ज़फ़र आगा (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डॉट काम)
मुगलों के दौर के आखीर में भी हिंदुस्तानी मदरसों में उस वक्त का फलसफा (दर्शन), साइंस (विज्ञान), जुगराफिया (भूगोल), साइंस के सभी उलूम (ज्ञान) और राजनीतिशास्त्र वगैरह जैसे सेकुलर विषय पढाये जाते थे और मुसलमानों की शिक्षा का स्टैण्डर्ड (मेयार) इतना ऊंचा था कि बहादुर शाह के दौर के मदरसें अपने वक्त में आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से कम न थे। संक्षेप में ये कि मुसलमान हिंदुस्तान में आला तालीम याफ्ता कौम थी लेकिन वही कौम अब आज़ाद हिंदुस्तान में आला तालीम के क्षेत्र में दलितों से भी पिछड़े हैं। अगर हम इस की जिम्मेदारी सिर्फ देश के राजनीतिक हालात पर डाल दें तो ये बात शायद पूरी तरह से सही नहीं होगी। बेशक राजनीतिक माहौल से मुसलमानों को जो मार पड़ी, उसने तालीम के स्टैण्डर्ड को भी प्रभावित किया। लेकिन सिर्फ राजनीतिक माहौल को मुसलमानों की तालीम पिछड़ेपन का ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं।
मेरी अदना राय में आज़ादी के बाद मुसलमानों के तालीमी पिछड़ेपन का कारण मुसलमानों का सर सैय्यद की तहरीक से भटकना है। सर सैय्यद अहमद खान ने सन 1860 की दहाई में सिर्फ पहला मुस्लिम तालीमी अदारा (शिक्षा संस्था) ही कायम नहीं किया था बल्कि सैय्यद खान ने मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को आम करने के लिए एक तहरीक चलायी थी। इस तहरीक का मकसद सिर्फ अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी को कायम करना नहीं था बल्कि सर सैय्यद की तहरीक का मकसद हिदुस्तानी मुसलमानों में ये फिक्र पैदा करनी थी कि मुगल हुकूमत के खात्मे के बाद और अंग्रेजों की सरकार बनने के बाद मुल्क में सिर्फ सियासी बदलाव ही नहीं आया है बल्कि पूरी दुनिया ही बदल गई है। सर सैय्यद इस नतीजे पर तब पहुंचे जब उन्होंने इंग्लैंड के दौरे के बाद हालाते ज़माना को अच्छी तरह समझ लिया। उनकी समझ उस वक्त ये कहती थी कि अंग्रेज मुग़लों को इसलिए हराने में कामयाब हुए कि उन लोगों ने दुनिया के नवीनतम ज्ञान यानी साइंस और टेक्नोलोजी पर नियंत्रण पा लिया था, जिसने इंग्लैंड में लोकतंत्र के लिए माहौल बना दिया यानि साइंस औऱ टेक्नोलोजी पर आधारित आधुनिक शिक्षा ने इंसानों को शाही निज़ाम से निकाल कर लोकतंत्र तक पहुंचा दिया।
ये एक तारीखी इंकलाब था। इस इंकलाब का फायदा वही उठा सकता था जो जदीद तालीम से फायदा उठा रहा हो और सर सैय्यद के कौल के मुताबिक इस जदीद तालीम के लिए जदीद तालीमी अदारों का कयाम ज़रूरी था। इसलिए सर सैय्यद ने अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी का कयाम किया और अपने लेखों के ज़रिए इस चिंता को आम करने के लिए आंदोलन की दाग बेल डाली। पाकिस्तान के लिए आंदोलन से पहले हिंदुस्तानी मुसलमानों में सर सैय्यद की तहरीक का गहरा असर रहा। मुस्लिम बहुलता वाले शहरों में दर्जनों स्कूल खुले, कालेजों का कयाम अमल में लाया गया बल्कि कुछ नवाबों ने उस्मानिया युनिवर्सिटी जैसे अदारे कायम किये लेकिन हद ये है कि पाकिस्तान आंदोलन की शुरुआत के बाद हिंदुस्तानी मुसलमानों का ध्यान तालीम से हट कर राजनीति पर हो गया। इसका नतीजा ये हुआ कि मुसलमान न तो तालीम का रहा और न ही सियासत का। इस कारण केवल यह था कि जो कौम शिक्षा क्षेत्र में पीछे रह जाए वह किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं पा सकती है। ऐसी कौम दिल से तो सोच सकती है लेकिन दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर सकती है। इसलिए मुसलमान कौम ने अपना व्यवहार बना लिया कि वो हमेशा जोश में रहे और होश खो दिया। इसका नतीजा ये है कि मुसलमान उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हिंदुस्तान की आज़ादी के 63 साल बाद दलितों से भी पीछे रह गए।
खैर ये तो पुराना क़िस्सा था। ज़रूरत माज़ी (अतीत) को याद करने की नहीं बल्कि हाल (वर्तमान) में रहकर मुस्तकबिल (भविष्य) को संवारने की है। इसी मकसद से जुलाई महीने की याद दिलाई थी और वो जुलाई भी बस अब खत्म होने वाला है। ये नहीं कहा जा सकता कि इस जुलाई में कितने मुस्लिम छात्र कॉलेज या युनिवर्सिटी तक पहुंचे लेकिन ये बात सच है कि यह अनुपात आज भी बहुत कम है। इसलिए आइए इस जुलाई में एक बार फिर सर सैय्यद अहमद की तालीम लेकर हिंदुस्तानी मुसलमानों में दूसरी सर सैय्यद तहरीक की शुरूआत करें ताकि अगले जुलाई में ज़्यादा से ज़्यादा मुस्लिम बच्चे कॉलेजों और युनिवर्सिटियों तक पहुँचे। अगर हम ऐसा करने में कामयाब हुए तो हम अल्लाह को भी खुश कर देंगे क्योंकि सबसे पहले ये तालीम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहू अलैहे वसल्लम ने हमको ‘इक़रा’ कहकर दी थी। (समाप्त)
स्रोतः दैनिक समय
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/indian-muslims-education-part-2/d/6431
URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/indian-muslims-education-part-2/d/6533