मोहम्मद इलियास नदवी रामपुरी
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
8 मार्च 2010
अल्लाह पाक ने अपने कलाम में कई बार इस बात का विश्वास दिलाया है कि वह चाहता तो तमाम इंसानों को एक ही दीन पर पर रखता, सबको एक ही उम्मत बना कर बरपा करता और लोग कयामत तक एक ही उम्मत बन कर रहते लेकिन उसने ऐसा नहीं चाहा। इसके विपरीत उसकी मर्ज़ी यह रही कि इस दुनिया में रंगा रंगी रहे, तमाम तरह के दीन रहें और तमाम तरह के लोग भी। बिलकुल इसी तरह जिस तरह रंग और नस्ल का अंतर है और जिस तरह जुबान और लहजों का अंतर है, मौसमों का अंतर है और इलाकों का अंतर है। उसी तरह इंसानों के बीच और अकीदे का भी अंतर भी अल्लाह को फितरी और तकवीनी तकाजों के तहत मतलूब है और यह सब इस लिए है कि ताकि इख्तियार और फिर आज़माइश के उद्देश्य पर सबको एक ही उम्मत बना देता और सबके लिए एक ही दीन को चुन लेता तो आज़माइश व इम्तेहान का उद्देश्य पूरा नहीं होता। फिर तो कोई एक ही चीज हो सकती थी। इस्लाम या कुफ्र और जन्नत या जहन्नम। फिर तो दोनों चीजों के एक साथ वजूद का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। कुरआन ने उम्मत के मतभेद की कारण बतलाई है वह आज़माइश बतलाई है। सुरह मायदा में है:
وَلَوْ شَآ ئَ اللہُ لَجَعَلَکٰمْ اُمٔۃّ وَّ احِدَۃ ؤ لٰکِنْ لِّیَبُلُوَ کُمْ فِیْ مَآ اتکُمْ فَا ستَبِقُوا الْخَیْرٰتِ اِلَی اللہِ مَرْجِعْکُمْ جَمِیُعًا (المائدہ :48(
“अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक ही उम्मत बना देता। (लेकिन उसने नहीं किया और उसकी हिकमत यह है कि) वह तुम्हें आजमाना चाहता है उन तमाम शरई अहकाम व क़वानी में जो उसने तुम्हें दिए हैं। तो तुम नेकियों की तरफ सबकत करो। और याद रखो तुम सबको आखिरकार उसी के पास लौट कर जाना है।“
अल्लाह पाक ने इंसानी दुनिया की तख्लीक का एक मकसद; एक ऐसी मखलूक में अपना परिचय भी बताया है जो अल्लाह की खल्लाकियत व रुबुबियत को स्वीकार करने या ना करने के लिए खुद मुख्तार हो। हालांकि कुरआन की आयत;
وَمَا خَلَقُتُ الْجِنً وَاْلِأ نْسَ اِل لأ لِیَعُبُدُ ؤنِ (الذاریات :56)
“मैंने जिन्नात और इंसान को अपनी बंदगी के वास्ते पैदा किया है”
से बज़ाहिर इंसान और जिन्नात के पैदा करने का उद्देश्य केवल बंदगी मालुम होता है लेकिन यहाँ पर यह बिंदु भी खासा अहम है कि इंसान की तखलीक से पहले फरिश्ते मौजूद थे जो अल्लाह पाक की रात दिन तस्बीह ब्यान कर रहे थे फिर भी अल्लाह ने इंसान को पैदा किया कि वह उसकी इबादत करे। इस बात को जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि फरिश्तों और इंसान की इबादत में एक बुनियादी फर्क है और वह यह है कि फरिश्ते जबरी इबादत करते हैं और इंसान इख्तियारी इबादत करता है। फरिश्ते इस बात के लिए मजबूर