फतह मोहम्मद नदवी
१२ जुलाई, २००९
मुफक्किरे इस्लाम हज़रत मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी रहमतुल्लाह अलैह पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते हुए इस सैलाब और इसके खतरों और चिंताओं से आगाह करते हुए लिखते हैं कि “इसी तरह अगर पश्चिमी सभ्यता और इसके संसाधन व फल से फायदा उठाने में बाकायदा सोची समझी या अंतर्दृष्टि और दूरदर्शिता और अच्छाई व बुराई में तमीज़ के आधार पर हुआ तो यह सभ्यता देश के नेताओं और अनुबंध मालिकों और उलेमा ए दीन की मर्जी और इच्छा के खिलाफ इस देश या समाज पर जबरन काबिज़ हो जाएगी। आम लोग गर्मजोशी के साथ इसका स्वागत करेंगे, साहित्यकार और चिंतक इसके लिए रास्ता साफ़ करेंगे, और अच्छाई व बुराई और लाभ और हानि में तमीज़ किये बिना इस देश के नागरिक भूखों की तरह उस इस पर टूट पड़ेंगे। सारी नैतिक व दीनी मूल्य इसके साथ फना हो जाएंगे। देश के रहनुमा और जिम्मेदार राजनीतिज्ञ इस स्थिति के सामने लंगड़े लूले और अपाहिज नज़र आएँगे और उनके हाथ से नेतृत्व प्रणाली हमेशा के लिए निकल चुकी होगी।“
इस उदाहरण से, यह अनुमान लगाया जा
सकता है कि हमारे देश के धार्मिक उलेमा और शहरी विचारकों ने अपने देश को आधुनिक सभ्यता
की इस चुनौती और खतरे से पहले ही अवगत करा दिया था, क्योंकि उन्होंने इसकी जटिलताओं और समाज के लिए
इसके प्रभाव और निहितार्थ को अपने विस्तृत अनुभवों से पहले ही देख लिया था, फिर उन इल्मों की
स्थिति जहां यह सभ्यता फातेहाना दाखिल हुई उनके सामने थी,
इससे उन्होंने हमेशा इसके
उमड़ते हुए सैलाब से अपने समाज औए सोसायटी को बचाने के लिए ना केवल सरकार को खबरदार
किया बल्कि खुद भी इसके खात्मे के लिए संघर्ष की क्योंकि उनको इस बात का डर था कि अगर
यह सभ्यता दुसरे देशों की तरह हमारे देश में भी फातेहाना दाखिल हो गई, जैसा कि जमाने का
रुझान इस को कुबूल करने की तरफ बढ़ रहा है तो फिर हमारे समाज के भी सभी नैतिक मूल्य
फना हो जाएंगे, और समाज में ऐसी अराजकता और संकट पैदा हो जाएगी जिसका ताकत और कुव्वत से मुकाबला
असंभव हो जाएगा।
बहर हाल तमाम कुफ्र इस्लाम के खिलाफ संगठित है और एकता के इस
इतिहास का सिलसिला बहुत पुराना है दुनिया का इतिहास इस बात पर गवाह है कि इस्लाम के
खिलाफ जब भी कोई साज़िश और प्रोपेगेंडा रचा गया तो दुनिया का तमाम कुफ्र एक सफ में खड़ा
नज़र आता है, और एक आवाज़ होकर वह अपनी ताकत व कुव्वत को इस्लाम के खिलाफ लगा देते हैं, बात इस समय समलैंगिकता
की चल रही है समलैंगिकता का जहां तक संबंध है तो इस्लाम सहित दुनिया के किसी नैतिक
प्रणाली में इसको सहीह या जायज नहीं बताया गया, चाहे वह धर्म हिन्दुओं का हो या यहूदियों का, ईसाईयों का हो या
मुसलमानों का किसी भी धर्म में इसकी अनुमति नहीं तो फिर इसको भारत में कैसे कानूनी
जवाज़ (वैधता) मिल गई? क्या भारत के नैतिक प्रणाली में इसकी कोई गुंजाइश है तो शायद
ऐसा भी नहीं, तो फिर इसको कानूनी जामा पहनाने वाले कौन लोग हैं? और उनका संबंध किसी धर्म से है? या उनका कोई धर्म
ही नहीं जिन्होंने इसको कानूनी दर्जा दिया। असल में इस्लाम के खिलाफ पश्चिमी उपनिवेशवाद
अपने ज़हन व दिमाग से और मन गढ़त फलसफों से जिन चीजों को इजाद करते हैं, और फिर वह अपने इजाद
किये हुए विचारों को इस्लाम पर थोपने के लिए ऐसे व्यक्ति तलाश करते हैं जिनका ब्रेनवाश
