गुलाम गौस सिद्दीकी, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
10 नवंबर 2021
भाग-1
क्या आइएसआइएस की ओर से खिलाफत का एलान जायज़ है?
प्रमुख बिंदु:
1. आइएसआइएस ने दावा किया है कि हमने “पैगम्बर की पद्धति पर” खिलाफत स्थापित की है।
2. खिलाफत एक मज़हबी आवश्यकता है या केवल एक राजनीतिक निर्णय इस
बात पर इस्लाम के उलमा और फुकहा के बीच हमेशा मतभेद रहा है
3. सुन्नी खिलाफत और शिया इमामत पर किताबें मज़हबी फिरकों के बीच
राजनीतिक विवाद के संदर्भ में लिखी गई थीं
4. खिलाफत दुसरे तमाम राजनीतिक निज़ामों की तरह, इंसानी कोशिशों का नतीजा है और
क्षेत्रीय और स्थिति के परिवर्तन के साथ साथ एतेहासिक तथ्यों के भी ताबेअ है।
5. अगर मुसलमानों की रोज़मर्रा ज़िन्दगी से “खिलाफत” और “खलीफा” को समाप्त कर दिया जाए तब भी उनके ईमान में कोई अंतर
नहीं पड़ेगा
6. इस्लाम के अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए हमें मध्य युग के
मूल्य जीवित करने या अपनी मौजूदा पहचान को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है।
7. पिछली दो शताब्दियों के बीच सामने आने वाले परिवर्तन ने मामलों
के कार्यशैली पर दुबारा नज़र करने को आवश्यक कर दिया है। इसलिए, इस परिवर्तन को ज़ाहिर करने के
लिए इस्लामी कानून के इतलाक व इन्तेबाक के तरीके कार में परिवर्तन करना होगी।
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(Representational Photo/ISIS)
समय समय पर सामने आने वाली चरमपंथी की लहरें इस्लामी समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इस्लाम को कभी इतनी शदीद आंतरिक विवादों का सामना नहीं रहा जितना कि आज है। अतिवाद और खूंरेजी की इस न ख़त्म होने वाली लहर के नतीजे में अब अधिकतर मुस्लिम देश राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संकट का शिकार हो चुके हैं। हज़ारों घर, मस्जिदें, इस्लामी स्कूल और सूफिया के मज़ार मिस्मार कर दिए गए, लाखों बच्चे यतीम और लाखों महिलाएं बेवह हो गईं। जैसा कि पुरी दुनिया वाकिफ है, आधुनिक युग में अतिवाद और तथाकथित “जिहाद और खिलाफत” की तहरीकों ने मुसलमानों को सबसे अधिक हानि पहुंचाया है।
उन अतिवादी गिरोहों में सबसे अधिक प्रसिद्ध संगठन आइएसआइएस ने मुस्लिम दुनिया में इतनी तबाही मचाई है कि लूट मार और खूंरेजी अब मामुल बन चुकी है। आइएसआइएस का विनाशकारी सिद्धांत गलत फहमियों के एक पेचीदा निज़ाम पर कायम है जो मकसद सहीफों को उनके सयाक व सबाक से हटा कर पेश करता है और इस्लामी कानून का इस्तेमाल अपने तुक्ष लाभ के मुताबिक़ करता है। इसलिए इस्लाम के उलमा को इस विचलित मानसिकता का रद्द बौद्धिक स्तर पर करते रहना चाहिए।
हम इस सिलसिले में आइएसआइएस के बयानिये को रद्द करने और उनकी शरीअत (इस्लामी कानून) की खिलाफ वार्ज़ियों को बेनकाब करने के लिए बहुत से तथ्य पेश करेंगे, ऐसे ऐसे रौशन सुबूत सामने लाएंगे जो आम तौर पर आम मुस्लिम पाठकों की पहुँच से परे हैं। यह लिखने का सिलसिला कई ऐसे दलीलों के साथ आगे बढ़ेगा जिससे यह बात साबित होता है कि तथाकथित “इस्लामिक स्टेट” न तो इस्लामी है और न ही एक रियासत, बल्कि गुस्से, नफरत और ताकत की ख्वाहिश में मुब्तेला अपराधियों का एक विचलित गिरोह है जो अपने उद्देश्य के प्राप्ति के लिए एक चाल के तौर पर इस्लाम को इस्तेमाल करता है। इस हिस्से में ख़ास तौर पर यह बात साबित की गई है कि खिलाफत के बारे में आइएसआइएस के दावे नाजायज़ हैं और उनकी निंदा करना उनका मुकाबला करना इस्लाम का एक मंसबी फर्ज़ है ताकि उनके आपराधिक इरादे मिस्मार हो सकें।
क्या आइएसआइएस की तरफ से खिलाफत का एलान जायज़ है?
