अब्दुल कवी दस्नवी
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
7 नवंबर, 2021
अल्लामा इकबाल उर्दू के भाग्यशाली कवियों में से एक हैं जिन्होंने यहां शायरी शुरू की, प्रसिद्धि और लोकप्रियता उनके चरण चूमने लगी और वे धीरे-धीरे इज्जत, सम्मान और प्यार के उस मुकाम पर पहुंच गए जहां किसी अन्य उर्दू के शायर की पहुँच नहीं हुई। वे खुदा को जानते थे, वे ब्रह्मांड की वास्तविकता को जानते थे, वे आदम के रहस्यों को जानते थे, वे मानवता से प्यार करते थे, वे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से प्यार करते थे इसी लिए पैगम्बराना शान से शायरी की और आदमे खाकी को उसकी अजमतों से आगाह कर के उसे आला मकाम हासिल करने की तरगीब दी। अगर आप पूरी शायरी पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि वह एक आदर्श इंसान बनाना चाहते थे जिसके चरित्र, भाषण, इरादे और उत्साह के कारण उसे मर्दे मोमिन का दर्जा प्राप्त हो, और जो दुनिया को बनाने, संवारने और निखारने में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले सके, उनकी शायरी के पीछे, उनकी भावनाएँ कांपती हैं, उनकी भावनाएँ उत्तेजित होती हैं, उनके विचार परिलक्षित होते हैं, और वे सभी कुछ ऐसा बनाने के लिए तरसते हैं जो एक जन्नत की तरह हो, और इसके निवासी आकर्षक, दयालु और कम आशाओं के साथ बड़े उद्देश्यों के प्राप्ति में लगे हों। इकबाल की शायरी का एक बड़ा हिस्सा ऐसे ही शख्स की तलाश में नगमा सरा है।
इकबाल की शायरी की इन्हीं विशेषताओं ने उर्दू दुनिया के अहले दिल, अहले नजर और साहबे फ़िक्र हज़रात को अपनी ओर आकर्षित किया जिन्होंने उनकी शायरी से अपने दिल को गर्माया, रूह को तड़पाया, नजर को चमकाया और दिमाग को सक़ील किया। इकबाल की इसी मकबूलियत ने हज़ारों साहिबाने कलम को उनका गरवीदा बना लिया, इसलिए उन्होंने उनकी शायरी की विभिन्न विशेषताओं, विभिन्न पहलुओं नीज विभिन्न इमकानात को जानने की और विभिन्न दिशाओं को पहचानने की तरह तरह से कोशिशें कीं जिनसे इकबाल शनासी में इकबालीइन को बड़ी मदद मिली। बेशक आज हम कह सकते हैं कि हम ने भुत हद तक इकबाल को ढूंढ लिया है, जान लिया है, पहचान लिया है और उनकी अजमतों को पा लिया है, इस सिलसिले में सैंकड़ों किताबें लिखी गई हैं, हज़ारों मकालात कलम के सपुर्द किये गए हैं और अभी यह सिलसिला अधिक जोर व शोर और तेज़ रफ्तारी के साथ जारी है, लेकिन अब भी ऐसा महसूस होता है कि बहुत से पहलुओं पर बहुत अधिक काम नहीं हुआ है, ख़ास तौर पर इकबाल की इब्तिदाई शायरी का पूरी तरह से जायजा लेना अभी बाकी है। उन्हीं में इकबाल की वह शायरी भी है जो उन्होंने केवल बच्चों के लिए की थी। इस तरह की नज्में इकबाल ने बहुत अधिक कही हैं। बांगे दरा के पहले हिस्से में कुल नौ नज्में हैं जिन में एक मकडा और मक्खी, एक पहाड़ और गिलहरी, एक गाय और बकरी, हमदर्दी, मां का ख्वाब, परिंदे की फरियाद, बच्चे की दुआ, बच्चों के लिए हैं। एक परिंदा और जुगनू’ हालांकि इस पर ‘बच्चों के लिए’ लिखा हुआ नहीं है बच्चों के लिए है और इसी लिए बच्चों की दरसी किताबों में इसे शामिल किया जाता रहा है। ‘हिन्दुस्तानी बच्चों का कौमी गीत’ भी बच्चों के लिए ही है। बच्चों के हिस्से में इकबाल से बस यही कुछ मिला है।
इनके अलावा अहदे तिफली, बच्चा और शमा और तिफ्ले शेरख्वार के अध्ययन से इनका अंदाजा लगाया जा सकता है कि इकबाल को बच्चों से या बचपन से किस कदर गहरा लगाव था और बचपन का ज़माना कितना अज़ीज़ था। इन तमाम नज्मों का संबंध इकबाल की शायरी के पहले दौर से है अर्थात यह 1901 से 1905 ई० के दौरान लिखी गई हैं, इसके बाद इकबाल ने बच्चों की तरफ फिर कभी ध्यान नहीं दिया बल्कि नौजवानों की रहनुमाई करते रहे और इंसाने कामिल की जुस्तुजू में खो गए।