महज़ हैं कि अल्लाह की इबादत करें और उसकी पाकी बयान करते रहें लेकिन इंसान के सामने ऐसी मज़बूरी नहीं इसको इख्तियार है, चाहे तो इबादत करे और चाहे तो इबादत न करे। इस वजाहत से मालुम हुआ कि जिन और इंसान की तखलीक का मकसद, केवल बंदगी ‘न हो कर’ इख्तियारी बंदगी है और जब ऐसा है तो ज़ाहिर सी बात है कि ऐसा भी जरुर होगा कि कुछ लोग अपने इस इख्तियार को सहीह तरीके पर इस्तेमाल करें और कुछ लोग इसका गलत तरह से इस्तेमाल करें और इसका लाज़मी नतीजा यह निकलता है कि अल्लाह की इबादत करने वाले और इबादत न करने वाले कयामत तक इस दुनिया में मौजूद रहेंगे। दुसरे शब्दों में कुफ्र और इस्लाम हमेशा बाकी रहेंगे और जब यह बात मालुम हो गई तो यह सवाल भी खुद बखुद पैदा होता है कि इन दोनों की हैसियत क्या होगी, दोनों में से कौन ग़ालिब रहेगा और कौन मग्लूब। अल्लाह ने जो फितरी कवानीन बनाएं हैं उनसे यही मालुम होता है कि दोनों एक दुसरे पर ग़ालिब और मग्लूब की हैसियत से रहेंगे। कभी एक ग़ालिब होगा और कभी दूसरा, बिलकुल ऐसी तरह जिस तरह अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और मुशरेकीन के बीच जंगों का मामला था जीत और हार दोनों के बीच दायर रहती थी। खुद कुरआन ने उसकी वजाहत की है:
وَتِلْکَ اْلاَ یِّامْ نُدَا وِلُھَا بَیُنَ النَّا سِ (آل عمران :۱۴
“हम ज़माने को लोगों के बीच गर्दिश देते रहते हैं”
अर्थात कभी एक गिरोह ग़ालिब कर देते हैं और कभी दुसरे को ग़ालिब कर देते हैं। कभी एक को जीत देते हैं और कभी दूसरे को, कभी एक को सरवरी देते हैं और कभी दूसरे को। एक दूसरी जगह पर अहले ईमान से खिताब है:
وَ اِن تَتَوَ لٔوْ ا یَسُتَبُدِلٔ قَوْ مّا غَیرَ کُمٔ لاَ یَکُمُ نُؤ اَمُثَا لَکُمُ (محمد :۳۸
“अगर तुम ने रुगर्दानी की, तो अल्लाह तुम्हारी जगह दूसरी कौम को बरपा करेगा जो तुम्हारी तरह नहीं होगी”
यह तो अल्लाह की फितरी और तकवीनी कवानीन की बात हुई। इसके बाद जो बात आती है वह अल्लाह की मंशा और उसकी पसंद की बात आती है कि अल्लाह पाक को किस गिरोह और कौन से दीन का गलबा पसंद है। तो इस सिलसिले में कुरआन का साफ़ साफ़ एलान है:
اَلْیَوْمَ اَکْمَلْثُ لَکُمُ دِیْنکُمْ وَاَتُممُتُ عَسلَیْکُمْ نِعُمَیّیُ وَرَ ضِیْتُ لَکُمُ اُلاِ سُلام دِیِنا (الماندہ:۳
“आज मैनें तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया और इस्लाम को दीन की हैसियत से पसंद फरमाया”