अपने ज़ालिमाना अपराध को इस्लामी जवाज़ प्रदान करते हुए, आइएसआइएस अपने कार्य शैली की परवाह किये बिना अक्सर कुरआन और हदीस का हवाला पेश करते हैं। अपनी तथाकथित खिलाफत और स्वयंभू खलीफा के लिए जायज़ इस्लामी बुनियाद की गैर मौजूदगी में आइएसआइएस का एतिबार ही क्या है? उनकी कार्यवाहियां केवल एक सांप्रदायिक, सफ्फाक और घृणित आतंकवादी संगठन की अक्कासी करती हैं जिसका नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नेक किरदार और जीवन शैली से कोई संबंध नहीं है। वह इस्लामी बयानिये का इस्तेमाल दुनयावी जाह व मंसब के प्राप्ति और इलाकों पर गलबा हासिल करने के एक जरिये के तौर पर करते हैं।
शैख़ मोहम्मद अल याकूबी बजा तौर पर कहते हैं:
“जून 2015 को स्वयंभू खिलाफत का एलान, आइएसआइएस के पीछे शक्ति के संघर्ष को ज़ाहिर करता है। यह एलान 10 जून को ईराक के दुसरे सबसे बड़े शहर मोसल पर कब्ज़े के कुछ हफ़्तों बाद सामने आया है, जब वह शाम में अल रक्का और इराक में अल अंबार पर कब्ज़ा कर चुके थे, और हैरत की बात है कि उन्होंने ऐसा 15 अक्टूबर 2006 को इराक में अपनी इस्लामिक स्टेट स्थापित करने के लगभग आठ साल बाद किया। यह बड़ी अजीब बात है कि आइएसआइएस ने खिलाफत के एलान में आठ साल की देरी क्यों की? इस अंतर की वजाहत आइएसआइएस और अलकायदा के बीच विवाद में निहित है। शाम में अलकायदा के नुमाइंदे जबहतुन्नुसरा को 2012 से आइएसआइएस की हिमायत हासिल थी, और जब आइएसआइएस ने 8 अप्रैल 2013 को इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड शाम (ISIS) का एलान किया, और अलकायदा- जबहतुन्नुसरा को अपनी रियासत में शामिल किया, आइएसआइएस अलकायदा- जबहतुन्नुसरा के बीच एक खूंरेज़ विवाद खडा हुआ। अलकायदा के रहनुमा एमन अल ज़वाहिरी ने आइएसआइएस के खिलाफ अलकायदा- जबहतुन्नुसरा की हिमायत की। फितरी तौर पर अलकायदा उस समय आइएसआइएस से अधिक प्रसिद्ध था। इसके मुताबिक़, 29 जून 2014 को खिलाफत का एलान करना ही एक रास्ता था जिसके कारण आइएसआइएस अलकायदा सबसे बड़ी जिहादी संगठन के तौरपर उभर सकती थी और ओसामा बिन लादेन की मीरास को आगे बढ़ा सकती थी। और वह इस मज़हबी जवाज़ और साख को इस्लाम की आड़ लिए बिना और खिलाफत का एलान किये बिना नहीं कर सकते थे।“ (शैख़ मोहम्मद अल याकूबी, आइएसआइएस का रद्द, उसकी मज़हबी और नज़रियाती बुनियादों की तरदीद, पेज 23, प्रकाशित करने वाला, स्क्रेडनाल)
तथाकथित खिलाफत के एलान के बाद, उनके स्वयंभू खलीफा अबू बकर अल बगदादी ने दावा किया कि हमने “पैगम्बर के तरीके कार पर“ खिलाफत कायम की है। इसके बाद उन्होंने अपने अंग्रेजी जरीदे दाबिक और रोमिया में बाकायदा लेख प्रकाशित किये जिनमें लोगों को अपनी तथाकथित खिलाफत से बेअत करने की तरगीब दी।
आइए अब यह साबित करने के लिए आइएसआइएस के उद्धवरण नक़ल करते हैं कि आइएसआइएस उस नबवी तरीके कार के खिलाफ है जिसकी नुमाइंदगी करने का दावा करते हैं। आइएसआइएस ने खिलाफत के एलान और उसके तरीके कार के बारे में निम्नलिखित बातें कहीं:
