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Hindi Section ( 3 Nov 2011, NewAgeIslam.Com)

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Muslim World Vs. War On Terror आतंकवाद विरोधी जंग बनाम मुस्लिम दुनिया


सैय्यद शहाबुद्दीन (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

11 सितम्बर 2001 को अमेरिकी पर आतंकवादी हमले के जवाब में अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ एक विश्वव्यापी जंग का ऐलान किया था जिसकी शुरुआत अफगानिस्तान पर जवाबी हमले से की गयी। इसे शुरु में सलीबी जंग कहा गया जिससे मध्यकाल में पश्चिम के ईसाईयों की ओर से पूरब के इस्लाम मानने वालों के खिलाफ़ लगभग दो सदियों तक जारी रहने वाली जंग की यादें ताज़ा हो गयीँ, जिसका उद्देश्य अपने पवित्र स्थान को विश्वास न रखने वालों के कब्ज़े से वापस लेना था। आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी जंग की ये तस्वीर आज भी बरक़रार है, बावजूद इसके कि अमेरिका व ब्रिटेन के लीडरों ने बार बार इस्लाम के इससे सम्बंध का खंडन किया है, और विभिन्न स्तर पर इस बात को दुहराया है कि ये जंग इस्लाम के खिलाफ नहीं, आतंकवाद के खिलाफ है।

मुस्लिम दुनिया के दिलो दिमाग़ पर इस जंग के प्रभाव का आंकलन करने से पहले हमें ये बात समझ लेनी चाहिए कि आतंकवाद कभी भी इस तरह विश्वव्यापी नहीं हो सकता है, जिसका विश्व स्तर पर मुकाबला करना पड़े। ये हमेशा इधर उधर होने वाली घटनाओं की सूरत में और स्थानीय प्रकृति का रहेगा। ये सम्भव है कि कभी कभी आतंकवाद की घटनाएं बार बार औऱ विश्व के विभिन्न हिस्सों में एक साथ इस तरह होने लगें कि वो विश्वव्यापी नज़र आयें। लेकिन किसी संगठित कमान, लोगों या हथियारों की उपलब्धता के स्रोत की अनुपस्थिति में आतंकवाद कभी भी राज्य की संगठित शक्ति और निश्चित तौर पर वर्तमान समय की सबसे बड़ी ताकत से मुकाबला नहीं कर सकता है।

लिहाज़ा आतंकवाद तो दुनिया के कुछ देशों तक सीमित छुटपुट घटनाओं की सूरत में सामने आ रहा है, लेकिन एक विश्वव्यापी जंग के काले बादल बिल्कुल सामने नज़र आ रहे हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था जिसे घमंड और धार्मिक जोश व खरोश औऱ सबसे बढ़ कर आर्थिक ईर्ष्या व लालच और उसके साथ ही चाहे जाने की इच्छा इसे और भी धारदार बना रही है।

इस्लाम के खिलाफ जंग की ये सूरत विभिन्न कारणों से हमेशा से मौजूद रही है। पहला कारण पिछले दो एक दशकों के दौरान किया जाने वाला ये दुष्प्रचार है कि सारी दुनिया इस्लामी आतंकवाद की गिरफ्त में है। इसके परिणाम स्वरूप इस्लाम को कट्टरपन, रूढिवादी औऱ हिंसा से जोड़कर देखा जा रहा है और ये खयाल भी आम हुआ है कि इस्लाम, लोकतंत्र, सेकुलरिज़्म, मानवाधिकार और आधुनिकता के बीच साम्य पैदा नहीं हो सकता है। ये भी कहा जा रहा है कि मुस्लिम समाज और देश मुस्लिम नाराज़गी की कैद में हैं, क्योंकि ये गरीब और पिछड़े होने के कारण पश्चिमी देशों की आर्थिक खुशहाली और टेक्नालोजी के मैदान में उसकी तरक्की से ईर्ष्या रखते हैं मगर अपने दकियानूसीपन और शासन के प्राचीन तरीकों के कारण अपनी जनता को अच्छा खिलाने, अच्छा पहनाने और सुरक्षा औऱ इज़्ज़त की ज़िंदगी देने में नाकाम हैं। इसके परिणान स्वरूप पश्चिमी देशों में ये बात स्वीकार कर ली गयी है और उनके मन में बैठ गयी है कि जल्द या देर पश्चिमी औऱ इस्लामी दुनिया के बीच लड़ाई अपरिहार्य है।

