ज़फ़र आग़ा (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
क्या मुसलमान होना इस मुल्क में गुनाह है? ये जुमला मेरे कानों में आज भी न सिर्फ गूँज रहा है बल्कि मुझे रह रह के परेशान कर रहा है। दरअसल ये फिकरा गुजरात इंकाउंटर में मारी जाने वाली इशरत जहाँ की बहन मुसर्रत जहाँ का है, जो उसने अभी चंद दिनों पहले मशहूर समाजिक और राजनीतिक महिला शबनम हाशमी के एक कन्वेंशन में बोला था, औऱ ये जुमला सुनकर मेरा दिल बेसाख्ता चाहा कि मैं खड़ा होकर उससे कह दूँ कि हाँ इस आज़ाद हिंदुस्तान में मुसलमान होना आज़ादी के साठ बरसों के बाद भी गुनाह है। जिस देश में इशरत जहाँ जैसी लड़की को आतंकवादी का तमग़ा पहनाकर ज़बरदस्ती गोली मार दी जाये औऱ उसकी माँ बहन इशरत जहाँ की मौत के पाँच बरस बाद भी इंसाफ के लिए दर दर भटकती रहें, इस देश में मुसलमान शब्द किसी गुनाह से कम नहीं हो सकता है.....जहाँ मासूम छात्र का दिन दहाड़े बटला हाउस दिल्ली जैसी जगह पर इंकाउण्टर हो जाये औऱ फिर मानवाधिकार कमीशन पुलिस की एफ.आई.आर. की बुनियाद पर कह दे कि हाँ बटला हाउस में इंकाउण्टर हुआ था, ऐसे देश में रह रहे मुसलमानों को अगर अपनी ज़िंदगी एक बोझ और एक गुनाह महसूस होने लगे तो ये कोई हैरानी की बात नहीं है, जिस देश में नरेंद्र मोदी मुसलमानों का नरसंहार करवा कर आये दिन चुनाव जीतता रहे, इस देश के मुसलमानों को अपनी ज़िंदगी अगर एक गुनाह महसूस हो तो ये भी कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी।
बेशक आज़ादी के बाद से मोदी के गुजरात तक हिंदुस्तानी मुसलमान की ज़िंदगी उसके लिए एक बोझ बन के रह गयी। देश का बंटवारा क्या हुआ मानो मुसलमानों पर कहर ही टूट पड़ा, जिन्होंने पाकिस्तान बनवाया वो तो चले गये लेकिन जो लोग अपने देश की मुहब्बत में यहीं के हो लिये, हिंदुस्तान ने तो उनकी कदर तो छोड़िये, उनको हर तरह की सज़ा का पात्र करार दे दिया। इस देश में रह रहे मुसलमानों की आर्थिक रूप से कमर तोड़ने के लिए 1952 में ज़मींदारी खत्म कर दी गयी और देखते ही देखते वो नवाब जिनके दरवाज़ो पर हाथी बंधे थे, उनके घरों में धूल उड़ने लगी। उनकी सारी मिल्कियत, ज़ेवर औऱ न जाने कैसी कैसी नायाब चीज़ें उधार के खातों में ऐसी डूबी कि फिर उनका कभी पता नहीं चला। ऊपर से दंगों का ऐसा सिलसिला शुरु हुआ कि मुसलमान सहम कर मुस्लिम बस्तियों में सिमट कर रह गया। बल्कि आहिस्ता आहिस्ता उसके मोहल्ले स्लम (गंदी बस्तियों) में बदल गये। नौबत यहाँ तक आ गयी की पूरी कौम एक मनोवैज्ञानिक डर का शिकार होकर हीन भावना से ग्रस्त हो कर रह गयी जो रही सही कसर बची थी वो नौकरियों की कमी ने पूरी कर दी।
मुसलमानों की बेसरोसामानी तो 1980 के दशक तक हो गयी थी, फिर 1990 के दशक में बीजेपी के उत्थान ने तो कयामत ही ढहा दी। बाबर की संतानों हिंदुस्तान छोड़ो और बाबरी मस्जिद हटाओ, हम वहाँ राम मंदिर बनायेंगें, फिर बाबरी मस्जिद शहीद कर दी गयी और वहाँ एक राम मंदिर भी बना यानि बीजेपी ने बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बना कर ये भी ऐलान कर दिया कि इस देश पर पहला अधिकार राम का है, अल्लाह का नहीं है। यानि 1992 में बाबरी मस्जिद शहीद करके बीजेपी और आरएसएस ने हिंदुस्तान को बाकायदा एक हिंदू राष्ट्र की शक्ल देनी शुरु कर दी। ज़ाहिर है कि अब मुसलमान के साथ बाकायदा दूसरे दर्जे के शहरी का सुलूक होने लगा। अगर मुसलमानों को अपने दूसरे दर्जे के नागरिक होने का पूरी तरह ऐहसास नहीं था, तो 2002 में नरेन्द्र मोदी ने मुसलमानों का नरसंहार करवा कर मुसलमानों को दूसरे दर्जे के नागरिक होने का भी ऐहसास दिला दिया और फिर ये आलम हुआ कि भरे सेमिनार और कंवेशन में मुसलमान चीख चीख कर ये पूछने लगा कि क्या इस देश में मुसलमान होना गुनाह है?
