वासिकुल खैर
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
26 दिसंबर, 2021
उर्दू उपन्यासों में शुरू से ही महिलाओं के समस्या को विभिन्न एंगल से पेश किया गया है। आधुनिक शिक्षा के प्रभाव के कारण मानव समाज में जो एक के बाद एक परिवर्तन सामने आए, उनका प्रतिबिम्ब भी उपन्यासों में दिखाई देता है। सभ्यता के टकराव और आधुनिक जीवन शैली के नमूने भी देखने को मिलते हैं। घरेलू दुर्घटनाएं और घटनाएं और घरेलू महिला की वास्तविक रुदाद भी उपन्यास का महत्वपूर्ण भाग है।
डिप्टी नज़ीर अहमद को अपने समकालीनों में महिलाओं के सुधार की आवश्यकता और महत्व का शऊर सबसे अधिक था। वह देख रहे थे कि जागीरदाराना, ज़मीनदाराना दौर की नैतिक पतन और सामाजिक गिरावट के प्रभाव से महिला वर्ग भी सुरक्षित नहीं है। इसलिए उन्होंने उनके पतन के कारण और उनके समस्याओं को तलाश करने की कोशिश की। उनके यहाँ जागीरदाराना निज़ाम की सताई हुई महिला की जीती जागती तस्वीर मिलती है। क्योंकि इस प्रणाली में महिला को पुरुष अपनी मिलकियत समझता है। नज़ीर अहमद ने महिला की जिंदगी के किसी भी पहलु को अनदेखा नहीं किया है।
उनकी आपसी रंजिशों, नैतिक पतन, अज्ञानता, कमजोर विश्वास, रस्म व रिवाज की पाबंदी और इसी तरह की दूसरी बुराइयों पर, जिन की वजह से अच्छी माएं और सलीके वाली बीवियां नहीं बन सकती थीं। बड़ी ख़ुशी से रौशनी डाली है। इस वर्ग की सामाजिक बदहाली का उन्हें बहुत एहसास था। उपन्यास मरअतुल उरूस में महिलाओं की सामाजिक महत्वहीनता पर रौशनी डाली है। उनको जागीरदाराना युग की इन पीड़ित महिलाओं से अत्यधिक सहानुभूति थी जो पुरुषों की मिलकियत बन कर रह गई थीं। और जिन्हें केवल इसलिए जाहिल रखा जाता था कि पुरुषों से बराबरी के अधिकारों की मांग न कर बैठें। वह महिलाएं आर्थिक रूप से पुरुषों की मोहताज थीं।
अब्दुल हलीम शरर ने अधिकतर एतेहासिक उपन्यास लिखे। लेकिन उनके उपन्यासों में भी महिलाओं के समस्या की तर्जुमानी मिलती है। उनके उपन्यासों की महिलाएं बहादुर भी हैं और पुरुषों के साथ मैदाने जंग में शरीक कार भी हैं। इसके अलावा अपने सामाजिक उपन्यास में महिलाओं की कम हैसियत और पस्ती को विषय बनाया। उन्होंने पर्दे का कड़ा विरोध इस्लाम की रौशनी में किया है। उनका उपन्यास ‘हुस्न का डाकू’ में महिलाओं की शिक्षा की पुरज़ोर हिमायत मिलती है। उपन्यास का निस्वानी किरदार, महलका’ को आधुनिक शिक्षा से लैस दिखाया।
राशिद अल खैरी ने भी अपने उपन्यासों में महिला पर समाज में जिन अत्याचारों और अन्यायों को रवा रखा जाता था उसकी दर्दनाक अक्कासी की। उन्होंने अपने उपन्यासों में अधिकतर महिलाओं की शिक्षा पर जोर दिया। घरेलू जटिलताएं और मर्द और महिला के संबंधों को उपन्यासों में नुमाया तौर पर पेश किया। उनका उपन्यास, शामे जिंदगी, महिलाओं की शिक्षा पर आधारित है। इस उपन्यास में यह बताने का प्रयास किया गया है कि समाज को बेहतर तभी बनाया जा सकता है जब औरतें शिक्षित हों। वह यह कल्पना करते थे कि इस दौर में महिलाओं का शिक्षित होना उनके और आने वाली नस्लों के हक़ में बेहतर होगा।
इसके लिए उन्होंने कोशिश भी की कि शिक्षित मुसलमान महिलाओं को मदरसा ए निसवां कायम करना चाहिए ताकि मुस्लिम बच्चियां अपने धर्म और सभ्यता से बेगाना न रहें। महिलाओं पर पश्चिमी शिक्षा के गलत प्रभाव न पड़ें इसके लिए वह खालिस मशरिकी और दीनी शिक्षा की तरगीब देते हैं। उपन्यास, सुबह ए जिंदगी, में नई नसल को अपनी आला इक्दार की पासदारी का ख्याल रखते हुए ऐसी शिक्षा हासिल करने की तरगीब देते हैं जो उनके लिए बेहतर हो।
मिर्ज़ा हादी रुसवा के उपन्यासों में भी मध्यम वर्ग की महिलाओं के मुद्दे सामने आए। अपने आस पास उन्होंने जो माहौल पाया, उसकी पस्ती और विशेषतः शरीफ घरानों में जो फूट था उसको बयान किया।
