हफीज नोमानी
23 मई, 2017
सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक पर चर्चा समाप्त हो गई और अदालत ने फैसला सुरक्षित रख लिया यानी निर्णय अब आराम से किसी समय सुना दिया जाएगा। पूरी कार्रवाई से अनुमान होता है कि बात निकाहनामा पर आकर रुक गई है। शीर्ष अदालत ने बोर्ड से पता किया है कि क्या वह काज़ियों को बाध्य कर सकता है कि वह निकाहनामा में यह शर्त शामिल कर लें कि तीन तलाक का स्वीकार करना न करना लड़की के विकल्प में हो। यानी उसकी राय को भी शामिल किया जाए?
हमें मुकदमा की कार्रवाई से हटकर कुछ बातें निवेदित करना हैं। इस्लाम में निकाह के लिए प्रामाणिक और पंजीकृत काजी और निकाहनामा शर्त नहीं है। हमारे पिता मौलाना मोहम्मद मंजूर नोमानी बेशक बहुत बड़े आलिम थे। लेकिन वह न काजी थे न मुफ्ती थे। हमारा निकाह उन्होंने इस तरह पढ़ाया कि संभल की एक मस्जिद में शुक्रवार की नमाज के बाद उन्होंने ही घोषणा कर दी कि नमाज़ के बाद आप हज़रात तशरीफ रखें मेरे दो बेटों का निकाह है और मुझे आप से कुछ बातें भी करना हैं।
नमाज़ अदा करने के बाद उन्होंने निकाह पढ़ाया दुआ कराई और ज़कात और व्यापार में खरीदने और बेचने के तौल अलग अलग रखने के विषय पर तकरीर की। हमारे मुहल्ले में देवबंदी मसलक का एक मदरसा मदीनतुल उलूम है इसमें एक रजिस्टर रहता है जिसके तीन पन्ने होते हैं उसे भरकर एक लड़का को एक लड़की को और एक मदरसा में रहता है उस पर शादी की तारीख काजी का नाम मुहर गवाह और वकील का नाम दर्ज होता है और हमारे निकाह के वक्त वह भी नहीं था।
शादी जिस घर में होता है इसमें कुछ लोग होते हैं जो विवाह कराते रहते हैं और ऐसे भी होते हैं जिन्हें कोई अनुभव नहीं होता कि निकाहनामा लड़के वाला लाएगा या लड़की वाले मंगवाएंगे। और बोर्ड को बने हुए 40 साल हो गए और निकाहनामा का भी बार बार उल्लेख आया और निकाहनामा तैयार किया भी गया लेकिन इसका यह महत्व है कि अगर वह निकाहनामा नहीं तो निकाह नहीं। उस पर अमल न हुआ है न हो सकता है। और यह केवल उस समय ही हो सकता है कि जबकि प्रत्येक शहर में कम से कम 50 काजी हों और निकाहनामा केवल उनके पास हो जो स्थिति सरकारी कागज की हो और उनकी फीस निर्धारित हो और वह काजी अपने कार्यालय में निकाह पढ़ाएं।
हम अपने दोस्तों के बच्चों की शादी में बार बार शरीक हुए हैं उनके यहाँ यह नहीं है कि कोई भी हिंदू शादी करा दे। उनकी शादी में हर काम के अलग जिम्मेदार होते हैं। इसके बाद यह समस्या उत्पन्न होगा कि काजी के लिए कहां प्रशिक्षण दिया जाए और फीस क्या हो?इस समय तो दीनदार मुसलमान यह चाहते हैं कि वह जिसे अपना पीर या बड़ा आलिम मानते हैं वह निकाह पढ़ा दे। कुछ मस्जिदों के इमाम भी निकाह का रजिस्टर रखते हैं और यह भी जरूरी नहीं कि अदालत सरकार और बोर्ड जिन बातों पर सहमत हो जाएं उन्हें सब मान लें?मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में दो बड़े शिया विद्वान हैं लेकिन शिया पर्सनल लॉ बोर्ड बिल्कुल अलग है। सुन्नियों में बरेलवी आलिम भी हैं लेकिन न जाने कितने हैं जो बोर्ड को नहीं मानते। न जाने कितने आरिफ मोहम्मद खान जैसे हैं जिन्होंने कुरआन में ''अत्तलाकू मर्र्तान ''पढ़ लिया है वह बगल में दबाए घूमते हैं और कहते हैं कुरआन में दो बार तलाक हैं। कुछ पत्रकार हैं जिनका कहना है कि उन्होंने सूरह तलाक का अनुवाद पढ़ा है। जमीअत उलेमा आधी बोर्ड में शामिल है आधी बहर है।
