अहमद जावेद
२९ नवंबर २०२०
पिछले १०० वर्षों से मुसलमान बराए नाम ख़िलाफ़त से भी महरूम हो चुके हैं।शिक्षा व तकनीक हो कि राजनीति व अर्थव्यवस्था, हर स्तर पर मुसलमान दूसरी कौमों के दस्त नगर बन कर रह गए हैं। जीवन के हर क्षेत्र में आज मुसलमान हाकिम के बजाए महकूम और अमीर के बजाए मामूर बन चुके हैं।तागुती अफारियत और सरकश फ्राइना, इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ नफरत व दुश्मनी से भरे पड़े हैं।चराग ए मुस्तफ्वी शरारे बुलह्बी की ज़द पर है।खारजी सतह पर मुसलमानों को कमज़ोर व लाचार और मजबूर व महबूस बल्कि मुनहजिम व मादूम करने की हर कोशिश जारी है। ला दीनी अफकार, पश्चिमी सभ्यता और बेकार के कामों में डूबी हुई है आधुनिक जीवन शैली मुस्लिम बच्चे और बच्चियों के सीनों से मुसलमानियत को खुरच देने के दर पे है। मुसलमानों के अफकार पर ही पहरे नहीं बिठाए गए हैं, विभिन्न देशों में इनका कत्ल ए आम भी जारी है। ऐसे हालात में उन्हें बुलंद आवाज़ से विरोध और फरियाद का भी हक़ नहीं रहा। रुए ज़मीन के कलमा ख्वाँ मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अगर अपने दीन व सकाफत और सियासत व अर्थव्यवस्था के साझा उद्देश्यों के लिए जमा नहीं हुए और इसके बजाए हर फिरका दुसरे फिरके की तकफीर व तजलील में लगा रहा तो उनकी हालत बद से बदतर होती चली जाए गी जिसके बहुत से मज़ाहिर इस वक्त निगाहों के सामने हैं।
गुलू फित्तक्फीर की वजह से मुसलिम युवकों का ज़ेहन खुद अपने दीन व सकाफत के हवाले से परागंदा होने लगा है। स्थिति केवल यह नहीं है मुसलमानों का एक फिरका दुसरे फिरकों की तकफीर करता है बल्कि छोटी छोटी बातों पर एक फिरका के लोग आपस में खुद एक दुसरे की तकफीर में जुटे पड़े हैं।आज कल का मुस्लिम युवा इस स्थिति से परेशान भी और नाराज़ व फरियादी भी है। तकफीर में गुलू की वजह से मुसलमानों का ज़ेहन इस्लाम की दावत से भटक गया है।ज़ाहिर है कि जब उनकी पूरी पूरी जेहनी व फिकरी और इल्मी व अमली कोशिशों का केंद्र तक्फिर व तजलील होगा तो भला वह इस्लाम की तबलीग के लिए फुर्सत ही कब पाएंगे”।
मेरे कानों में जुमे को उस समय डाक्टर जीशान अहमद मिस्बाही की किताब ‘मसला तकफीर व मुतकल्लेमीन’ का यह इक्तिबास गूंज उठा और तब से लगातार एक शोर पुरज़ोर की सूरत दिल व दिमाग को झिंझोड़ रहा है जब देश के मशहूर शिया फकीह, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नायब सद्र, इत्तेहाद ए उम्मत के सक्रीय मुबल्लिग और मुसलमानों की दैनीय स्थिति से बेचैन हो कर खुद को शिक्षा के फरोग के लिए अजीवन वक्फ कर देने वाले आलिम दीन अल्लामा कल्बे सादिक के जनाज़े में सुन्नी मुसलमानों की शिरकत और उनके लिए दुआ ए मगफिरत करने पर देवबंद के एक मौलवी का फतवा आया कि जिन मुसलमानों ने उनकी नमाज़ ए जनाज़ा पढ़ी और उनके लिए दुआ की, वह इस्लाम से खारिज हो गए, उनकी बीवियां उनके निकाह से आज़ाद हो गईं, वह तौबा और तजदीद ए ईमान व तजदीद ए निकाह करें क्योंकि भारत के शिया काफिर व मुर्तद और मुनाफिक हैं, उनकी नमाज़ ए जनाज़ा पढ़ना पढ़ाना जायज नहीं है। यह महज़ एक इत्तेफाक है कि यह किताब शाह सफी एकेडमी, सैयद सरावां, इलाहाबाद ने इसी माह प्रकाशित की है, अभी कुछ ही दिनों पहले लेखक की मेहरबानी से मुझे प्राप्त हुई और मेरे अध्ययन थी। सवा चार सौ पेज की यह किताब फितना ए तक्फीरियत के लगभग सारे पह्लुहों का इहाता करती है, इस किस्म के मुफ्तियों और मुनाजरों से अगर चह उम्मत को कभी किसी खैर की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, फिर भी जी में आया कि काश! देवबंद के इस फतवाबाज़ मौलवी ने इस किताब को पढ़ा होता।