इस्लामी जीवन व्यवस्था
यदि इस्लाम पूरे जीवन में अल्लाह के आज्ञा पालन का नाम है और वह मात्र किसी विशेष समय की पूजा तक सीमित नहीं है, तो प्रश्न उठता है कि क्या इस्लाम में जीवन बिताने के वे सारे नियम मौजूद हैं, जो हर पहलू से हमारा मार्गदर्शन कर सकें। जी हाँ, इस्लाम निश्चित रुप से एस पूर्ण जीवन व्यवस्था प्रदान करता है। व्यक्ति के निजी जीवन से अर्न्तराष्ट्रीय सम्बन्धों तक सारे नियम और तरीक़े इस्लाम हमें देता है।इस्लाम की अपनी नैतिक व्यवस्था, आध्यात्मिक व्यस्था सामाजिक व्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था, आध्यात्मिक व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था पूरे विस्तार के साथ मौजूद है और जो मात्र काल्पनिक नहीं है, बल्कि जिसे प्रयोग में लाया जा चुका है। जीवन की सारी समस्याओं पर इस्लाम अपना एक दृष्टिकोण रखता है।यहाँ हम कुछ ऐसे प्रश्नों पर इस्लामी दृष्टिकोण जानने का प्रयास करेंगे जो आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में विशेष महत्व रखते है।
इस्लाम और मानवता
रंग, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र, देशों और राष्ट्रों में बंटी इस दुनिया में मानवता के प्रति इस्लाम का दृष्टिकोण विशेष महत्व रखता है।
इस्लाम इंसानों के सामने विश्व-बन्धुत्व का विचार पेश करता है। इंसानों को याद दिलाता है कि मानवता की शुरुआत एक पुरुष और एक स्त्री से हुई है। आज दुनिया में जितने भी इंसान पाये जाते है, वह सब एक माँ – बाप की संतान हैं। इन सब का बनाने वाला एक ही है और सब – के – सब एक ही तत्व से बने हैं। अतः ऊँच – नीच, छुत – छात एक निराधार चीज़ है और इस्लामी समाज में इसकी कोई जगह नहीं। क़ुरआन बताता हैः
“लोगों, अपने प्रभु से डरो जिस ने तुम को एक जीव से पैदा किया और उसी जीव से उसका जोड़ा बनाया। उन दोनों से बहुत – से पुरुष और स्त्री संसार में फैला दिये।”
मानव के प्रति इस्लाम के दृष्टिकोण को हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के शब्दों में स्पष्टतः समझा जा सकता हैः
“लोगों, होशयार रहो, तुम सब का मालिक एक है। किसी अरब को किसी ग़ैर अरब पर और किसी ग़ैर अरब को किसी अरब पर और किसी गोरे को किसी काले पर और किसी काले को किसी गोरो पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है, मगर तक़वा में।” (अर्थात अच्छे कामों और अल्लाह से डरने में)
इस्लाम की नज़र में ज़मीन पर बसने वाले सारे इंसान बराबर हैं। रंग, नस्ल, भाषा और क्षेत्र के आधार पर किसी को किसी पर कोई श्रेष्ठता नहीं। इस्लाम सारे इंसानों को एक सूत्र में बांधता और इंसान के अंदर की इन्सानियत को जगाता है।
इस्लाम और ग़ैर मुस्लिम
इस्लाम सारी मानवता के लिए अल्लाह की ओर से भेजी गई जीवन व्यवस्था है।इसी के साथ – साथ यह भी एक तथ्य है कि हर युग में इसको मानने और न मानने वाले अर्थात मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम के दो गिरोह रहे हैं। न मानने वालों के प्रति इस्लाम क्या रुख़ अपनाता है? हम इस प्रश्न का जवाब हासिल करने का प्रयास करेंगे।
इंसान को इस धरती पर पूरी आज़ादी के साथ भेजा गया है। उसके सामने सारी सच्चाइयां रख दी गई हैं और उसे पूरी आज़ादी दी गई है कि वह चाहे तो इस्लाम को स्वीकार करे और चाहे तो अस्वीकार कर दे। अल्लाह ने जबरी हिदायत का तरीक़ा नहीं अपनाया। सही और ग़लत रास्ता और उन पर चलने का फल लोगों के सामने रख दिया गया है फिर उन्हें चयन की आज़ादी दी गई। इस्लाम की बातें लोगों के सामने रखी जायें, लेकिन जो लोग उसे न मानें उन से कोई झगड़ा न किया जाय, सम्बन्ध ख़राब न किए जाएं, वे जिनको पूजते हैं, उन्हें बुरा भला न कहा जाये, उनका दिल न दुखाया जाए – यह है इस्लाम की शिक्षा ।क़ुरआन कहता हैः