दूसरी वजह इस वास्तविकता में पाई जाती है कि साम्राज्यवाद के दौर के बाद के समय में अमेरिका को साम्राज्यवाद की एक बड़ी ताकत समझा जा रहा है, जो आज़ादी और लोकतंत्र के नाम पर पूरी दुनिया में अपना प्रभुत्व कायम करने, दुनिया के सभी नवीनीकरण न हो पाने वाले संसाधनों पर कब्ज़ा करने, और उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने और अपने उत्पादों, तकनीक और ज़रूरत से ज़्यादा संसाधनों के लिए अपनी शर्तों पर बाज़ार हासिल करने की कोशिश में है। इस कारण से सारी दुनिया खासतौर से मुस्लिम देशों में जनता में नाराज़गी पैदा हो रही है। इन मुस्लिम देशों का शासक वर्ग अपने विदेशी दोस्तों से हाथ मिलाये हुए हैं, उन्हें अपना आका समझते हैं, बल्कि अपने अस्तित्व के लिए उनकी मदद पर निर्भर हैं। आर्थिक शोषण और राजनीतिक रूप से वंचित होना मिलकर अमेरिका के खिलाफ भावना को और मजबूत कर रहा है। राजनीतिक रूप से वंचित होना मज़हबी भाषा में व्यक्त हो रही है औऱ इस तरह मुस्लिम देशों में ऐसे ग्रुप उभरते रहते हैं जो जनता की भावनाओं का इज़हार इस्लामी रूढ़िवादी दृष्टिकोण से और कभी कभी हिंसा के ज़रिए करते हैं। परिणाम ये है कि इस्लाम को निशाना बनाने से सम्बंधित पश्चिमी देशों के खंडन को सिर्फ मुनाफिकत समझा जा रहा है, और इस्लामी ग्रुपों के इस इल्ज़ाम को जनता का समर्थन हासिल हो रहा है कि अमेरिका मुस्लिम देशों को कुचलने या बाँटने के इरादे बांध रहा है। इसलिए अमेरिका की सब कुछ हासिल कर लेने की कोशिश और मुस्लिम भावनाओं के ज़ोरदार ढंग से व्यक्त करने का रुझान एक दूसरे को ताकत औऱ तीव्रता पहुँचा रहे हैं। तीसरी वजह उन पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों की पैदा की हुई है जो क़ुरान पाक को हिंसा की किताब समझते हैं। वो इस्लाम को कट्टरपन के धर्म के रूप में पेश करते हैं, जो अपने मानने वालों को गैर-मुसलमानों के खिलाफ लगातार लड़ाई करने की हालत में रखते है और उन्हें इस बात के लिए उकसाते हैं कि वो अगर अपने मज़हब के लिए बेहतरीन क़ुर्बानी पेश करेंगे तो आखिरत में इसका सवाब पायेंगें। इस्लाम को बदनाम करने और रसूलुल्लाह (स.अ.व) की तस्वीर बिगाड़ने और इस्लाम की गलत छवि पेश करने की कोशिश, हर जगह मुसलमानों के खिलाफ खौफ़, भरोसे की कमी औऱ शक व शुब्हा पैदा करती है और दोनों समूहों में एक दूसरे की नकारात्मक छवि को और मजबूत करती है। ये विशेषज्ञ और दोनों ओर की जनता ये भुला देती है कि अमेरिका, यूरोप और दुनिया भर में करोड़ों मुसलमान कमोबेश शांति और रचनात्मक रूप से रह रहे हैं और ये कि मुस्लिम समाज और पश्चिमी देशों के समाजों के बीच लम्बे समय से एक दूसरे से सहयोग और मदद के सम्बंध रहे हैं।

मसीही चर्च के एक समूह ने मुस्लिम इलाकों में राष्ट्रपति बुश के मसीही किरदार की बड़े ज़ोरदार ढंग से समर्थन किया है। शायद उन्हें उनके वजूद में मुस्लिम इलाकों में न सिर्फ इस्लाम के फरोग को रोकने बल्कि इस अमल के रुख को मोड़ने का एक मौका नज़र आ रहा है। बंग्लादेश, पाकिस्तान, इण्डोनेशिया और अन्य अधिकृत देशों में मिशनरी सरगर्मियों में तेज़ी आने वाली खबरें भी सारी दुनिया में मुसलमानों के मन को बेचैन कर रही हैं।