“पहली रमज़ान 1435 हिजरी को खिलाफत के अहया का एलान दौलते इस्लामिया के प्रवक्ता शैख़ अबू मोहम्मद अल अदनानी अल शामी ने किया।“.... अदनानी ने कहा, “यकीन रखो, इस्लामिक स्टेट के सिपाहियों क्योंकि हम अल्लाह के हुक्म से इस्तहाज़ीन के इमाम शैख़ ओसामा, अबू मुसअब अल ज़रकावी, रियासत के बानी, अबू उमर अल बगदादी, और उसके जंगी वज़ीर अबू हमज़ा अल मुहाजिर के मनहज (तरीके कार) पर अपना सफर जारी रखेंगे। और हम उस वक्त तक न बदलेंगे और न ही अपना रास्ता परिवर्तित करेंगे जब तक कि हम उन चीजों का मज़ा न चख लें जिनका उन्होंने चखा है। और जब अमीरुल मोमिनीन उमर अल बगदादी ने अबू हमज़ा अल मुहाजिर के साथ शहादत हासिल की तो उस वक्त इस्लामी स्टेट नहीं डगमगाई, बल्कि उसकी कयादत ने मुत्तफेका तौर पर अमीरुल मोमिनीन अबू बकर अल बगदादी की बेअत की....” (दाबिक, पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा शुमारा, शैख़ मोहम्मद अल याकूबी की आइएसआइएस की तरदीद में भी पेज 24 पर मनकूल)
उपर्युक्त अंश से ज़ाहिर होता है कि आइएसआइएस का तरीके कार ओसामा बिन लादेन, अबू मुसअब अल ज़रकावी, अबू उमर अल बगदादी, अबू हमज़ा अल मुहाजिर और अबूबकर अल बगदादी से प्रभावित है, जिनका नाम उपर लिया गया है। उपर्युक्त फिरका परस्त रहनुमाओं के तर्ज़े अमल का मवाज़ना पैगम्बरे इस्लाम की जिंदगी से करना हमारे रसूल की शान में गुस्ताखी है और कोई भी अकलमंद यह दावा नहीं कर सकता कि यह पाँचों अफराद पैगम्बराना तरीके कार आम शहरियों के क़त्ल को ममनूअ करार देता है, जिसकी पैरवी करने का उपर्युक्त में से कोई दावा नहीं कर सकता। मैं इस बात पर भी ज़ोर देना चाहूँगा कि आइएसआइएस ने ओसामा बिन लादेन को अपना लीडर बना कर खुद को कमज़ोर किया है क्योंकि बिन लादेन का संगठन अलकायदा 2013 से आइएसआइएस के खिलाफ लड़ रहा है। जब उसके पैरुकार आइएसआइएस को मार रहे हैं तो आइएसआइएस बिन लादेन की पैरवी कैसे कर सकता है? यह आइएसआइएस की कशमकश का शिकार मानसिकता की बेहतरीन मिसाल है। (आइएसआइएस की तरदीद अज़ शैख़ मोहम्मद अल याकूबी, पेज 25)
आइएसआइएस ने पुरी दुनिया से उग्रवादियों और मुहाजेरीन को भारती करने के लिए खिलाफत को जिंदा करने के बयानिये का फायदा उठाया। इसे मुसलमानों के लिए एक मिसाली घर के तौर पर पेश किया गया जिसमें शरई कवानीन और उसूल ‘महफूज़’ हैं, और उनके हुकूक और वकार को बहाल किया गया है। आइएसआइएस का दावा है कि उसकी “खिलाफत” वाहिद मुस्तनद “इस्लामी रियासत” और निजामे हुकूमत है। कम्युनिज्म, सेकुलरिज्म, कौम परस्ती और लिब्रलिज्म पर आधारित तमाम जमातें; जम्हूरियत के दाई और जम्हूरी अमल में हिस्सा लेने वाले काफिर हैं। (ھذہ عقیدتنا و ھذا منھاجنا के शीर्षक से प्रकाशित आइएसआइएस के एक किताबचे से मनकूल, जिसका अनुवाद “यह हमारा अकीदा और हमारा रास्ता है”)। इसलिए, तमाम मुसलमानों से अपील की जाती है कि वह आइएसआइएस के ज़ेरे तसल्लुत इलाके में मुन्तकिल हो जाएं,” क्योंकि इस्लाम की सरज़मीन की तरफ हिजरत वाजिब है।“ (दाबिक, शुमारा1, खिलाफत की वापसी, जुलाई 2014)