“......अब जिस का जी चाहे मान ले और जिस का जी चाहे न माने।” (कहफ़ः21)
“ये लोग अल्लाह के सिवा जिनको पुकारते है, उन्हें गालिंया न दों।” (अनआमः108)
“दीन (धर्म) में कोई ज़बरदस्ती नहीं।” (बकराः256)
यदि किसी देश में इस्लामी सरकार हो तो उसका कर्तव्य है कि वह इस्लाम को न मानने वालों को भी देश सम्मानजनक नागरिक माने। उन्हें नागरिकों के सारे अधिकार मिलें, उनकी जान-माल और पूजास्थलों की सुरक्षा का प्रबन्ध हो।
इस्लाम और जिहाद
पश्चिमी सम्राज्य ने अपने औपनिवेशिक युग में जिहाद के विरुद्ध ख़ुब प्रचार किया, और जिहाद की भयानक तस्वीर पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और यह सब कुछ उस समय हुआ, जब स्वयं उनके अत्याचार से आधी दुनिया पीड़ित थी। आज भी यूरोप और अमेरिका अपने आर्थिक और राजनैतिक फ़ायदों के लिए तोपों, टैंकों, मिज़ाइलों, युद्धपोतों और आधुनिकतम हथियारों से जिस देश पर चाहें पिल पड़ें। सब तर्कसंगत और उचित समझाने की कोशिश की जाती है, पर जैसे ही इस्लाम और जिहाद का शब्द आया दुष्प्रचार का रिकार्ड खोल दिया जाता है।
‘जिहाद’ अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है – अनथक प्रयास। ऐसा प्रयास जिसमें कोई कसर न रह जाए, यहाँ तक की यदि जान लड़ानी पड़े तो उसमें भी पीछे न हटा जाये। जिहाद केवल युद्ध के मैदान ही में नहीं होता, बल्कि जिहाद वास्तव में उस सतत प्रयास का दूसरा नाम है, जो अल्लाह के दीन को फैलाने और अल्लाह की खुशी के लिए एक अच्छा बुराई रहित समाज बनाने के लिए किया जाए। इस प्रयास में कभी हथियार उठाने की ज़रुरत भी हो सकती है। परन्तु मूलतः जिहाद केवल जंग के हथियारों से नहीं होता। क़ुरआन ने कई बार जिहाद की अपील की है, केवल जान से नहीं, बल्कि माल से भी जिहाद करने को कहा है। इस्लाम जब अपने मानने वालों से जिहाद के लिए कहता है तो उसका अर्थ होता है कि ज़मीन से फ़साद और अन्याय को मिटाने के लिए ज़ोरदार प्रयास किया जाए और जो कुछ है सब दांव पर लगा दिया जाए।
इस्लाम और न्याय
यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि इस्लाम मात्र पूजा-पाठ के कुछ नियमों का नाम नहीं, बल्कि यह तो एक पूरी जीवन व्यवस्था है। इस्लाम की स्थापना का जो लक्ष्य पैग़म्बरों के समक्ष था, उसका केन्द्र बिन्दु न्याय ही रहा है। इस्लाम का लक्ष्य अन्याय और शोषण से मुक्त समाज की स्थापना है। न्याय की स्थापना का हुक्म कुरआन ने बार-बार दिया है और यही ताकीद हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने की है और उनका पूरा जीवन इस प्रयास का प्रतीक है।
इस्लाम में न्याय की कोई अधूरी कल्पना नहीं है। क़ुरआन हर व्यक्ति से कहता है कि वह न्याय पर क़ायम हो, केवल सामाजिक न्याय ही नहीं, व्यक्तिगत न्याय भी क़ायम हो। लोग अपने सारे मामले और सम्बन्धों में न्याय को न छोड़ें। क़ुरआन कहता हैः-
“हे ईमान लाने वालों। इंसाफ के ध्वजावाहक और अल्लाह के लिए गवाह बनो, चाहे तुम्हारा इन्साफ और तुम्हारी गवाही स्वयं तुम्हारे अपने या तुम्हारे माता-पिता और नातेदारों के विरुद्ध ही क्यो न पड़ती हो।” (आले इमरानः 135)
(उनका हक़) देने का आदेश देता है और अश्लील कर्म और बुराई और सरकशी से रोकता है” (अन-नहलः10)