आतंकवाद के मामले में अमेरिका ने पक्षपातपूर्ण रवैय्या अपनाया है, जो फिलिस्तीनियों के खिलाफ इज़राईली आतंकवाद को उसकी पूरी तरह और बगैर किसी शर्ते के समर्थन से स्पष्ट होता है। मुस्लिम देशो में अमेरिकी रवैय्ये की इसलिए भी तीखी आलोचना हो रही है कि अमेरिका ने चेचेन्या के खिलाफ रूसी आतंकवाद के सिलसिले में दोहरा रवैय्या अख्तियार किया और आयरलैण्ड के प्रोटेस्टेंट लोगों के खिलाफ कैथोलिक लोगों के आतंक, हिंदुस्तान के मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्ववादी आतंक या कश्मीर में जारी सरहद पार से आतंक में पाकिस्तान के शामिल होने के सिलसिले में कूटनीतिक खामोशी बरती है। अमेरिका एक ओर तो लोकतंत्र का अलमबरदार होने का दावा करता है मगर दूसरी ओर सामंती और कुछ लोगों पर आधारित सरकारों को बढावा देता है।

इस नतीजे तक पहुँचने पर मजबूर कर दिये जाने के बाद मुस्लिम दुनिया को अफगानिस्तान और इराक के खिलाफ अमेरिकी फौजी कार्रवाई और ईरान पर उसके दबाव के पीछे एक संगीन और शैतानी इरादा काम करता नज़र आता है। ये सवालात सिर उठा रहे हैं कि क्या अमेरिका मुस्लिम देशों ईरान, पाकिस्तान और सूडान के खिलाफ हमलों के लिए ज़मीन तैय्यार कर रहा है। तीसरी दुनिया में अमेरिका के खिलाफ भावनाओं को मुस्लिम दुनिया में इस्लाम की लहर से ताकत मिलती है। पिछली दो सदियों के दौरान मुस्लिम समाजों में ज़ुल्म और मज़लूमियत का एहसास पैदा हुआ है और वो अमेरिका के सभी राजनीतिक या फौजी कदम को इस्लाम और मुस्लिम दुनिया के खिलाफ साज़िश समझने लगे हैं। इसके बावजूद किसी भी मशहूर मुफ्ती या आलिम ने आतंकवाद या जिहाद का समर्थन नहीं किया, सिवाय इसके कि ये अपनी सुरक्षा या स्वाभाविक आज़ादी हासिल करने के लिए किया जाये। लेकिन मीडिया जहाँ एक तरफ इस्लाम की उचित और बुद्धिमत्तापूर्ण आवाज़ों को नज़रअंदाज़ करता है वहीं उन्होंने ओसामा बिन लादेन को इस्लाम का महान व्यक्तित्व बना डाला है और उसके आतंकवाद के खतरे को जिहाद करार देकर उसे दानव बना दिया है जैसे वो सलीबी जंग के समय का सलाहुद्दीन अय्यूबी या मुस्लिम उग्रवाद के इस समय में चे ग्वारा का मुस्लिम विकल्प हो।

इस सूरते हाल में इस्लामी दृष्टिकोण ये होगा कि सभी इंसान राष्ट्रीय नीति के साधन की हैसियत से हिंसा का त्याग करें और सभी देश एक ऐसी नीति नई विश्व व्यवस्था के निर्माण के लिए बनायें जो हमारे साझा मानवता, साझा संस्कृति और भौतिक विरासत, सभी इंसानों के लिए बराबरी और इंसाफ, सभी लोगों को सम्मान और आदर और समस्याओं को हथियारों की टक्कर से नहीं बल्कि बातचीत के ज़रिए हल करने की सुनिश्चितता पर आधारित हो।

मुस्लिम दुनिया तरक्की और लोकतंत्र चाहती है, लेकिन सबसे बढ़कर उसे शांति और बाहरी हस्तक्षेप और आंतरिक हिंसा से रिहाई चाहिए। मुस्लिम दुनिया को फिलिस्तीनियों या चेचन लोगों के काज़ को छोडना नहीं चाहिए और न सम्मान और आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले मुस्लिम समूहों के साथ हमदर्दी खत्म करनी चाहिए।

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