आइएसआइएस के दावे काबिले बहस हैं क्योंकि इस्लाम किसी मखसूस तर्ज़े हुकूमत का हुक्म नहीं देता। “खिलाफती” हुकूमत के कयाम को कुरआन में वाज़ेह तौर पर बयान नहीं किया गया है। जिन कुरआनी आयतों में खलीफा (खलीफा) का ज़िक्र है वह दर्ज जेल हैं:
“और याद करो जब तुम्हारे रब ने फरिश्तों से फरमाया, मैं ज़मीन में अपना नायब बनाने वाला हूँ बोले क्या ऐसे को नायब करेगा जो उसमें फसाद फैलाएगा और खूंरेजी करेगा और हम तुझे सराहते हुए, तेरी तस्बीह करते और तेरी पाकी बोलते हैं, फरमाया मुझे मालूम है जो तुम नहीं जानते। (2:30)
“ऐ दाउद बेशक हमने तुझे ज़मीन में नायब किया तो लोगों में सच्चा हुक्म कर और ख्वाहिश के पीछे न जाना कि तुझे अल्लाह की राह से बहका देगी, बेशक वह जो अल्लाह की राह से बहकते हैं उनके लिए सख्त अज़ाब है इस पर कि वह हिसाब के दिन को भूल बैठे।(38:26)
खलीफा का अनुवाद नायब है, जिसका मतलब “उत्तराधिकारी” या “कायम मकाम” भी हो सकता है, इसलिए इसका मतलब रसूलुल्लाह के खलीफा, या “खुदा के रसूल का जानशीन/ कायम मकाम” होता है। कुछ आयतों में खलीफा एक आलमगीर इंसानी विरासत और जिम्मेदारी के अर्थ में भी वारिद हुआ है जैसे 38:26 और 6:165 क्योंकि तमाम इंसान अपनी बातिनी हकीकत में खुदा के खलीफा हैं। दूसरी आयतों में भी “जांनशीन” का तसव्वुर मिलता है (जैसे कि आयत 7:69, जो नूह की कौम के बाद नाएबीन की तरफ इशारा करती है)। आयतें 27:62, 10:73, 10:14,7:74 और 35:39 भी ऐसी ही हैं। कुछ मुफ़स्सेरीन कहते हैं कि खलीफा की इस्तेलाह अरबी शब्द खलफतू से माखुज़ है जिसका अर्थ है “बाद में आना”, इसका मतलब यह है कि इंसान तमाम जानदारों के बाद आते हैं और यह कि वजूद के तमाम मरहले इंसानी हालत में जमा होते हैं।
हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को ज़मीन पर खुदा का खलीफा बना कर भेजा गया। कुरआन की एक सुन्नी शाफई तफसीर, तफ़सीरुल जलालैन के मुताबिक़ आयत 2:30 का मतलब यह है कि बनी नौए इंसान को अपने खालिक की तारीफ़ व तौसीफ और उसकी तक्दीस व तम्हीद बयान कर के और एक लायक इंसान बन कर अल्लाह की नुमाइंदगी करना चाहिए। अल्लाह ने आयत 38:26 में हज़रत दाउद को सच्चाई और इंसाफ के साथ हुकूमत करने और फैसला करते वक्त अपनी ख्वाहिशात के बहकावे में न आने का हुक्म दिया है।
आया खिलाफत एक मज़हबी जरूरत है या केवल एक राजनीतिक फैसला, यह मसला उलमा ए इस्लाम और फुकहा के बीच एक लम्बे समय से बहस का विषय रहा है। उन्होंने कुछ फिकही मकातिबे फ़िक्र [फिकही मज़ाहिब] के जरिये पेश करदा नुसूसे कुरआनी के मखसूस मानी से भी इख्तेलाफ किया है।
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात (623 ई०) के बाद सकीका बनू साद में कुछ लोग जमा हुए और दो फरीकों अर्थात मुहाजेरीन और अंसार के बीच यह बहस छिड़ गई कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जांनशीन नामज़द होने का हक़ किस को है? जैसा कि उन्होंने इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की राजनीतिक ताकत, या “मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हाकमियत” की जांनशीनी पर आचार विचार किया, इस मीटिंग में मौजूद दोनों जमातें खिलाफत की इस्तेलाही परिभाषा से वाकिफ थीं। दोनों जमातों की जानिब से पेश किये गए दलीलों में जांनशीनी की बहस का राजनीतिक पहलु स्पष्ट है। मुहाजिरीन के हक़ जांनशीनी के बचाव में हज़रत उमर रज़ीअल्लाहु अन्हु ने फरमाया खुदा की कसम अरब कबीला कुरैश के किसी फर्द के आलावा और किसी सरदार पर मुत्तफिक नहीं होंगे। अंसार के एक सदस्य साद बिन बशीर ने इससे इत्तेफाक किया।