“हे ईमान वालो। अल्लाह के लिए न्याय पर मज़बूती के साथ क़ायम रहने वाले बनों, इन्साफ की गवाही देते हुए और ऐसा हरगिज न हो कि किसी गिरोह की दुश्मनी तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम न्याय करना छोड़ दो। न्याय करो, यही कर्म परायणता के अनुकूल बात है।” (माइदाः8)
इस्लाम केवल उस न्याय की बात नहीं करता जो न्यायालय में मिलता है, बल्कि वह हर जगह, हर व्यक्ति के लिए न्याय का प्रबंध करता है। राजनैतिक, आर्थिक, और पारिवारिक जीवन में न्याय स्थापित करता है। उस न्याय का लाभ बच्चों, महिलाओं, मज़दूरों ग़रीबों और समाज के सताए हुए लोगों तक पहुँचता है।
इस्लाम और अपराध
जिस प्रकार प्रकाश और अंधेरा एक जगह इकठ्ठा नहीं हो सकते, उसी तरह इस्लाम की उपस्थिति में अपराध अपना डेरा नहीं डाल सकता।इस्लामी कानून ऐसी नैतिक और आर्थिक व्यवस्था देता है, जो अपराध की ओर जाने से रोकती है, फिर इस्लाम ऐसा वातावरण बनाता है, जिसमें अपराध का अवसर – से – कम रह जाता है। इसके बाद अपराध के विरुद्ध ऐसी कारगर सज़ाओं का हुक्म देता है, जो अपराधियों को हतोत्साहित कर सकें।
इस्लाम की प्रस्तावित सज़ाओं पर पश्चिम में बढ़ी आपत्तियां उठाई जाती हैं। उसे क्रूर और कठोर की संज्ञा दी जाती है। सच यह है कि सज़ाओं और दण्ड के बीच पूरा संतुलन रखा गया है। जैसा अपराध वैसी सज़ा। जघन्य अपराध पर कड़ी सज़ा न दी जाए तो और क्या किया जाए। घिनौने अपराध पर कड़ी सज़ाओं से मानवीय पक्ष कमजोर नहीं पड़ता, प्रबल होता है। हत्या, बलात्कार, चोरी जैसे अपराध हर दौर में होते रहे हैं, मगर इतिहास साक्षी है कि जब-जब कोई इस्लामी समाज बना है, उस ने इनका पूर्ण उन्मूलन किया है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का उदाहरण ले लीजिए, जहां हर सेकेंड चोरी और हर कुछ मिनट पर हत्या होती है और बलात्कार तो शायद अपराध रहा भी नहीं। इसकी तुलना में सऊदी अरब को ले लें, जहां चोरी की घटनायें बस कभी-कभी ही होती है और क़त्ल तो शायद पूरे वर्ष में कभी होता है।
इस्लाम और औरतें
इस्लाम से जुड़ा एक बहुचर्चित विषय महिलाओं का भी है। यह आरोप लगाया जाता है कि इस्लाम औरतों के साथ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता है। ऐसे आरोपों को स्वर मूलतः पश्चिम में दिया जाता है।
यदि ये लोग यह चाहते हों कि इस्लाम भी महिलाओं के साथ उस व्यवहार की पुष्टि करे, जो पश्चिम में उनके साथ हो रहा है तो उसका जवाब साफ शब्दों में ‘नहीं’ हैं। दोनों का आदर्श एक दूसरे से उलटा है। इस्लाम महिलाओं को जो शालीनता, गौरव, सम्मान और संरक्षण देता है, उसका कोई जोड़ उस सभ्यता से कैसे सम्भव है, जहां उसे काल गर्ल (CALL GIRL) बनाया जाता हो, उसे नंगा किया जाता हो और उसे पुरुषों की इच्छाओं की पूर्ति की एक सामग्री मान लिया गया हो। पश्चिमी मापदण्ड पर इस्लामी महिला भला कैसे फिट हो सकती है। यहाँ यह बात अपनी जगह किसी हद तक सही है कि मुस्लिम समाज में कहीं – कहीं महिलाओं को वे अधिकार प्राप्त नहीं जो इस्लाम उन्हें देता है। और उसके कारण उन्हें कठीनाइयों का सामना करना पड़ता है। महिलाएं और पुरुष अपने इस्लामी अधिकारों और कर्तव्यों से पूरी तरह परिचित नहीं और उसे पूरी तरह कार्यन्वित नहीं करते।