पिछले 60-62 बरसों का अनुभव औऱ इतिहास तो यही बताता है कि मुसलमान होना इस देश में किसी गुनाह से कम नहीं है, लेकिन ठहरिये! ये तस्वीर का एक रुख है, तस्वीर के दूसरे रुख पर तो हिंदुस्तानी मुसलमानों ने अभी तक निगाह नहीं डाली और अगर तस्वीर का दूसरा रुख आपके सामने पेश कर दिया जाये, तो आप ये कहने पर मजबूर हो जायेंगे कि अगर मुसलमानों के लिए इस धरती पर कोई जन्नत हो सकती है तो वो स्थान सिर्फ हिंदुस्तान ही है। अरे दुनिया में हिंदुस्तान जैसा कोई दूसरा देश है कि जहाँ मुसलमानों को ऐसी राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आज़ादी हासिल हो जैसी हिंदुस्तान में हासिल है। अभी रमज़ान गुज़रे कुछ दिन ही बीते हैं। हर मस्जिद नमाज़ियों से भरी पड़ी थी। हर जुमा को सैकड़ों मस्जिदों का मजमा सड़कों पर नमाज़ पढ़ता था। फिर ईद आयी तो हर मुहल्ले खुशी से झूम उठे, जिस गैरमुस्लिम को देखो वो अपने मुसलमान दोस्त को ईद की मुबारकबाद दे रहा था और गले मिल रहा था। भला पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू को होली, दिवाली मनाने का ऐसा अधिकार है? पाकिस्तान तो पाकिस्तान सऊदी अरब में कोई गैरमुस्लिम गल्ती से भी अपने किसी भगवान की मूर्ति नहीं रख सकता है। ये तो हिंदुस्तान ही है जहाँ जो चाहे, जिस अंदाज़ में चाहे अपना धर्म पालन करे और अपने त्योहारों पर खुशियाँ मनाये। फिर कोई ऐसा इस्लामी देश है जहाँ मुसलमानों को इतनी आज़ादी हासिल है, जैसा कि हिंदुस्तान में हासिल है। ये मुस्लिम वोट बैंक की ताकत थी कि जिसने एकजुट होकर बीजेपी को एकबार नहीं दो बार संसदीय चुनाव में हार का मुँह दिखवाया औऱ बीजेपी ने शराफत से अपनी हार को स्वीकार भी कर लिया। ऐसे ही राज्य स्तर पर मुसलमानों ने कभी मुलायम सिंह तो कभी लालू यादव, तो कभी मायावती जैसी लीडरों को ताकत देकर देश का रानीतिक नक्शा बदल दिया। ऐसी आज़ाद और लोकतांत्रिक राजनीति सारी दुनिया में मुसलमानों को कहीं नसीब नहीं जैसी हिंदुस्तान में उनको हासिल है।
अब ये आप पर है कि आप इस हिंदुस्तान में अपनी ज़िंदगी को एक गुनाह समझ कर हार जायें और अपनी समस्याओं का रोना रोते रहें। या फिर आप में लोकतांत्रिक राजनीति को समझने की सलाहियत है तो इस हिंदुस्तान को अपने लिए जन्नत मुकाम बना लें। वो कौम जो हार कर अपना रोना रोती है, ऐसी कौम दुनिया के किसी कोने में भी हो, उसके लिये ज़िंदगी एक बोझ और एक गुनाह बनी रहेगी, लेकिन वो कौम जिसे अपने पैरों पर खड़े होने का साहस हो, ऐसी कौम बुरे से बुरे हालात में भी अपनी ज़िंदगी को जन्नत में बदल सकती है, और मुसलमान कोई ऐसी गयी गुज़री कौम नहीं है कि वो हार कर बैठ जाये। आज से कोई डेढ़ सौ बरस पहले तक इस देश की बागडोर मुसलमानों के ही हाथों में थी। इसी मुस्लिम कौम के मुग़ल