इसलिए, न तो मुस्लिम फुकहा ने न ही राजनीतिक लेखकों ने खिलाफत का तसव्वुर मज़हबी किताबों से अख्ज़ किया है और न ही रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इसका हुक्म दिया है। बल्कि, इस्लामी फिकह में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के बाद के दौर के तजुर्बात, और ख़ास तौर पर खुलफा ए राशेदीन के ज़माने के तजुर्बात को मुरत्तब और मुनज्ज़म करने की काबिलियत थी, इसलिए खिलाफत के नजरिये को उस वक्त के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मंजर नामे में “राजनीतिक निज़ाम की अमली शक्ल के तौर पर देखा गया,” जो इर्तेका के विभिन्न चरणों से गुज़ारा गया। खिलाफत का नजरिया हुकूमत की हर तब्दीली के साथ तैयार होता चला गया।
मिस्र की इस्लामी मुशावरती संगठन और अल अज़हर से जुड़े इदारा दारुल इफ्ता अल मिस्रिय की वेबसाईट पर है। “मज़हबी जिम्मेदारियों के बजाए राजनीतिक आवश्यकता सबसे नुमाया अवामिल थे जिनकी वजह से खिलाफत के इदारे की बुनियाद पड़ी और इसे रिवाज हासिल हुआ”, दारुल इफ्ता इन बिंदुओं को स्पष्ट करते हुए कहता है:
उन्होंने महसूस किया कि पैगम्बरे इस्लाम मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के बाद कोई रहनुमा न होने से इस्लाम बिखर जाएगा और मुसलमानों के मामले ना अहल लोगों के हाथ में आ जाएगी। और मज़हबी रौशन ख्याली और मुस्लिम सरहदों की हिफाजत के लिए रहनुमा का होना जरूरी था, जिससे इस्लाम की तरवीज व इशाअत हुई। कई किताबें लिखी गई हैं जो इस बात की मजबूत शहादत पेश करती हैं कि सुन्नी खिलाफत और शिया इमामत पर किताबें मज़हबी फिरकों के बीच राजनीतिक टकराव के संदर्भ में और इन विवादों की रौशनी में लिखी गई हैं जो मुस्लिम हुक्मरानी में हज़रत मुआविया रज़ीअल्लाहु अन्हु के जरिये खानदानी जांनशीनी परिचित करवाने के बाद शुरू हुई थी।
इस बहस में यह साबित करने की कोशिश की गई है कि खिलाफत, दुसरे तमाम राजनीतिक निज़ामों की तरह, इंसानी कोशिशों का नतीजा है और इलाकाई और हालात की तब्दीलियों के साथ साथ एतेहासिक तथ्यों के भी ताबेअ है। इसलिए, किसी भी राजनीतिक निज़ाम की कामयाबी या नाकामी का अंदाजा उसके समाज के नियमों को अपनाने, जवाज़ फराहम करने और सुरक्षा प्रदान करने की सलाहियत से लगाया जाता है, जो कि ऐसा विषय है जिसे प्रचलित मज़हबी मतून के जरिये लाज़िम करार नहीं दिया जा सकता। बल्कि इसका सुबूत खुद नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इस सिद्धांत से मिलता है: “तुम अपनी दुनयावी ज़िन्दगी के मामलों को खूब जानते हो।“