यहाँ सरेदस्त याह बात बखूबी समझ लेनी चाहिए कि अल्लाह को दीने इस्लाम पसंद है तो सिर्फ इसलिए लिये पसंद नहीं कि चूँकि वह अल्लाह है और मुख्तारे कुल है वह जो चाहे पसंद करे। उसकी मर्ज़ी बल्कि उसकी इस पसंद में इंसानों की भलाई शामिल है। जमीन पर जिंदगी बाकी रखने के लिए जिन अकीदों, नज़रियात और उसूलों की आवश्यकता थी वह सब उसकी नजर में थे और हैं। इसलिए उसने ख़ास इसी मसलेहत के पेशेनजर इस्लामी उसूल व नज़रियात और अकाएद को इंसानों के लिए पसंद फरमाया क्योंकि इसी में सारी इंसानियत की भलाई निहित है, यही वह उसूल हैं जो फितरत के भी ऐन मुताबिक़ हैं और इंसानी नफ्सियात और जरूरियात के भी ऐन मुताबिक़ हैं। अल्लाह के जितने भी उसूल हैं वह इंसानियत के लिए सरतापा रहमत हैं और कयामत तक के लिए रहमत हैं, इसी लिए अल्लाह ने अपने नबी को खिताब करते हुए फरमाया:
“हमने तुम्हें तमाम जहानों के लिए रहमत बना कर भेजा है।“
وَمَآ اَرُسَلْنکُ اِلأ رَحْمَۃُ لِّلعلَمِیْن (الا نبیا:۱۰۷
“हमने तुम्हें तमाम जहानों के लिए रहमत बना कर भेजा है।“
इन तम्हीदी बातों से मौजूदा दुनिया में मुसलमानों के लिए एक ऐसे कार्य योजना का सुराग मिलता है जो खुद अल्लाह को भी पसंद है, मुसलमान भी इस पर राज़ी हैं और दुनिया में मौजूद दुसरे मज़ाहिब के लोगों को भी इससे कोई परेशानी नहीं। वह कार्य योजना यह है कि एक तरफ मुसलमानों को अल्लाह के बनाए हुए फितरी उसूलों का भी पाबंद होना है और दूसरी तरफ अल्लाह की पसंद और रजामंदी व खुशनूदी का भी ख्याल रखना है। दीन को ग़ालिब करने के लिए कोशिश भी करना है और दुसरे दीनों का एहतिराम और उनको इंगेज भी करना है।
यह बड़ी अजीब सी सिचुएशन है और बहुत मुश्किल हदफ़ भी। यह तो बिलकुल ऐसी ही बात हुई कि कोई शख्स अपने मद्दे मुक़ाबिल को शिकस्ते फाश भी देना चाहे और फिर उसको खुश भी देखना चाहे। बज़ाहिर यह बड़ी अजीब और दिलचस्प सी हालत है मगर अल्लाह के तमाम कवानीन में किसी न किसी दर्जे में यही सिचुएशन पाई जाती है। ज़रा फ़ारसी के इस शेर पर गौर कीजिये। जो अल्लाह के फितरी कवानीन और इंसान से अल्लाह के मुतालबात के बीच पाई जाने वाली एक ऐसी ही सिचुएशन की तरफ इशारा करता है।
درمیان
قعر دریا تختہ بندم کردئی
باز
می گوئی کہ دامن ترمکن ہوشیار باش
“पहले तो मुझे दरिया में डुबकियां देते हैं और फिर कहते हैं कि देखो दामन न भिगो लेना”
एक तरफ तो दीने इस्लाम को दुसरे तमाम छोटे बड़े मज़ाहिब पर ग़ालिब करने का आदेश है और दूसरी तरफ दुसरे मज़ाहिब और उनके मानने वालों को किसी भी प्रकार के सदमों से दोचार न करने का आदेश है। बज़ाहिर यह एक अजीब व गरीब टार्गेट है जो अल्लाह पाक ने मुसलमानों के सर रखा है। हाँ यह बिलकुल अजीब व गरीब अवश्य है मगर ऐसा भी नहीं है कि उन्हें यह जिम्मेदारी दे कर छोड़ दिया गया है बल्कि अल्लाह ने इस अजीब व गरीब टार्गेट को हासिल करने के लिए रहनुमा हिदायात भी दी हैं। अगर मुसलमान उनको पेशेनज़र रखें तो यकीनन कामयाबी से हमकिनार हों और वह अजीब व गरीब बात पैदा कर लें जो हर एक के बस की बात नहीं और अल्लाह ने केवल यही नहीं किया कि इंसानों को रहनुमा हिदायतें दे कर छोड़ दिया बल्कि अपने आखरी नबी