New Age Islam
Thu Mar 20 2025, 07:54 PM

Hindi Section ( 14 March 2023, NewAgeIslam.Com)

Comment | Comment

Can Anyone Unite Hindus And Muslims? कोई है हिंदू मुस्लिम के दरमियान इत्तेहाद पैदा कर दे

मुहम्मद अलामुल्लाह, दिल्ली

13 मार्च 2023

मुल्क में हालात तेजी के साथ बदल रहे हैं, एक मसला खत्म नहीं होता कि दूसरा जन्म ले लेता है और अमीबा की तरह तेजी से फैलता जाता है। गुजरते चंद दहाइयों में ऐसा लगने लगा था कि तक़सीम हिंद की दर्दनाक यादें आम जनता की याददाश्त से खत्म हो चली हैं और अब मुल्क में नफ़रत का वह माहौल नहीं रहा कि लोग एक दूसरे के वजूद को खत्म करने के दरपये हो जाएँ। समाज के कमजोर तबक़ों के ख़िलाफ़ तासुबों का इज़हार ज़रूर होता रहा और उनके साथ इम्तियाज़ी सुलूक भी रवा रखा जाता रहा था ताहम ऐसा नहीं था कि मनाफ़रत पर मब्नी सोच और फ़िक्र का ज़हर पूरे समाज में पूरी तरह सरायत कर गया हो, बस इतना ही कहा जा सकता है कि समाज का छोटा सा हिस्सा ही नफ़रत के इस ज़हर से मतभेद़ में आ गया था। लेकिन अब जब हम इकीसवीं सदी में जी रहे हैं और मुल्क को विश्व चैंपियन बनाने के चर्चे रात दिन हो रहे हैं, इस तरह से, आज के समय में अहले वतन के बीच सामाजिक संबंधों और समझौतों में गाली जैसे शब्दकों और नफ़रत पर आधारित नए वाक्यांशों का उपयोग किया जा रहा है। अब ऐसा लगता है कि भारत के विशेष माहौल में बोले जाने वाले वक्ताओं ने असीमित तीखे तेवरों के साथ वापसी की है।

आजादी के पच्छत्तर सालों बाद इन दिनों न जाने क्यों आधुनिक हिंदुस्तान के वो मेअमार बहुत याद आते हैं जिन्होंने तक़सीम हिन्द और आज़ादी के बाद मुल्क में अमन व अमान पैदा करने के लिए और ख़ासकर हिंदुस्तानी मुस्लिमों के हालात को बेहतर बनाने के लिए अनथक मेहनत की, मिल्लत के सियासी व सामाजिक इदारों में सेक्युलरिज़्म और लिबरलिजम के रंग भरने के लिए अपनी बिसात से बढ़कर कोशिश की और इंसानी और सामाजिक रिश्तों में जान डालने के लिए अपनी सारी ताक़तें समर्पित की। डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने अपनी आख़िरी साँस तक अपने इस शाहकार और इतिहासी दस्तावेज़ को सीने से लगाए रखा जो आइन-ए-हिन्दकहलाता है और जिसकी बदौलत बिला तफरीक जिंस और नस्ल हर हिंदुस्तानी के लिए उसके बुनियादी इंसानी और शहरी हक़ूक़ की हिफ़ाज़त को यक़ीनी बनाया जा सका। उस समय गांधी, नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, अज़ाद और पटेल जैसे व्यक्तित्व थे जिनके पास देश में सामाजिक संबंधों को स्थापित रखने और सभी समूहों और जातियों को साथ लेकर चलने का हौसला था और नया विचार भी था। उनकी नज़र और दिल दोनों बड़े थे। हालांकि, इस समय यह काम उनके लिए बेहद मुश्किल रहा होगा जब एक नया देश बना हो, विभाजन का घाव मिला हो और हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के बीच रिश्ते टूट चुके हों। निश्चित रूप से ऐसे हालात में सद्भाव बनाए रखने वाले किसी परियोजना पर काम करना आसान नहीं था, लेकिन यह तो उन्हीं का संविधान था जिन्होंने यकीनन टूट चुके रिश्तों के बीच पुल का काम कर के दिखा दिया था। मगर हमारी सदी में अब न तो मुखतलिफ़ क़ौमों, ज़बानों और अक़ीदों के दरमियाँ पुल बनाने वाले व्यक्तित्व हैं और न ही टूटे हुए पुलों को जोड़ने वाली शख़्सियतें। ऐसे नाज़ुक वक़्त में एक बार फिर उन ही मुअम्मरान-ए-अव्वल की याद आना फ़ित्री बात है, ख़ास कर उन लोगों के लिए जो सद्क़ दिल से यह चाहते हैं कि मुल्क में अमन-व-अमान और अमन बाक़ाए बाहमी का झंडा हमेशा बुलंद रहे।