खुद वह अपनी आगोश में करते हैं जिससे उन्हें अपने उद्देश्य को पाने में बड़ी सफलता मिल
जाती है। और पश्चिमी साम्राज्य का असल उद्देश्य ही यही है कि वह किसी भी तरह इस्लाम
की रूह को खत्म कर दें। इसके सामाजिक प्रणाली और नैतिक प्रणाली को बिलकुल बर्बाद कर
दें। ताकि लोग इस्लाम के संबंध से संदेह में पड़ जाएं।
असल में इस्लाम दुश्मन ताकतों को इस्लाम के विकास से जब बौखलाहट हो जाती है तो फिर वह समय समय पर ऐसी चीजों को सामने लाते हैं जिस से मुसलमानों के अंदर चिंता की स्थिति पैदा हो जाए, फिर वह जलसे व जुलुस करें विरोध और प्रदर्शनों में अपना कीमती समय बर्बाद करें और हम मज़े से अपनी कयाम गाहों में तमाशा देखें क्योंकि इस्लाम दुश्मन ताकतों को इस बात का अच्छी तरह ज्ञान है कि जिस तरह इस्लाम ने अतीत में दुनिया के सभी चुनौतियों का सामना आसानी से किया है तो भविष्य में भी इस्लाम सभी चुनौतियों का सामना करके दुनिया को एक सहीह निज़ाम दे सकता है। इस्लाम के पास एक ऐसी जीवन प्रणाली है जिससे पूरी दुनिया को एक प्लेटफ़ॉर्म से न्याय के साथ चलाया जा सकता है। दूसरी तरफ इस्लाम दुश्मन ताकतों को यह भी मालुम है कि वह मुसलमानों को मैदाने जंग में हार नहीं दे सकते, इन तमाम बातों को सामने रख कर पश्चिमी उपनिवेशवाद ने इस्लाम के खिलाफ लुईस नौवें १२७०-१२१४ की वसीयत पर अमल किया जो इससे सलीबी जंगों में मुसलमानों से हार खाने के बाद की थी कि “तुम लोग मैदाने जंग में जंगी साजों सामान और अधिक संख्या के बावजूद मुसलमानों को शिकस्त नहीं दे सकते जब तक उनका ईमान और अकीदा कमज़ोर और मुतज़लज़ल ना हो जाए। लुईस नौवें का यह वसीयत नामा चार महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर आधारित था। (१) ईसाई मशीनरी (२) इश्तेराक (३) आधुनिकतावाद (४) इसी को सामने रख कर यूरोप वालों ने अपने नापाक उद्देश्य की पूर्ति की।
समलैंगिकता जिसकी किसी धर्म में भी कोई अवधारणा नहीं, लेकिन जहां तक संबंध ईसाई और यहूदियों के धर्म का है तो यहूदी और ईसाईयों ने धर्म की अवधारणा अपने दिमाग से निकाल फेंका। जब उनके यहाँ सिरे से धर्म की अवधारणा ही नहीं तो फिर वह लोग इनकी अंधी तकलीद क्यों कर रहे हैं जिनके यहाँ अभी धर्म की कुछ अवधारणा और सभ्यता बाकी है, जब हमारे पास अपना धर्म और अपनी सभ्यता है तो हम लकीर के फ़क़ीर क्यों बने हुए हैं? क्या हमें अपने धर्म और अपनी सभ्यता के बारे में कुछ शक है कि हम दूसरों की सभ्यता को अपनाने में कानून को भी खत्म कर सकते हैं। दुनिया की नज़र में शायद इससे अधिक ज़हनी गिरावट और क्या हो सकती है कि अश्लीलता की तरवीज और पश्चिम की अंधी तकलीद में अपना सब कुछ दावं पर लगाया जा सकता है। इससे साफ़ तौर पर यह बात भी मालुम हो जाती है कि हमारे देश के विवेक वाले लोगों के अन्दर से एहसासे ज़ियाँ जाता रहा फिर वह भी अपनी नई नस्ल के संबंध से लापरवाह हो गए कि उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है।