यह एक ऐसी किताब है जो इस मसले पर हर मसलक व मशरब के इमामों व फुकहा के अक्वाल का इहाता करती है। मेरी ख्वाहिश है कि इसको हर वह शख्स अवश्य पढ़े जो लोगों के कुफ्र व इस्लाम का फैसला करने में दिलचस्पी रखता है और हर शउर रखने वाले मुसलमान को भी अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि वह इस प्रकार के मुल्लाओं की बातों में आकर अपने दीन व ईमान से आसानी के साथ हाथ से बचा रहे। मैं इस किताब के लेखक से गुजारिश करूंगा कि वह इस किताब की एक कॉपी देवबंद के उस मौलवी के पते पर अवश्य भेज दें। अगर उसने इस मसले में खुद अपने मसलक के बड़े इमामों और फुकहा की किताबों का भी किया होता तो इस मौके यह हरकत कभी ना करता। यह किताब पाठकों की इस मसले में उम्महातुल कुतुब तक रहनुमाई करती है और बकौल डॉक्टर सैयद शमीमुद्दीन मुनअमी कुफ्र साजी के इस माहौल में कि जब पता नहीं ऐसे लोग कब आप ही के ईमान पर हमला आवर हो जाएं मौलाना जीशान अहमद मिस्बाही ने गज़ब का हौसला दिखाया और ईमान खोरों के कफ़स में हाथ दाल दिया। वह इस किताब पर अपनी तकरीज़ में लिखते हैं कि कुरआन करीम का आगाज़ सुरह फ़ातिहा के बाद मोमिन, काफिर और मुफ्सिद (फसादी) की वजाहत से हुआ है। हमने अपने समाज को मोमिन के बजाए काफिर, मुनाफिक, फासिक, गाली, बिदअती और मुशरिक वगैरा से भर दिया है लेकिन एक कुरानी इस्तिलाह फसादी भी है जिस पर गुफ्तुगू इन्का है, ऐसा जानबूझ कर है या अनजाने में, यह तो अपने अपने गिरेबानों में झाँकने से ही पता चलेगा। काश! यह नाम निहाद उलेमा अपने गिरेबानों में झाँकने की ज़हमत करते तो बात बात पर तकफीर व तजलील और शिर्क व बिदअत के फतवे दागते और समाज को फितना व फसाद में मुब्तिला करने का कोई मौक़ा हात से जाने नहीं देते। अब यही देखिये कि कल्बे सादिक आल इंडिया मुस्लिम प्रश्नाल लॉ बोर्ड के नायब सद्र थे क्या बोर्ड वालों ने एक काफिर, मुशरिक, मुर्तद, मुनाफिक को तवील अरसे तक अपना नायब सद्र बनाए रखा? उनकी मगफिरत और दर्जात की बुलंदी की दुआ करने वालों में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदर मौलाना सैयद मोहम्मद राबे हसनी नदवी, जनरल सेक्रेटरी मौलाना मोहम्मद वाली रहमानी, सेक्रेटरी मौलाना ख़ालिद सैफुल्लाह रहमानी और जमात ए इअलामी हिन्द के अमीर और आला जिम्मेदार शामिल हैं, क्या यह सब के सब एक काफिर, मुर्तद और मुनाफिक के लिए दुआ ए मगफिरत करने के मुजरिम हैं, अगर नहीं और बेशक नहीं तो फिर उस मौलवी का फतवा और सोशल मीडिया अपर कुरआन व हदीस के हवाले से लैस इस उसकी बातें कितना बड़ा फितना है?
इस फतवे के अलफ़ाज़ सुनने के बाद मेरे कानों में जिस कुव्वत के साथ ज़ेरे मुताला ‘मसला तकफीर व मुतकल्लेमीन’ का ज़िक्र किया गया इक्तिबास गुंजा उसी शिद्दत से अल्लामा कल्बे सादिक लखनऊ की याद आई जिन से देहली और लखनऊ में दो तीन मुलाकातों का शरफ यह नाचीज भी रखता था।उनमें से हर एक मुलाक़ात में खुद मैंने या किसी और ने जब उनसे किसी राजनीतिक विषय पर कुछ भी पूछा तो उन्होंने एक ही बात कही कि वह अपने आपको अजीवन शिक्षा के बढ़ावे और उम्मत के बच्चों की खिदमत के लिए वक्फ कर दिया है इसलिए वह अब ऐसे किसी मसले में कोई गुफ्तगू नहीं करेंगे जिनका हासिल फितना व फसाद के सिवा कुछ भी नहीं है। काश! हम उनके इस इसार से कुछ रौशनी लेते और कल्बे सादिक ने लखनऊ में जो शैक्षणिक संस्थान स्थापित किये और उनको जिस आला मेयार के साथ चला कर दिखाया, उससे कुछ सबक लेते। (जारी)
२९ नवम्बर २०२०, बशुक्रिया: इंक़लाब, नई दिल्ली
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