इस फूट की ज़िम्मेदारी पुरुषों के साथ साथ महिलाओं पर भी थोपी। उन्होंने लिखा कि महिलाएं अज्ञानता के कारण अपने दायित्व से अनजान और अच्छे विचारों को अर्जित करने से महरूम रहती हैं। रुसवा अपनी मिसाली महिला के लिए जिस चीज की आवश्यकता महसूस करते वह शिक्षा थी। वह इससे इत्तेफाक रखते थे कि मौजूदा दौर में महिलाओं को शिक्षा से वंचित कर के घरों की चार दिवारी में कैद रखना मसलेहत के खिलाफ होगा। अख्तरी बेगम, में हर्मुज़ी के किरदार के ज़रिये इस मामले पर रौशनी डाली कि शिक्षा से महिलाओं के तजुर्बे अधिक होंगे। उन्होंने ऐसी पाबंदियों को जो महिलाओं में बेजा शर्म और झिझक पैदा करती हैं उसे बेहूदा ख्यालात से ताबीर किया।
महिलाओं के मुद्दे के दृष्टिकोण से अगर प्रेमचन्द्र के उपन्यासों का अवलोकन किया जाए तो अंदाजा होता है कि उन उपन्यासों में महिलाओं की दैनीय और दर्दनाक जिंदगी बदलती हुई नजर आती है। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ हर मोर्चे पर विरोध मिलता है। असल में प्रेमचंद बराबरी, मानवता, शराफत और न्याय के कायल थे। वह समाज के हर वर्ग को जीवन के संघर्ष में बराबर का शरीक देखना चाहते थे। इसके लिए आवश्यक था कि महिला पहले आत्मनिर्भर बने, क्योंकि जब तक महिला आर्थिक रूप से मर्द जात की मोहताज रहेगी तब तक दुसरे दर्जे की मखलूक समझी जाती रहेगी।
प्रेमचंद के उपन्यासों में महिला के तमाम अप्रत्याशित स्थितियों का नक्शा मिलता है, वह शादी ब्याह के मामले में न केवल यह कि महिलाओं की राय की स्वतंत्रता के कायल नज़र आते हैं बल्कि वह इस बात की अत्यधिक हिमायत करते थे कि शादी से पहले महिला और पुरुष को आचार विचार का पूरा मौक़ा मिलना चाहिए। उनके नज़दीक शादी एक समझौता है जिसकी सफलता की निर्भरता दोनों पक्षों की रज़ामंदी पर है और उनमें सुधार का पहलु अधिक साफ़ होता था। लेकिन बाद में उपन्यासों में उन्होंने महिला को एक राजनितिक और सामाजिक सदस्य की हैसियत से भी सक्रिय दिखाया।
उनसे पहले किसी में भी इतनी हिम्मत न थी कि महिलाओं को पिछड़ेपन से निकालने का प्रयास करे और उन्हें पुरुषों के दोश बदोश ला खड़ा करे। प्रेमचंद के उपन्यासों में “चौगान हस्ती”, ग़बन और मैदाने अमल, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जिनमें महिलाओं के एहसास व जज़्बात पुरी तरह उभर कर सामने आए।
नज़र सज्जाद हैदर का नाविल “जांबाज़” में हीरोइन मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिला कर आज़ादी के संघर्ष में शामिल होती है। जिससे उनके चेतना का सुबूत मिलता है। कि वह केवल आज़ादी ए निसवां और समानता की खाली खुली बातें करते हैं बल्कि अमली तौर पर इसे बरतना भी चाहते हैं।
कुरातुल ऐन हैदर ने कई उपन्यास लिखे जिनमें मानवीय किरदार सपष्ट तौर पर मरकज़ी हैसियत में सामने आए। “आग का दरिया” की चम्पा या जिलावतन, छाए के बाग़, की राहत काशानी हो या ‘दिलरुबा’ की गुलनार, हाउसिंग सोसईटी, की सुरय्या हुसैन हो या ‘सीता हरण, की सीता:, आखरी शब् के हमसफर, दीपाली सरकार हो या मेरे भी सनम खाने, की रख्शिन्दा जो जानदार किरदार होने के बावजूद पुरुषों के जब्र व शोषण से बच नहीं पाई।
इस्मत चुगताई ने अपने उपन्यासों में महिलाओं के जज़्बात को अधिक अहमियत दी। उनकी तख्लीकात का विषय अक्सर लड़कियों के रोजमर्रा के हालात थे, जिसे उन्होंने बड़ी तफसील से बयान किया। टेढ़ी लकीर, ज़िद्दी, मासूमा और दिल की दुनिया आदि इसकी अच्छी मिसाल हैं।
सआदत हसन मंटो ने अपने अक्सर उपन्यासों में महिला के जज़्बाती दृष्टिकोण को मल्हुज़ रखा है। समाज की ठुकराई हुई महिलाओं को विषय बना कर उन पर होने वाले ज़ुल्म को ज़ाहिर किया। मंटो अपने उपन्यासों के जरिये महिलाओं की खूब हिमायत करते थे।
कृष्णचन्द्र का उपन्यास ‘शिकस्त’ में भी महिलाओं के मसाइल बखूबी नज़र आते हैं। उसका किरदार ‘वंती’ के जरिये महिला की सामाजिक हैसियत बड़ी हद तक स्पष्ट सूरत में नज़र आती है। उन्होंने वंती के जरिये रिवायती महिला के सामाजिक मुद्दों को पेश किया।
बीसवीं सदी के बाद महिलाओं की हिमायत में ताकत आई जो सदी के अंत तक बाकी रही, इकिस्वीं सदी में भी जो नाविल लिखे जा रहे हैं उसमें भी महिलाओं के साथ आने वाले समस्या को बहुत अच्छे से उठाया गया है।
Urdu
Article: The Role of Woman in Urdu Novels اُردو ناولوں میں عورت کا
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