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के बाद जांनशीन की जरूरत की वाहिद वजह यह थी कि कानून को नाफ़िज़ करने वाली एक अथारिटी के बिना उसे नाफ़िज़ नहीं किया जा सकता था। उस वक्त खिलाफत का निज़ाम ही वाहिद अथारिटी और सियासी विकल्प की सूरत में उपलब्ध था।“ इस निजामे हुक्मरानी में केवल खलीफा को ही कानून साज़ी का इख्तियार था। अगर उस वक्त मुसलमानों के पास कोई दुसरा सियासी निज़ाम होता तो वह उन पर ज़रूर गौर करते।
इस बात को ज़ेहन में रखते हुए, क्या तथाकथित “इस्लामी रियासत” के कयाम का मौजूदा मुतालबा तजवीज़ करता है कि हमें खिलाफत के पुराने सियासी निज़ाम को दुबारा नाफ़िज़ करने के हक़ में जदीद कौमी रियासती निज़ाम को तर्क कर देना चाहिए? क्या आइएसआइएस के मुतालबात काबिले एतिबार हैं?
इन मसाइल पर गौर करने से पहले, मरकज़ी धारे के मुस्लिम विद्वानों की इस तफ्हीम पर ज़ोर देना जरूरी है कि इस्लाम एक सख्त, आमेराना निज़ाम नहीं है जिसमें कोई लचक ही न हो। इस्लाम के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए हमें मध्य युग में वापस जाने या अपनी मौजूदा पहचान तर्क करने की जरूरत नहीं है। इस्लाम ने कभी भी अपने पैरुकारों से यह मुतालबा नहीं किया कि वह अपनी रिवायतों को तर्क करें और सख्त नियम पर अमल करें।
यह लचक केवल मुसलमानों की सांस्कृतिक जीवन तक सीमित नहीं है। बल्कि यह इस्लामी कानून रिवायत का एक पहलु भी है। दर हकीकत यह इस्लामी कानून की इम्तेयाज़ी खुसुसियात में से एक है। इस्लामी कानून एक तरीके कार के अलावा पिछले 1400 सालों में मुस्लिम फुकहा के दृष्टिकोण का मजमुआ भी है। इन शताब्दियों के दौरान कानूनी फ़िक्र के 90 से कम मकातिबे फ़िक्र मौजूद नहीं थे, और इकिस्वीं सदी में यह हमारी खुश किस्मती है कि हम इस रिवायत पर दुबारा नज़र डालने के काबिल हैं ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि अब हमारे लिए काम की चीजें क्या हैं।
यह फतवा के पहले मरहलों में से एक है। फतवे कानूनी रिवायत और इस समकालीन दुनिया के बीच एक रब्त का काम करते हैं जिसमें हम रहते हैं। यह अतीत और वर्तमान, मुतलक और मुकय्यद, नज़रियात व आमाल के बीच एक पुल का काम करते हैं। इसलिए, फतवा जारी करने के लिए केवल कानून का इल्म काफी नहीं है। मुफ्तियों को इस दुनिया के बारे में भी मुकम्मल आगाही होनी चाहिए जिसमें वह रहते हैं और उन मसलों से भी अच्छी तरह वाकिफियत होनी चाहिए जो मुसलमानों को दरपेश हैं। आज हम जिस शिद्दत पसंदी का मुशाहेदा कर रहे हैं वह उन लोगों का नतीजा है जो फतवे जारी करने की सलाहियतों से महरूम हैं। हमें मौजूदा मसलों के बारे में आगाह होना चाहिए। जब हर किसी की ना अहल राय को फतवा समझ लिया जाता है तो हम एक ऐसे हथियार से महरूम हो जाते हैं जो अतिवाद को रोकने और इस्लामी कानून की लचक और संतुलन को बरकरार रखने के लिए आवश्यक है।
पिछली सदियों में दुनिया बड़ी हद तक बदल चुकी है। परिवर्तन की इस लहर में नए तकनीक और राजनीतिक नज़रियात का भी जन्म हुआ है। नई तकनीक का इजाद भी हुआ जिनसे हमें फौरी तौर पर दुनिया के लगभग हर हिस्से की ख़बरें मिल जाती हैं, जब कि अतीत में बहुत जरूरी ख़बरों को भी हम तक पहुंचने में महीनों लग जाते थे।
