डॉक्टर असरार अहमद
कुरआन की दृष्टि से फसाद क्या है? फसाद फिल अर्ज़ क्या है? फसाद फिल अर्ज़ यह है कि यह ज़मीन अल्लाह की है। अल्लाह ही इसका हाकिमे हकीकी है। अल्लाह ही की मर्ज़ी के मुताबिक़ यहाँ इंसान को ज़िन्दगी गुजारनी चाहिए। यह है असल में हक़। यह है अमन। इसके खिलाफ जो रविश भी है वह फसाद है। वह बगावत है। एक शख्स जो खुद बादशाह बन कर बैठ गया है अपनी मर्जी का मालिक। एक शख्स जो अपनी मर्जी का मालिक है वह भी गोया कि खुदाई का दावा कर रहा है। वह जो कहा मौलाना रूम ने कि: “नफ्से माहम कमतर अज फिरऔन नेस्त आं कि उराउन माराउन नेस्त “अर्थात नफ्स भी किसी फिरऔन से कम नहीं है। वह खुदाई का मुद्दई है कि यह वजूद मेरा है और इस पर मेरी मर्ज़ी चलेगी। मुझे यह चीज पसंद है। मैं नहीं जानता कि सहीह है या गलत है, जायज है या नाजायज है, मुझे इससे कोई संबंध नहीं। मुझे यह चीज मिलनी चाहिए। मेरी तलब है। यह मतलूब है मेरी।
तो “नफ्से माहम कमतर अज़ फिरऔन नेस्त इसलिए कि “उराउन मा राउन” अर्थात फिरऔन के पास उन थी, मदद थी, लश्कर था। उसने जुबान से भी दावा कर दिया कि “अना रब्बुकुमुल आला” (अर्थात मैं तुम्हारा सबसे बड़ा रब हूँ)।
मैं फकीर हूँ, गरीब हूँ, दरवेश हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है।जुबान से तो कुछ नहीं कहता लेकिन मेरा नफ्स अन्दर यही दावा कर रहा है कि “नफ्से माहम कमतर अज़ फिरऔन नेस्त”। तो असल में यही फसाद है। व्यक्तिगत स्तर पर फसाद यह है कि अल्लाह की बंदगी की बजाए अपने नफ्स की बंदगी की जाए, समाज की बंदगी की जाए। ज़माने के चलन की पैरवी की जाए। चलो तुम हवा हो जिधर की। चाहे आप बजाहिर कितने ही अमन में हैं। हकीकत में फसाद है आपकी ज़िन्दगी में।
इसी तरह एक समाज है। बगावत पर आधारित है वह समाज। इसको इस प्रकार समझिये कि जैसे डाकुओं का कोई अड्डा हो। डाकू एक दुसरे को कुछ नहीं कहते। खुद वह डाके तो डालते हैं बाहर जाकर----अपने इस अड्डे में वह शांतिपूर्ण है। लेकिन इसको फसाद ही कहा जाएगा। फसाद का गढ़ है। फसाद की बुनियाद और जड़ है। ना यह कि अमन है।
अगर सांप बहुत से हों किसी जगह पर, और बिच्छु हों। और वह एक दुसरे को डस ना रहे हों। तो इसका मतलब यह है कि यहाँ अमन है। हकीकत में तो उनकी फितरत के अन्दर फसाद मौजूद है।
तो असल में कुरआन मजीद की इस्तेलाह में असल अमन क्या है? अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ इस दुनिया का निज़ाम इन्फेरादी और इज्तिमाई दोनों सतहों पर चलाया जाए। इसके खिलाफ जो रविश है चाहे वह कितना ही शांतिपूर्ण समाज नज़र आता हो। अमेरीका का मुआशरा नज़र आता हो कि साहब बड़ा अमन है वहाँ। वहाँ बड़े लोग सभ्य हैं। और लोग बहुत ही खुश अख़लाक़ हैं। एक दुसरे का बड़ा पास व लिहाज़ करने वाले हैं लेकिन जिन्हें यह मालुम है कि किस तरीके से पुरी दुनिया की एक्सप्लोइटेशन, लोगों की मेहनत और मजदूरी से कमाई हुई दौलत किस तरह से खींच रहा है अमेरीका। खून चूस रहा है। यह पूरा इस्तेमार-----उन्हें मालुम है कि असल में यह तो डाकू हैं। यह एम्प्रिलिज्म -----यह तो डाका है। पुरी इंसानियत के उपर डाका डाला जा रहा है। चाहे अपने यहाँ यह डाकुओं का अड्डा है जिसमें कि उन्होंने अमन फराहम कर रखा है।
