ाम मुसलमानों का सामूहिक निज़ाम है जिसकी मदद से समाज में आर्थिक बराबरी लाया जा सकता है।
ज़कात हर ज़माने में लाज़िम रहा है। और तौहीद के साथ साथ ज़कात की अदायगी पर भी दीने इब्राहीमी में जोर दिया गया है क्योंकि ज़कात एक इंसान के अंदर सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास भी जगाता है और सामाजी सफलता में फर्द की शमूलियत को यकीनी बनाता है जिसके बिना एक मरबूत समाज की तशकील का तसव्वुर नहीं किया जा सकता।
Urdu Article: Islam Stresses both on Namaz and Zakat اسلام میں نماز کے ساتھ ساتھ
زکوۃ پر بھی بہت زور دیاگیاہے
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