परिवर्तन की इस लहर ने हमारे वजूद के हर उंसुर को बिलकुल परिवर्तित कर दिया है। इस आधुनिक रुझान से निमटना मुस्लिम फुकहा और मुफ्तियों के लिए सबसे मुश्किल काम है। अतीत में चीजों के चलने और आगे बढ़ने के तरीके में बहुत कम तब्दीली आई थी। यहाँ तक कि तब्दीली हुई भी तो वह बतदरीज और कुछ शोबों तक ही सीमित थी। तथापि, पिछली दो सदियों की तब्दीलियों ने इस बात की अज सरे नौ जानकारी को जरूरी बना दिया है कि मामले कैसे तय होते हैं और चीजें कैसे चलती हैं। इसलिए इस्लामी कानून का इतलाक व इन्तेबाक के तरीके कार को भी बदलना होगा ताकि यह परिवर्तन ज़ाहिर हो।
दारुल इफ्ता मज़ीद कहता है. “इस्लामी कानून की लचक और तब्दीली को कुबूल करने की इस की सलाहियत शायद इसका सबसे बड़ा असासा है। अपने बुनियादी उसूलों पर कायम रहते हुए लोगों को अमली और संबंधित रहनुमाई फराहम करने के साथ, इस्लाम मज़हब की हिकमत और अखलाकी ताकत को जदीद दौर में लागू करने की इजाज़त देता है। शरीअत के लिए इस रवय्ये को अपना कर ही एक प्रमाणिक, समकालीन, उदारवादी और सहिष्णु इस्लाम आज मुस्लिम दुनिया को दरपेश मसलों का हल फराहम कर सकता है।
(http://www.dar-alifta.org/Foreign/ViewArticle.aspx?ID=574&CategoryID=5)
यहाँ तक कि अगर खिलाफत कायम करनी ही है, जैसा कि कुछ मुस्लिम उलमा का ख्याल है, तो ऐसा “मुस्लिम देशों, इस्लामी उलमा की तंजीमों और दुनिया भर के मुसलामानों के बीच इत्तेफाक राय से होना चाहिए।“
(देखें: अल बगदादी के नाम खुला ख़त, प्वाइंट 22
मुशावरते इस्लामी इंतेजामिया का एक अहम हिस्सा है, इसके बावजूद इस बात का कोई इशारा नहीं मिलता है कि आइएसआइएस अपने दरमियान के अलावा बड़े पैमाने पर उम्मते मुस्लिमा के साथ कोई मुशावरत करती है। इस्लाम के उलमा का एक लम्बे समय से इस बात पर इत्तेफाक है कि उम्मत से संबंधित विषयों पर दूसरों से मशवरा लेना वाजिब भी है और काबिले तारीफ़ भी, क्योंकि यह पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत की पैरवी है। खुले ख़त में इस्लाम के उलमा अल बगदादी से पूछते हैं, “तुम्हें उम्मत पर किसने इख्तियार दिया?” उसे तंबीह करते हुए कि “इत्तेफाक के बिना खिलाफत का एलान करना फितना है।“
(देखें: अल बगदादी के नाम खुला ख़त, प्वाइंट 22)
https://www.academia.edu/35104314/De_legitimising_Al_Baghdadis_Caliphate
आइएसआइएस की तथाकथित खिलाफते राशदा के नाम पर भी निम्नलिखित बुनियादों पर जायज़ करार नहीं दिया जा सकता:
खुलेफा ए राशेदीन का चुनाव आज़ादी और सलामती के माहौल में हुआ। धमकियों और तलवारों का इस मामले से कोई दखल नहीं था। आइएसआइएस की तथाकथित खिलाफत, लड़ाई और खूंरेजी के बीच, खौफ और दहशत के माहौल में, हिंसक हुक्मरानी और जब्र के मकसद से कायम की गई थी।
खिलाफते राशदा ने बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक से परे तमाम मुसलमानों को अपनी वफादारी और हाकमियत के तहत संगठित कर दिया और तमाम मुसलमान उसके अद्ल पर आधारित उसूलों पर ख़ुशी के साथ मुतमइन थे। आइएसआइएस के मामले में, मुख्य धारा के मुसलमानों की अधिक संख्या उसके मकासिद के खिलाफ है।