बादशाहों के दरबार में अंग्रेज़ सिर झुका कर हिंदुस्तान में कारोबार करने की इजाज़त माँगता था। इसी हिंदुस्तान के दिल्ली, आगरा और लखनऊ जैसे शहरों की गिनती मुस्लिम शाही दौर में यूरोप के कई शहरों से ज़्यादा विकसित शहरों में होती थी। इस वक्त के मुस्लिम घरानों में दौलत की कोई कमी नहीं थी और इसका कारण ये था कि इस दौर का मुसलमान अपनी ज़िंदगी को गुनाह नहीं मानता था। उस वक्त भी ये अल्पसंख्यक थे और गिनती में आज से बहुत कम थे, लेकिन इस दौर के मुसलमान को कोई भय नहीं था और उसको भय सिर्फ इसलिए नहीं था कि वो कम था, वो अल्पसंख्यक होते हुए भी शासक इस कारण से था कि उस दौर में उसमें शासन चलाने की सलाहियत थी और ये सलाहियत इस वजह से थी कि वो अपने हालात को नियंत्रण करने में सक्षम था। और ये क्षमता उसने अपनी अक्ल व समझ से हासिल की थी, जो उस दौर के ज्ञान पर महारत हासिल करने के कारण हुई थी।
इसके विपरीत 21वीं सदी का मुसलमान न सिर्फ हिंदुस्तान बल्कि सारी दुनिया में परेशानी का शिकार है। इसका सिर्फ यही कारण है कि अब वो वर्तमान समय के अनुसार सक्षम नहीं रहा। आज के समय में सक्षम होने के लिए आवश्यक है कि वर्तमान समय का ज्ञान हो, मुसलमान इन शिक्षाओं से अनभिज्ञ है। वो अंग्रेज़ी को अपना दुश्मन समझ कर आधुनिक शिक्षा में पीछे रह गया है। इसके मदरसों और उलमा ने लगभग एक सदी हर एक वैज्ञानिक और तकनीकी खोज के खिलाफ फतवा जारी करके उसको वर्तमान समय की वैज्ञानिक शिक्षाओं में भी पीछे कर दिया। वो आधुनिक शिक्षाओं से इस कदर अलग होकर रह गया कि अभी जब मदरसों में आधुनिक शिक्षा को शामिल करने की बात हुई तो इसके विरुद्ध इसके उलमा ने फिर शोर मचाना शुरु कर दिया। ज़ाहिर है वर्तमान समय पर नियंत्रण तो क्या आधुनिक शिक्षा में पिछड़ कर दुनिया की एक पिछड़ी कौम हो कर रह गयी है। ज़िंदगी की दौड़ में जो पिछड़ गया, उसको फिर हर कोई दबा लेता है। यही कारण है कि वही मुस्लिम अल्पसंख्यक जो कभी इस हिंदुस्तान में शासक था अब उसी मुस्लिम अल्पसंख्यक को अपनी ज़िंदगी गुनाह लगने लगी। बेशक इस हिंदुस्तान में आप ने हर तरह के अत्याचार को बर्दाश्त किया और आपको ज़िंदगी जहन्नुम लगने लगी, लेकिन इस लोकतांत्रिक हिंदुस्तान में आप के लिए वो मौके हैं कि आप चाहें तो अपनी ज़िंदगी जन्नत में तब्दील कर लें। इसलिए रोना छोड़िये और अपनी ज़िंदगी अपनी कोशिशों से खुशियों से भर लीजिए फिर देखिये कि ये हिंदुस्तान कैसा जन्नत मुकाम है। शर्त ये है कि ज़माने को वैसे ही मुट्ठी में कर लीजिए जैसे कभी मुग़ल दौर में आपकी मुट्ठी में था और ये तब ही मुमकिन होगा, जब आप आधुनिक शिक्षा को अपनी मुट्ठी में कर लेंगे और तभी आपको आपकी ज़िंदगी एक गुनाह महसूस नहीं होगी।
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