तो फसाद और अमन की इस हकीकत को समझिये। अब अगर कहीं फसाद है अर्थात अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ नहीं, अल्लाह के खिलाफ बगावत है। चाहे वहाँ बड़ा अमन है। मक्का में बड़ा अमन था। जो भी ज़ुल्म हो रहे थे वह गुलामों के उपर हो रहे थे वह भी सह रहे थे बेचारे, कोई चीख पुकार नहीं थी। बड़ा अमन था। लेकिन निज़ाम गलत है। यह फासिद निज़ाम है। मुफ्सिदाना निज़ाम है। इसको बदलने के लिए “मोहम्मद रसूलुल्लाह अब प्रयासरत हैं। (४८:२९) अल्लाहु वल्लजीना माअहु
एक पैदा हुआ है तसादुम माहौल के अंदर। उसी का अगला मरहला है जो मदनी दौर में आया। जिसमें अब जंग भी है। “कातिलू फी सबीलिल्लाह अल्लज़ीना युकातिलूनकुम”। (सुरह बकरा: १९०)
तो असल में इस फसाद को खत्म करने के लिए चाहे बज़ाहिर यहाँ जंग की जा रही है। खूंरेजी कि जा रही है। लेकिन यह अमन है। और वह लोग जो कहते हैं नहीं लड़ो भिड़ो नहीं। अमन से रहो। चलो मान लो बातिल को भी मान लो। कुछ तुम उनकी मानो और कुछ अपनी मनवा लो, बजाए इसके कि यह जो संघर्ष कर रहे हो उसमें अपना भी नुक्सान कर रहे हो। अपना भी तन मन धन। अपनी भी कुरबानीयाँ। अपने लिए भी समस्या। अपने लिए भी मुश्किलात। और दूसरों का भी बहर हाल खून गिर रहा है। खूंरेजी हो रही है। इसके बजाए, इस सबको छोड़ो, और अमन की कैफियत इख्तियार करो। यह फसाद है असल में। इस संघर्ष को सबोटाज़ करना जो इस बगावत फिल अर्ज़ है अल्लाह पाक के खिलाफ। उसको रफा करने के लिए अल्लाह के वफादार बंदे एक जमात, एक जमीयत की शक्ल में खड़े हो जाएं। बातिल के साथ नबर्द आज़मा होने के लिए। तो जो कोई अब इस रास्ते में रुकावट बनेगा। चाहे वह सुलह के नाम पर हो। चाहे वह सुलह कुल होने के एतिबार से हो। चाहे वह कहा जा रहा हो कि लड़ना भिड़ना क्या है। सहिष्णुता होनी चाहिए। बड़े खुशनुमा उनवानात हों। लेकिन हकीकत में यह फसाद है।
यहाँ वह किरदार सामने ले आइये, मुनाफिकीन का किरदार। असल में तो जान व माल अज़ीज़ थे। मैदान में आने के लिए तैयार नहीं थे। रिश्ते बड़े अज़ीज़ थे.....रिश्तों पर आंच जो है वह गवारा नहीं थी। और यह जो हक़ की तलवार आई थी वह रिश्ता काट रही थी। बाप से बेटा जुदा हो रहा है। भाई भाई से जुदा हो रहा है। इस एतिबार से जब वह उसके खिलाफ कोशिश करते थे। और मोमिनीन सादेकीन उनसे कहते थे, “व इज़ा कीललहुम ला तुफ्सिदु फिल अर्ज़” (सुरह अल बकरा, आयत नम्बर १२) गौर कीजिये यह फसाद कौन सा है। मत फसाद मचाओ ज़मीन में। वह फसाद यह है कि इस्लाह फिल अर्ज़ की जो कोशिश हो रही है उसको सेबोटाईज़ ना करो। साथ दो। जिस तरह से कि मोमिनीन सादेकीन साथ दे रहे हैं मोहम्मद का (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ।