समस्या यह है कि यह जो कुछ भी हो रहा है केवल उन कुछ लोगों के लिए हो रहा है जो जब शादी करते हैं तो उनसे अच्छा उस समय कोई नहीं होता और जब ज़रासी बात पर तलाक दे देते हैं तो उनसे बुरा कोई नहीं होता। सरकार और अदालत जो कुछ करना चाह रही हैं उसकी स्थिति स्वस्थ के लिए परहेज़ की है और सब जानते हैं कि स्वस्थ को चाहे जिस तरह बताया जाए कि यदि ऐसा खाना और ऐसा पानी पियोगे तो बीमार हो जाओ गे लेकिन यह कोई नहीं मानेगा। और खुदा न करे बीमार पड़ गए तो हर परहेज़ और हर दवा खा ली जाएगी।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस पर तैयार है कि वह काज़ियों को निर्देश जारी करे। लेकिन काजी कौन है? हमारे एक रिश्ते के भतीजे हैं वह नदवी हैं एक दिन अचानक पता चला कि वह अमुक का निकाह पढ़ाने गए हैं और बाद में मालूम हुआ कि एक तीन पन्नों वाला रजिस्टर उन्होंने छिपवा लिया और अंगूठा लगाने का पैड भी उनके पास रहता है लीजिए वह काजी हो गए।
करोड़ों मुसलमान गांव में हैं वहाँ सबसे बड़े काजी इमाम हैं दूर गांव में मस्जिद नहीं है तो दूसरे गांव से बुलाए जाते हैं। एक प्रिय का निकाह एक छोटे कस्बे में होना था अपने ही एक प्रिय जो आलिम भी थे और हदीस के शिक्षक थे वे साथ थे उन्होंने निकाह पढ़ाया। वहाँ मस्जिद के इमाम ने निकाह के बाद विरोध किया कि हमारे गांव में हमारे होते कौन निकाह पढ़ा सकता है? उन्हें जब 50 रुपये दिए तो वे चुप हुए। इन पंक्तियों का उद्देश्य केवल यह है कि भारत में एक देश की आबादी से अधिक मुसलमान हैं उन्हें सैकड़ों साल तक स्वतंत्र रखने के बाद अब बाध्य करने की कोशिश क्या सफल हो जाएगी। या मौजूदा समस्याओं से अधिक बड़े समस्याएं पैदा हो जाएंगे?एक शिया पर्सनल लॉ बोर्ड है एक शाइस्ता अम्बर बोर्ड है सायरा बानो के वकील और सलमान खुर्शीद ने तलाक को पाप करार दे दिया और अदालत के फैसले और बोर्ड के स्वीकार करने के बाद क्या होगा। ऐसा न हो कि यह कहना पड़े।
हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम गुलिस्ताँ क्या होगा
हमनें जिन हिंदू भाइयों का उल्लेख किया वह उच्च वर्ग और औसत वर्ग के हिंदू थे और जो निचला तबका है इसमें ऐसे ऐसे तरीके हैं जिन्हें तरीका भी नहीं कहा जा सकता और उन्हें लिखना उचित नहीं है। लेकिन मुसलमानों में उच्च हो, औसत हो या निम्न हो वह निकाह ही कराएगा चाहे जो पढ़ाए और जैसा पढ़ाए? और अलगाव भी तलाक से ही होगा चाहे इसका प्रारूप कुछ भी हो। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को सौ फीसदी मुसलमानों का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता और अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उसके विरोधियों की संख्या भी बढ़ जाएगी। अल्लाह करे कि बात बनने के बजाय और अधिक न बिगड़ जाए। इसलिए कि:
बकौल अल्लामा शिबली:
'मुसलमानों में इमाम अधिक हैं मुक़तदी कम'।
23 मई, 2017 स्रोत: रोज़नामा मेरा वतन, नई दिल्ली
URL for Urdu article: https://www.newageislam.com/urdu-section/but-quazi-/d/111256
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