समलैंगिकता बल्कि दुसरे शब्दों में आधुनिक युग के समाज के लिए ऐसा नासूर है जिसके लिए कोई भी दवा कारगर साबित नहीं होगी। जिसके कीटाणु समाज की सभी नैतिक मूल्यों को इस तरह समाप्त कर देंगे कि शर्म और हया का शउर समाज के अन्दर से बिलकुल खत्म हो जाएगा इन यहूदियों के साख्ता और पर्दाखता (पोषित) लोगों को नई नस्ल माफ़ नहीं करेगी जो समलैंगिकता की वकालत कर रहे हैं और इसको समाज पर लागू करने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। यह सब कुछ उन लोगों की ख़ुशी के लिए हो रहा है जिनके यहाँ शुद्धता और पवित्रता और शर्म व हया का हर दिन खून होता है। खयानत की इशाअत उनके यहाँ आम है। एक मौके पर पूर्व अमेरिकी सदर बिल क्लिंटन ने कहा था कि जल्द ही हमारी कौम की अक्सरियत हरामजादों पर आधारित होगी बल्कि उनके शब्द थे।
“Wed lock born without any way अर्थात बिना शादी किये हुए हराम बच्चों की पैदाइश” इसी तरह पूर्व राष्ट्रपति बुश ने कहा था कि एशिया को Modernize करना चाहते हैं तो इस उल्लेखित उद्वरण से अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि दोनों सुपर पावर देशों के राष्ट्रपति अश्लीलता और दुसरे शब्दों में हैवानियत के बढ़ावे के लिए कितना संघर्ष कर रहे हैं और इस तरह की एक मिसाल नहीं बल्कि हज़ारों मिसालें मौजूद हैं कि यूरोप वालों ने पश्चिमी सभ्यता के उत्थान के लिए अपनी जान व माल और कीमती संपत्ति खर्च किया और कर रहे हैं।
समलैंगिकता को अदालत ने वैध कर दिया था। हम सभी अदालती फैसलों और कानून का सम्मान करते हैं, लेकिन अगर कोई कानून प्रकृति को चुनौती देता है और खुदा की व्यवस्था में हस्तक्षेप करने की कोशिश करता है, तो वह कानून अब कानून नहीं है, बल्कि एक चुनौती है। और जब एक कानून को खुदा के द्वारा बनाए कानून से श्रेष्ठ समझा जाने लगता है और खुदा के बनाए हुए कानून से जब कोई कानून उंचा समझा जाने लगता है और उसको चुनौती देने की कोशिश करने लगता है तो उस कानून को ना केवल मानने से इनकार किया जाता है बल्कि इसके खिलाफ संघर्ष भी वाजिब हो जाता है। समलैगिकता को अदालत के कुछ जजों ने प्रकृति के कानून और जाब्तों से बगावत कर के कानूनी शकल देदी तो हमारे लिए यह आवश्यक नहीं कि हम अदालत के इस फैसले पर सर झुका दें। वैसे हम अदालत के हर फैसले को मानते हैं और अपने देश के उन सभी नियमों को जिनका संबंध मानव जाति के उन सिद्धांतों से है जो खुद के बनाए हुए निज़ाम से झड़प नहीं करते लेकिन अगर कोई कानून खुदा के कानून से उलझते हैं तो यह खुदा के कानून के खिलाफ सरासर बगावत है। हम इसको किसी भी सूरत में नहीं मान सकते, चूँकि हमारे नज़दीक खुदा के बनाए हुए कानून को चुनौती देना हलाकत और बर्बादी का कारण है वह कौमें इसका मुशाहेदा भी कर चुकी हैं जिन्होंने खुदा के कानून को चैलेंज किया है।
हमें सबसे अधिक अफ़सोस अपनी मौजूदा सरकार पर है कि वह इस गंभीर और कौमी समस्या पर खामोश क्यों है? क्या सरकार उन कुछ लोगों से खौफ खा रही है जो इसकी वकालत कर रहे हैं या फिर दुसरे मामलों की तरह सरकार इसमें भी अपना भविष्य देख रही है, भारत सरकार इस नाज़ुक मसले पर खामोशी से काम ना ले और उन लोगों की सरपरस्ती से अपने दामन को बचाए, क्योंकि यह समस्या केवल समलैंगिकों का नहीं बल्कि पूरी कौम का है। अगर भारत सरकार ने इसके इकदाम के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो हमारा समाज पश्चिमी समाज की तरह कौमे लूत की बस्ती बन जाएगा और सुधार का कोई भी नुस्खा कारगर साबित नहीं होगा। इसलिए सरकार अदालत के इस फैसले को किसी भी स्थिति में प्रतिबंधित करार दे।
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