और उनके असहाब के जरिये ऐसा कर के भी दिखा दिया। अल्लाह ने अपने नबी के असहाब को दुनिया के बेशतर हिस्से पर गलबा और इस्तेहकाम दिया और उनके जरिये अमन व अमान की ऐसी मिसाल कायम करवाई कि इस जैसी मिसाल दुनिया ने न इससे पहले कभी देखी थी और न इसके बाद आज तक देखी है। जब अल्लाह का दीन ग़ालिब था केवल यही नहीं था कि केवल मुसलमान ही खुश थे बल्कि तारीख गवाह है कि उनकी कयादत में दुसरे तमाम अल्पसंख्यक और तमाम छोटे बड़े धर्म भी खुश थे, उनके जान व माल सुरक्षित थे और उनपर किसी प्रकार का सामाजिक दबाव नहीं था।
उन्हें नैतिक विशेषाधिकार प्राप्त थीं और अगर उन पर अत्याचार होता था तो उनको न्याय मिलता था। आज कल शांतिपूर्ण सहअस्तित्व (Coexistance) और इंटरफेथ डायलॉग (Interfaith) की बात पर बड़ी जोरदार तरीके से उठाई जा रही है। यूरोप और अमेरिका के राजनितिक और धार्मिक नुमाइंदे दुनिया के विभिन्न देशों के दौरों पर निकल खड़े हुए हैं। और वह हर जगह लोकतंत्र, अमन व शांति, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और अंतर्धार्मिक डायलॉग की बात कर रहे हैं। और ढके छुपे अंदाज़ या कभी कभी स्पष्ट शब्दों में मुसलमानों और इस्लाम का इंदीया मालुम करने की कोशिश की जा रही है कि इस्लाम इस मामले में क्या कहता है और मुसलमान नेताओं का मामला यह है कि जैसे अंधे को बटेर हाथ लग जाए। वह इस बात से ही खुश हैं कि उन्हें इंटरनेशनल मीडिया में आकर कुछ शब्द बोलने का मौक़ा नसीब हो जाता है और उनका अपना राजनितिक या धार्मिक कद ऊँचा हो जाता है, यह जाने और समझे बिना कि अमेरिका, इस्राइल और यूरोप, लोकतंत्र, अमन और आतंकवाद का शोर बुलंद करके पीछे अपने इरादों की तकमील में जुटे हुए हैं।
यह देश तो यही चाहते हैं कि दुनिया आतंकवाद के साए के पीछे भागती रहे, पढ़े लिखे और समझ बूझ रखने वाले लोग इसी तरह डायलॉग करते रहें और धार्मिक पेशवा कुरआन व हदीस के बहरे करां से इसी तरह अमन व अमान, सहअस्तित्व और आपसी बातचीत की मवाफिकत और आतंकवाद की मुखालिफत के लिए दलीलें तलाश करते रहें। इसलिए आज की हालत यही है कि पुरी मुस्लिम दुनिया सवालों के घेरे में है। वह जवाब तलाश करने और जवाब देने में ही अपनी सलाहियतें खपा रही है और इस व्यस्तता और शोर व हंगामे की आड़ में सुपर पावर अपना शैतानी खेल खेल रही हैं। मुस्लिम दुनिया में रोजाना के हिसाब से सैंकड़ों मौतें हो रही हैं जिनमें अधिकतर बेकुसूर और मासूम लोगों की जानें जा रही हैं। ख़ास तौर पर नौजवान बच्चे रोजाना सैंकड़ों की संख्या में अजल का लुकमा बन रहे हैं और बाकी दुनिया को न केवल यह कि इसका दर्द नहीं होता बल्कि वह उलटा यही सोचती है कि:
خس
کم جہاں پاک