जब तुम भी कहते हो कि हम तौहीद को मानते हैं। आखिरत को भी मानते हैं। तो तौरात की तस्दीक करते हुए यह कुरआन आया है इसको भी मानों। और दस्त व बाजू बनों। वह हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पुकार “मन अंसारी इलल्लाह”। तो सबके सब अब मददगार बनों। ताकि यह अल्लाह के खिलाफ जो बगावत है ज़मीन में यह दूर हो। और अल्लाह का निज़ाम कायम हो। अल्लाह की हुकूमत कायम हो। उसके रास्ते में रुकावटें डालना। “मोहम्मद रसूलुल्लाह की जद्दो जेहद को सेबुटाईज करने की कोशिश है। जिसको कुरआन यहाँ कह रहा है कि यह फसाद फिल अर्ज़ है। और वह जो कह रहे हैं कि हम तो मुसलेह हैं। हम तो चाहते हैं कि यह लड़ाई भिड़ाई नहीं होनी चाहिए। यह फ़ालतू की खूंरेजी नहीं होनी चाहिए। यह इस तरीके से कट जाना भी जरूरी है। ठीक है सहिष्णुता होनी चाहिए। उनकी बात भी ठीक है। वह अपनी जगह पर खुश। बात जो है ज़रा मीठे अंदाज़ में केवल की जानी चाहिए। बजाए इसके यह कड़वा अंदाज़ इख्तियार किया जाए। बजाए इसके कि कटने और जुड़ने का अमल किया जाए। इसकी बाजए मसलेहत की रविश इख्तियार की जाए।
जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि वलीद बिन मुगिरा का किरदार मक्की दौर में यही था। और यहाँ मदीने में आकर यहूद का और फिर मुनाफेकीन का उनके ज़ेरे असर किरदार यही था। इसलिए कहा गया: “व इज़ा कीललहुम ला तुफ्सिदू फिल अर्ज़ (सुरह बकरा, आयत ११, १२) से मुराद मुखालिफत अल्लाह के रसूल और उनके साथियों की। उनकी मुखालिफत करने की बजाए उनके दस्त व बाजू बनों। उनका साथ दो। “कालू” वह यह कहते: “इन्नमा नहनु मुस्लिहून”। देखो भाई हम तो चाहते हैं कि भाईचारे की फिज़ा बरकरार रहे। यह झड़प ना हो। यह कशाकश ना हो। यह खूंरेजी ना हो। यह ख्वाह मख्वाह का जो है। एक दुसरे से कट जाना अच्छा नहीं है। “अला इन्नहुम हुमुल मुफ्सिदून” (सुरह बकरा)। अब जो मैंने वजाहत की है फसाद की वह डेफिनेशन और अमन की वह डेफिनेशन अगर आयत ११,१२ में सामने हो तो अब यह एक एक हर्फ इसका उभर कर आएगा। उजागर होगा। “अला इन्नहुम हुमुल मुफ्सिदून वला किल्ला यशउरून” (सुरह बकरा, आयत ११,१२) उन्हें पता नहीं है। हकीकत उनके सामने स्पष्ट नहीं है। यह देख रहे हैं। शॉर्ट साइटेड हैं। यह केवल इस वक्त देख रहे हैं कि कोई तकलीफ ना आ जाए। कोई मुसीबत ना आजाए। कोई झगड़ा ना हो। कोई एक दुसरे के मुखालिफ सफ आरा होने की पोज़ीशन में ना हो जाए। एक दुसरे से कट ना जाए। बल्की यह कि सुलह कुल और रवादारी के अंदाज़ में समाज के अन्दर हम मिल जुल कर रहें। हकीकत में यह फसाद है। इसलिए कि यह जो फसाद को रफा करने की संघर्ष हो रही है उसका साथ देना है। यह जरूरी है। लेकिन उन्हें इसका शऊर नहीं है।
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English
Article: The Orwellian World of Islamic Scholars: ‘According
To Quran, Peace In Non-Islamic Societies Is War And War To Destroy These
Societies Is Peace’
URL
for Urdu article: https://www.newageislam.com/urdu-section/dr-israr-ahmad/war-and-peace-in-quranic-terminology--امن-اور-فساد-فی-الارض-قرآن-کی-اصطلاح-میں/d/124587
URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/war-peace-quranic-terminology-/d/124680
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