एक बार फिर देश में बंटवारे के समय का वही घुटन भरा माहौल पूरी शिद्दत के साथ लौट आया है। अब आलम यह है कि देश के अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों का वजूद बहुसंख्यक वर्ग की नजरों में और सत्ताधारियों की नजरों में खटकने लगा है, वे सिर्फ उन पर अपनी बालादस्ती ही नहीं चाहते बल्कि इस से बहुत आगे जाकर उन्हें मूल मानवीय अधिकारों से ही महरूम कर देना चाहते हैं। अल्पसंख्यकों के प्रति दिन-प्रतिदिन बढ़ती नफरत की पराकाष्ठा यह है कि देश में सभी अल्पसंख्यकों के प्रति, उनकी भाषा, संस्कृति, परंपराओं और यहां तक कि उनकी पूजा-पद्धति तक के प्रति घृणा और द्वेष चरम सीमा पर पहुंच गया है। थोड़ा-थोड़ा करके सब कुछ बदल गया है। अब वे लोग भी जिनके लिए संप्रदायवाद विद्वत्तापूर्ण बहस का विषय मात्र था; आज वे भी इस डर के साए में जी रहे हैं कि सुबह जब घर से निकलते हैं तो उन्हें यकीन नहीं होता कि शाम तक सही सलामत अपने घर लौट पाएंगे, उन्हें अपनी जान-माल की सुरक्षा की भी चिंता सता रही है। कौन कब और कहां किस मुसीबत में फंस जाए पता नहीं। सार्वजनिक स्थानों पर चलते समय, ट्रेनों और बसों में यात्रा करते समय अत्यंत सावधान और सतर्क रहना आवश्यक हो गया है।

मौजूदा समय में देश में मुसलमानों की छवि को बदलना मुश्किल लगता है, लेकिन नामुमकिन नहीं है। मुसलमानों को अपनी राजनीतिक और सामाजिक चेतना को जगाना और मजबूत करना होगा। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मुसलमानों के पास शायद ही कोई दूसरा या बेहतर विकल्प होगा। मुसलमानों को यह समझना होगा कि संप्रदायवाद एक विशिष्ट समूह पर लिखा, निर्मित और नियमित रूप से लक्षित होता है। साम्प्रदायिक दंगे, चाहे छोटे हों या बड़े, बहुत पहले से सोच-समझ कर रचे जाते हैं और कौम के प्रति घृणा का माहौल पैदा करते हैं, उन पर देशद्रोही का ठप्पा लगा दिया जाता है और अंततः हर तरह से देश की अखंडता पर खतरा माना जाता है। यह इतना खतरनाक खेल है कि इसके बाद किसी भी वर्ग को तबाह करने में न तो ज्यादा समय लगता है और न ही कठिनाई। इसमें बहुत अधिक संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती है और विपिन चंद्रा के अनुसार इस मामले में चाहे कांग्रेस सरकार हो या भाजपा सरकार, दोनों ने मुसलमानों को बराबर नुकसान पहुंचाया है, इसलिए सांप्रदायिक दंगे इन दोनों सरकारों की जिम्मेदारी और संरक्षण में होते रहे हैं।

