मुहम्मद हुसैन शेरानी, न्यू एज इस्लाम
26 अगस्त, 2021
पसमांदा, एक फ़ारसी शब्द है जो किसी के पीछे रह जाने के लिए उपयोग होता है। और शुद्र (पसमांदा) और शुद्र विरोधी (दलित) दरजात से संबंध रखने वाले मुसलमानों की तरफ इशारा करता है। पिछड़े को अशरफुल मुस्लेमीन (उच्च वर्ग) के विरोधी किरदार के तौर पर ज़ाहिर किया गया था। मुसलमानों में ज़ात पात की तहरीकों के एतेहासिक पृष्ठभूमि को बीसवीं सदी के दुसरे दशक में मोमिन आंदोलन के आरम्भ के बाद से देखा जा सकता है। यह (1990 का दशक) है जिसने इसे जीवन का नया मोड़ लेते देखा। उस दशक में बिहार में दो सबसे आगे के संगठनों का विकास देखा गया जिसमें एजाज़ अली की तरफ से चलाई जाने वाली “आल इण्डिया संयुक्त मुस्लिम मोर्चा (1993)” और दूसरी अली नवाज़ की “आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ (1998)” और बहुत सी दूसरी संगठनों की तरफ से चलाई जाने वाली तहरीकें शामिल हैं। जबकि पसमांदा फ़ारसी का शब्द है जो असल अर्थ में वह लोग जो पीछे रह गए हैं, परेशानकुन या जिन पर ज़्यादती की गई हो। साधारण तौर पर देखा जाए तो यहाँ पसमांदा शब्द दलित और पिछड़े मुसलमानों की तरफ इशारा करता है जो मुस्लिम आबादी का लगभग 85 प्रतिशत है और भारत की लगभग 10 प्रतिशत आबादी है।
इस तथ्य के बावजूद कि इस्लाम जाति के नाम पर किसी भी भेदभाव का समर्थन नहीं करता है, दक्षिण एशिया में मुस्लिम समुदाय इसके विपरीत है। यह कुछ भी है मगर तटस्थ (अशरफ वर्ग) और भारतीय धर्मान्तरित (अज़लफ़) के धार्मिक अलगाव का परिणाम है। सामुदायिक ढांचा पाकिस्तानी समाज में किसी के समुदाय का बेहतर प्रतिनिधित्व करने का एक तरीका है, और कुछ हद तक भारत में भी यही हाल है। हालांकि, इस्लाम किसी भी परिस्थिति में किसी भी वर्ग को स्वीकार नहीं करता है। वह मुसलमान जो बारहवीं शताब्दी की मुस्लिम विजय के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में आए थे उस समय सामाजिक वर्ग अलग थे। इसके अलावा, नस्लीय अलगाव ने स्थानीय मुस्लिम समुदायों को विदेशी लोगों से अलग कर दिया। बाहरी लोगों ने एक महत्वपूर्ण स्थिति का दावा किया क्योंकि वे विजेताओं में से थे, और खुद को महान (अशरफ) मानते थे।
दिल्ली साम्राज्य के चौदहवीं शताब्दी के राजनीतिक मास्टरमाइंड ज़िया-उद-दीन बर्नी ने सुझाव दिया कि अशरफ़ वर्ग के वंशजों को अज़लफ़ से अधिक समाज में सम्मान का स्थान दिया जाना चाहिए। जैसा कि बर्नी ने बताया, "बदसूरत, दागी या अपमानित" माना जाने वाला प्रत्येक कार्य निम्न वर्ग का है। सामान्य तौर पर, जुलाहा से संबंधित कई मुसलमानों को अंसारी, कसाई और कुरैशी के नाम से जाना जाने लगा।
पटना के एक ओबीसी मुस्लिम अली अनवर ने उच्च वर्ग के मुसलमानों (अशरफ) द्वारा अपने खिलाफ कई पूर्वाग्रहों से लड़ने के लिए "पसमांदा मुस्लिम मोर्चा" संगठन की स्थापना की। "पसमांदा मुस्लिम मोर्चा" पिछड़े मुसलमानों के बढ़ते उत्पीड़न के बाद अस्तित्व में आया। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल राज्यों में दलित मुसलमानों ने यह साबित करने की कोशिश की कि भारतीय मुसलमान एक संप्रदाय के अलावा और कुछ नहीं हैं। यही वह बहस है जिसने अशरफ (उच्च वर्ग के मुसलमानों) और पिछड़े (पिछड़े और दलित मुसलमानों का एक संयोजन) के बीच योग्यता पर मुसलमानों के बीच बहस को हवा दी है। एक अध्ययन से पता चलता है कि मुसलमानों के खिलाफ अब तक की सबसे बड़ी सांप्रदायिक हिंसा पिछड़े मुसलमानों के खिलाफ रही है।
कई अध्ययनों से पता चला है कि भारतीय मुसलमान एक समुदाय नहीं हैं। हिंदुओं की तरह, भारतीय मुसलमान अशरफ (आला मुस्लिम), अजलफ (पिछड़े मुस्लिम) और अरज़ल (दलित मुस्लिम) सहित पदों पर हैं। पिछड़ा आंदोलन भारतीय मुस्लिम समूह की विभिन्न विशेषताओं पर जोर देता रहा है। यह इस्लाम के मूल सिद्धांतों और मूल इस्लाम को बनाए रखने वाले भारतीय मुसलमानों की प्रथाओं के बीच अंतर करता है।पिछड़ा वर्ग सामाजिक समानता की वकालत करता है और जातिगत पूर्वाग्रह के खिलाफ खड़ा होता है। यहाँ तक कि अशरफ के बीच अंतर्जातीय विवाह का एक मामूल है।
पसमांदा से संबंधित रीसर्च से पता चला कि अधिकतर वह जातें जो पिछड़ों की श्रेणी में आती हैं उनकी नौकरियां ख़त्म हो गई (जैसे बुनाई से संबंधित) कई वर्षों में तकनीक और मशीनरी के परिचय के कारण वह एक जगह से दूसरी जगह हिजरत करने पर मजबूर हैं और उनकी माली हैसियत के कारण शिक्षा का खर्च उठाना कठिन है जिसे पिछड़े बर्दाश्त नहीं कर सकते। पुरी पिछड़ी बिरादरी की बका के लिए पसमांदा तहरीक को बुलंद करना पहली आवश्यकता है।
Urdu Article: Backward Muslims Have the Right to Reservation مسلم سماج میں پسماندہ طبقہ
ریزرویشن کا اصل وارث و حقدار
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