खुलफा ए राशेदीन का चुनाव उस वक्त के तमाम मुसलमानों की रज़ा और ताकत व खूंरेजी से आज़ाद माहौल में किया गया था। तथापि, आइएसआइएस के स्वयंभू ‘खलीफा’ को मुसलमानों को मजबूर करना पड़ा कि वह उसे अपना “खलीफा” मानें। पुरी दुनिया के मुसलमान समझते हैं कि इस्लाम में जब्र नाम की कोई चीज नहीं है। इमाम मालिक बिन अनस रहमतुल्लाह फरमाते थे “ ज़बरदस्ती की तलाक वाकेअ नहीं होती, इसलिए मजबूर और डरे हुए की बेअत भी बातिल है।“
तमाम लोगों के लिए खिलाफत का निज़ाम इत्तेहाद, मेहरबानी, नरमी, हमदर्दी, फज़ल और अद्ल पर आधारित था। मुसलमानों में कभी खाना जंगी नहीं हुई। जबकि आइएसआइएस की तरफ से एलान करदा “खिलाफत” खाना जंगी, अंतरधार्मिक विवाद, बरबरियत, दहशतगर्दी, और मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के लिए हमदर्दी, रहम और इंसाफ के अभाव का कारण बन रही है इसलिए यह खिलाफते राशदा की रूह के बिलकुल खिलाफ है।
खिलाफते राशदा बुनियादी तौर पर सालेह मकासिद के हुसूल, तक्वा और कुरआन व सुन्नत की हकीकी तालीमात के निफाज़ के साथ साथ रियासत के तमाम शहरियों के लिए अमन व सलामती के लिए तशकील दी गई थी। दूसरी तरफ आइएसआइएस की स्वयंभू खिलाफत केवल नारों, एलानों, नमूद व नुमाइश पर कायम है। इसका मकसद हर उस शख्स को क़त्ल करना है जो उसकी तथाकथित “खिलाफत” का विरोध करता है। अगर वह कुरआन व सुन्नत की तालीमात से इख्तिलाफ करते हैं तो उन्हें कोई एतिराज़ नहीं, लेकिन अगर कोई उनके इस्लाम के खिलाफ उनके आमाल पर आलोचना करता है तो उन्हें एतिराज़ होता है। अल्लाह पाक का यह हुक्म कि एक इंसान का क़त्ल पुरी इंसानियत के क़त्ल के बराबर है और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हदीस “इस्लाम में न तो नुक्सान पहुंचाना है और न ही बदला लेना है”, आइएसआइएस की तथाकथित खिलाफत इस्लाम की सबसे अधिक नज़रअंदाज़ की गई इस्लामी शिक्षा हैं।
इसलिए, अगर मुसलमानों की रोज़मर्रा ज़िन्दगी से “खिलाफत” की इस्तेलाह हज़फ भी कर दी जाएं तब भी उनके ईमान पर कोई असर नहीं पड़ेगा। लेकिन यह बहुत बड़ा अलमिया होगा अगर केवल एक दिन के लिए भी अल्लाह पाक और उसके प्यारे नबी हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इंसानी हुकूक बशमूल इंसाफ, अमन, रवादारी, सलामती, बराबरी और दूसरी पाकीज़ा इस्लामी तकाजों की तालीमात की खिलाफ वर्जी की जाएं। इस्लाम ने मुसलमानों को तमाम शहरियों के लिए हर किस्म के इंसाफ, अमन, सलामती और खुशहाली के तहफ्फुज़ का फरीज़ा सौंपा है। इस्लाम ने कभी भी लोगों को आइएसआइएस की स्वयंभू “खिलाफत” या “खलीफा” को स्वीकार करने पर मजबूर नहीं किया है।
English Article: Refuting ISIS Concept of Caliph and Caliphate
[Khalifa and Khilafah] – Part 1
Urdu Article: Refuting ISIS Concept of Caliph and Caliphate
[Khalifa and Khilafah] – Part 1 خلیفہ اور خلافت پر داعش کے تصور کی
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