आज नौबत यहाँ तक आ पहुँचा है कि बहुत से गैरमुस्लिमों के लिए शब्द 'मुस्लिम' एक अजनबी चीज़ हो गई है। मुसलमान नाम सुनते ही उनके ज़ेहन में किसी कम तर, अलग, कदामत पसंद और दहशत फैलाने वाले व्यक्ति की शकल उभर आती है। उन्होंने इस नाम को बदशगून समझ लिया है गोया अगर इस नाम और पहचान वाला कोई व्यक्ति उनके आस पास रह रहा है तो वह यक़ीनन उनको नुक़सान पहुँचाएगा या इसकी पुरी उम्मीद है। मज़े की बात यह भी है कि भले ही उनका ज़िंदगी भर का तजुर्बा इस से मुख्तलिफ ही क्यों न हो, मगर वो अफ़वाहों पर ही यक़ीन करेंगे और एक मुसलमान के बारे में ग़लत राय क़ायम कर लेंगे, फिर वो इस बात को भी नज़र अंदाज़ कर देंगे कि हिंदुस्तान की खूबसूरती मुख्तलिफ और अलग-अलग जातियों, भाषाओं, सभ्यताओं और मजहबों और अकीदों के कारण ही है। इस मुल्क की तामीर में तमाम तबक़ों और कौमों का खून शामिल रहा है और वह खून हिन्दुस्तानी ही है।

आजकल एक नई प्रथा शुरू की जा रही है कि अगर देश में कोई समस्या हो या कोई नुकसान हो तो उसका इलज़ाम मुस्लिमों पर लगा दिया जाए। यह दो धारी तलवार है जो दोनों काम कर जाते हैं। एक जाति और निराशा में चली जाती है और दूसरी तरफ सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से बरी हो जाती है। ज़िम्मेदारियों से भागने और पहलूतही करने का इससे बेहतर बहाना कोई नहीं हो सकता। यह अजीब रीति है और अजीब विडंबना है मगर केंद्रीय और राज्य सरकारों के लिए यह सब से कारआमद हरबा है।

नफ़रत और भय की भी अपनी नफ़सियत होती हैं, वे इंसान के रग और रेशे में उतर जाती हैं। उनका इलाज आसान नहीं है, उनका तदारक यही है कि जितनी मेहनत और शिद्दत से नफ़रत की तिजोरी को फ़रोग़ दिया जा रहा है, उतनी ही शिद्दत और मेहनत से मोहब्बत के फूल उगाए जाएँ। अलग-अलग कौमों के यहाँ हमें इसकी मिसालें मिलती हैं। अपरतहाड़ के बाद दक्षिण अफ़्रीका में नेल्सन मंडेला और उनके हामियों ने कालों के ख़िलाफ़ गोरों की अस्बियत और नफ़रत को बड़ी खूब सूरती से मोहब्बत और काबिल-ए-क़ुबूल रवैये में तब्दील कर दिया। जर्मनी में बर्लिन की दीवार गिरा दी गई पूर्वी और पश्चिमी दोनों जानिबों के बाशिंदों ने एक दूसरे का ख़ैर-मक़दम किया और बरसों की नफ़रत को मिनटों में मिटा दिया, मुसलमानों को भी यही लायहा-ए-अमल अपनाना होगा और इसी नेहज की मेहनतें करनी होंगी। अपनी समस्याओं का समाधान खोजने के लिए हमें उन कौमों से सीख लेने की जरूरत है जिन्होंने अपने खिलाफ दमनकारी और अन्यायपूर्ण परिस्थितियों का सामना किया और सफल हुए। हमें यह अध्ययन करना होगा कि उनके सामने आने वाली समस्याओं को देखने और समझने के उनके तरीके क्या थे और आधुनिक विज्ञान और कलाओं के लिए उनकी प्रासंगिकता क्या थी? जब हमारी आंतरिक स्थिति अच्छी होगी, तो हम शायद बाहर से आने वाली समस्याओं को हल करने के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करेंगे। बाहरी मोर्चों को जीतने के लिए आंतरिक मोर्चों को जीतना आवश्यक है और आंतरिक मोर्चों को जीतने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे पास मुत्तहिद स्टैंड और सकारात्मक योजना हो जिसके के साथ हम आगे बढ़ें। (समाप्त)

--------------

Urdu Article: Can Anyone Unite Hindus And Muslims? کوئی ہے ہندو مسلم کو کہ جو شیر و شکر کر دے

URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/anyone-unite-hindus-muslims/d/129317

New Age IslamIslam OnlineIslamic WebsiteAfrican Muslim NewsArab World NewsSouth Asia NewsIndian Muslim NewsWorld Muslim NewsWomen in IslamIslamic FeminismArab WomenWomen In ArabIslamophobia in AmericaMuslim Women in WestIslam Women and Feminism


Loading..

Loading..