उर्दू में बच्चों का अदब ध्यान दिए जाने योग्य है, ख़ास तौर पर शायरों ने इस तरफ बहुत कम ध्यान दी है। इकबाल से पहले नज़ीर अकबराबादी, मिर्ज़ा ग़ालिब, अल्ताफ हुसैन हाली, मोहम्मद हुसैन आज़ाद, डिपटी नज़ीर अहमद आदि ने इस तरफ ध्यान दिया था। फिर इस्माइल मेरठी ने बच्चों के अदब के सिलसिले में बड़ा नाम पैदा किया। अकबर अलाहाबादी ने भी बच्चों को याद रखा। इकबाल के समकालीन में मौलाना महवी सिद्दीकी, मौलाना शफीउद्दीन नय्यर और हामिदुल्लाह अफसर आदि ने भी बच्चों के अदब में काफी इज़ाफा किया इसलिए बह्च्कों के अदब के सिलसिले में इन हजरात का नाम बराबर लिया जाएगा। यह सहीह है कि इकबाल ने बच्चों को बहुत कुछ नहीं दिया, लेकिन जितना कुछ दिया है उसकी अहमियत अपनी जगह मुसल्लम है।
ऐसा लगता है कि इकबाल को हालांकि बच्चपन का ज़माना बहुत अज़ीज़ रहा है लेकिन हालात ने इस तरफ ध्यान देने का मौक़ा बिलकुल नहीं दिया। उनकी दो तीन नज्में ऐसी मिलती हैं जिन में बचपन का ज़िक्र भुत दिलचस्पी के साथ किया गया है जिन का अध्ययन करने से अंदाजा होता है कि इकबाल की बच्चों और उनकी नफ्सियात पर कितनी गहरी नजर थी। इस सिलसिले की पहली नज़्म ‘अहदे तिफली’ है जो पहली बार जुलाई 1901 ई० में मखजने लाहौर में प्रकाशित हुई थी और जिसे मौलवी अब्दुर्रज्जाक ने अपनी मुरत्तबा कुल्लियात में शामिल कर लिया था। इसमें कुल पांच बंध अर्थात पंद्रह शेर थे। बांगे दरा में प्रकाशित करते समय अल्लामा इकबाल ने इसका कुल दो बंद (तीसरा और चौथा) अर्थात छः शेर चुने थे और इसके भी कुछ मिसरों को बदल दिया था।
दूसरी नज़्म ‘तिफ्ले शेरख्वार है जो सितंबर 1905 ई० में मख़जन में प्रकाशित हुई थी। कुल्लियाते इकबाल में यह 19 शेरों पर आधारति है। बांगे दरा में आठ शेर हज्फ़ कर दिए गए हैं और ग्यारह शेर का इंतेखाब किया गया है जब कि दो शेरों में इस्लाह है।
इकबाल की एक और नज़्म ‘बच्चा और शायर’ मखजन लाहौर, सितंबर 1905 ई० में प्रकाशित हुई थी जो तीन बंद पर आधारित है। शेरों की संख्या पन्द्रह है। बांगे दरा में एक शेर की इस्लाह कर दी गई है।
इन नज्मों के अध्ययन किया जाए तो अंदाजा होता है कि अल्लामा को बचपन की ज़िन्दगी से कितना संबंध रहा है, वह बचपन को किन किन जावियों से देखते हैं और उनसे क्या क्या नतीजे निकालते हैं।
बच्चों के लिए मकड़ा और मक्खी, एक पहाड़ और गिलहरी, एक गाय और बकरी, हमदर्दी, मां का ख्वाब, एक परिंदा और जुगनू, और परिंदे की फरियाद, सात नज्में हैं जिनमें पहली छः नज्में माखूज़ हैं। इनके अलावा दो नज्में माखूज़ हैं। इनके अलावा दो नज्में और हैं, बच्चे की दुआ और हिन्दुस्तानी बच्चों का गीत। दो नज्में बड़ी अहम हैं और मशहूर व मकबूल रही हैं। एक ज़माने में हर दो खानदान के बच्चों की जुबान पर यह नज्में होती थीं। मदरसों में बच्चे इसे पढ़ाई से पहले या बाद में गाया करते थे और दिलों में एक अजीब कैफियत पैदा कर दिया करते थे।
इस तरह हम देखते हैं कि शायरे मशरिक अल्लामा इकबाल को बचपन और बच्चों से गहरी दिलचस्पी थी। इसी लिए उन्होंने बच्चों के लिए शायरी की, उनकी शायरी का यह हिस्सा हालांकि सीमित है और उनकी किसी हद तक यकसानियत पाई जाती है, वह केवल नसीहत देने के लिए कही गई हैं। इनसे हट कर खेल कूद और हंसने हंसाने की बातों को विषय नहीं बनाया गया है। लेकिन फिर भी इनकी बड़ी अहमियत है, इसलिए कि इन नज्मों के अध्ययन से हमें इकबाल के इंसाने कामिल की तलाश में आसानी होती है। वह बच्चे के ज़हन की तामीर इस तरह करना चाहते थे जिससे वह एक इंसान बन सके जो खुदा आगाह हो, सदाकत शेआर हो, हुर्रियत पसंद हो, हमदर्द मुजस्सम हो, गुरुर व तकब्बुर की लानत से पाक हो, मोहसिन शनास हो, खिदमत गुज़ार हो, गरीबों का मददगार हो, कमजोरों का हामी हो, वतन परस्त हो, इंसान दोस्त हो, बुराइयों से पाक हो और पैकरे अमल हो। ज़ाहिर अमल है कि इन सिफात का हामिल बच्चा जवान हो कर वैसा ही इंसान बनेगा जिसके इकबाल ख्वाहिशमंद थे। इसलिए उर्दू में बच्चों के अदब में इकबाल की शायरी के इस हिस्से को हमेशा अहम मुकाम दिया जाता रहेगा।
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