जहां तक शांतिपूर्ण सहअस्तित्व (Coexistence) और अंतर्धार्मिक मुज़ाकरात (Interfaith dialogue) के बारे में इस्लामी शिक्षाओं का सवाल है तो इस्लाम न केवल यह कि इनको स्वीकार करता है, इस प्रकार के खुले माहौल की हौसला अफज़ाई करता है। इंसानी बुनियादों पर आपसी रिश्तों और संबंधों का हामी है बल्कि वह तो उन चीजों का ज़बरदस्त दाई भी है और इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि इस तरह की कोशिशों से इस्लाम को ही फायदा पहुँचने वाला है। सुअलह हुदैबिया में यही सब तो हुवा था कि जब यकतरफा तौर पर जंग बंदी का समझौता हो गया, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुशरिकों की बहुत सारी बेसर व पैर की शर्तें भी मंज़ूर कर लीं, जिन्हें लेकर अजिल्ला सहाबा भी फिकरमंद थे। जंग बंदी के बाद जब मुसलमानों का दूसरी कौमों के साथ राबता बढ़ा तो इस्लाम की हक्कानियत मजीद निखर कर सामने आई। बदगुमानियां दूर हुईं और सच्चाई स्पष्ट हो गई। नतीजा निकला कि लोग जूक दर जूक इस्लाम में दाखिल हो गए।
तो दुनिया जितनी ज़्यादा शांतिपूर्ण होगी, आपसी रिश्तों में जितनी ज़्यादा खुशगवारी होगी, एक दूसरे के साथ मिल बैठने और बात चीत करने की जितनी अधिक आज़ादी होगी, तबीयतों में जितनी ज़्यादा आमादगी होगी इस्लाम को फलने फूलने के लिए उतने ही अधिक मौके प्राप्त होंगे। शरीअत में दो इस्तेलाही शब्द हैं। इस्लाम और ईमान, एक का माद्दा ‘सलम’ है और दुसरे का ‘अमन’ और इन दोनों के एक ही अर्थ हैं, अर्थात ‘अमन व सलामती। इसी तरह मुसलमानों के परिचय के लिए भी दो शब्द इस्तेमाल किये जाते हैं ‘मुस्लिम’ और ‘मोमिन’। जो पहले दो शब्दों से ही लिए गए हैं और इनके मानी भी लगभग वही होते हैं। अर्थात अमन व सलामती ही के दुसरे दो नाम ‘इस्लाम’ और ‘ईमान’ और इसी तरह जो व्यक्ति खुद अपनी और दूसरों की सलामती चाहता है वह ‘मुसलमान’ है। और जो खुद अपने लिए और दूसरों के लिए ‘अमन’ चाहता है वह मोमिन है। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व (Coexistance) के सिलसिले में कुरआन की हिदायत बहुत साफ और स्पष्ट हैं, कुछ शिक्षा निम्नलिखित हैं:
۱۔ لاَ اِکُرَاہَ فِی الدِّ ینِ قف قَدْ تُبَینَ الرّشُدُ مِنَ الْغَیّ (البقرہ :۲۵۶
दीन में किसी तरह की कोई जबरदस्ती नहीं। अब हिदायत गुमराही से वाज़ेह हो चुकी।“
۲۔لَکُم دِیُنُکْمُ وَلِیَ دِینِ (الکافرون :۶
“तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन है और मेरे लिए मेरा दीन”
۳۔ وَلاَ تَبُو ا الّذِینَ یَدُ عُوْنَ مِنْ دُوُن اللہِ فَیبُوا اللہ عَدُوّام بِغَیُرِ عِلّم (سورہ انعام :۱۰۸
“जो लोग अल्लाह पर ईमान नहीं रखते, उनके खुदाओं को बुरा मत कहो, नहीं तो वह भी नादानी और दुश्मनी में अल्लाह को बुरा कहेंगे”
(जारी)
Urdu Article: Islam And Global Peace اسلام اور عالمی امن
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