जहाँ तक इस्लामी क़ानून का मामला है उसने महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार दिये हैं। आज भी हमारा समाज बेटियों को बोझ समझता है। इस्लाम बेटे और बेटी के बीच कोई भेदभाव नहीं करता। इंसान की हैसियत से दोनों को बराबर समझता है। शारीरिक और मनोवैज्ञानिक हैसियत में दोनों कै बीच बड़ा अंतर होता है। इस्लाम उस प्राकृतिक अंतर को सामने रखते हुए अधिकार और कर्तव्य की सूची बनाता है। इस अंतर को सामने रखते हुए महिलाओं को जो विशेष स्थान मिलना चाहिए वह उसे प्रदान भी करता है और उस का संरक्षण भी करता है, उसे पुरुषों की दया पर नहीं छोड़ता। इस्लाम चाहता है कि महिलाओं पर उनके सामर्थ्य से अधिक बोझ न डाला जाए। पुरुषों का महिला बन जाना और महिलाओं का पुरुष बन जाना प्रकृति के विरुद्ध है और इस्लाम के लिए अस्वीकारीय है।
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः-
“औरतों से अच्छा व्यवहार करने के बारे में मेरी वसीयत क़ुबूल करो।” (बुख़ारी, मुस्लिम)
क़ुरआन में हैः-
“और उन से अच्छा बरताव रखो।” (निसाः19)
“औरतों के अधिकार मर्दों पर मारुफ़ तरीक़े पर ऐसे ही हैं, जैसे मर्दों के अधिकार औरतों पर हैं और मर्दों को उन पर एक दर्जा हासिल है।” (बक़राः 228)
विवाह और तलाक़
महिलाओं से सम्बन्धित एक और महत्वपूर्ण विषय विवाह और तलाक़ का भी है। विवाह जिसे निकाह कहा जाता है एक पुरुष और एक स्त्री का अपनी आज़ाद मर्ज़ी से एक दूसरे के साथ पति और पत्नी के रुप में रहने का फ़ैसला है। इसकी तीन शर्ते हैः पहली यह कि पुरुष विवाहिक जीवन की ज़िम्मेदारीयों को उठाने की शपथ ले, एक निश्चित रक़म जो आपसी बातचीत से तय हो, मेहर के रुप में औरत को दे और इस नये सम्बन्ध की समाज में घोषणा हो जाये। इसके बिना किसी मर्द और औरत का साथ रहना और यौन सम्बन्ध स्थापित करना ग़लत, बल्कि एक बड़ा अपराध है।
यह सम्बन्ध दोनों मे से किसी एक की इच्छा पर ख़त्म भी हो सकता है, जिसका अधिकार इस्लाम देता है। इसी का नाम तलाक़ या सम्बन्ध – विच्छेद है। इसका एक नियम और तरीक़ा है, स्त्री के लिए पुरुष के लिए भी कि यदि उन में से कोई वैवाहिक जीवन से संतुष्ट न हो और मिन कर रहना सम्भव न रह जाए ते बातए हुए तरीके से – कई चरणों में – दोनों अलग हो जाएँ और चाहें तो दूसरा विवाह कर लें। तलाक़ कोई मज़ाक नहीं। कोई यदि इसे गम्भीरता से न ले तो यह उस व्यक्ति का दोष होगा, नियम का नहीं।
तलाक़ को इस्लाम ने बिल्कुल मज़बूरी की हालत में देने की अनुमति दी है, वरना इस के नतीजों को देखते हुए मर्द को इससे रोका गया है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः
“कोई मोमिन अपनी बीवी से नफ़रत न करे। अगर उसे उसकी एक आदत नापसंद है तो दूसरी आदत पसंद हो सकती है।” (मुस्लिम)
अगर पति – पत्नी तलाक़ पर आमादा ही हों तो इस्लामी तरीक़ा यह है की तलाक़ का आख़िरि फैसला करने से पहले एक – दो आदमी लड़के की ओर से और एक – दो आदमी लड़की की ओर से मिल बैठें और कोई ऐसी सूरत निकालें कि आपस में दोनों का मेल – मिलाफ हो जाए और तलाक़ की नौबत न आए। लेकिन अगर किसी तरह समझौता न हो सके और तलाक़ के सिवा कोई चारा न हो तो फिर मर्द, औरत को सिर्फ एक तलाक़ दे यानी कहे कि मैने तुझे तलाक़ दी। तलाक़ दो इंसाफ करने वाले गवाहों की मौजूदगी में दी जाए। तलाक़ ‘तुहर’ की हालत (यानी माहवारी के बाद की हालत) में दी जाए, जिस में शौहर ने बीवी के साथ सोहबत न की हो।
तलाक़ के बाद औरत को ‘इद्दत’ यनी एक ख़ास मुद्दत ग़ुजारनी होगी। इस मुद्दत में मर्द फिर से औरत को अपना सकता है। अगर मर्द अपनाने के लिए तैयार न हो तो औरत अलग हो जाएगी। अगर बाद में दोनों चाहें तो दोबारा निकाह हो सकता है।
इस्लाम में तलाक़ का यही सही तरीक़ा है। इस में मर्द को सोच – विचार का काफी मौक़ा मिल जाता है।
अगर औरत मर्द से अलग होना चाहती है, तो वह मर्द से ‘खुलअ’ करा सकता है।
इस्लाम और ग़रीबी
इस्लामी आर्थिक व्यवस्था का परम उद्देश्य यह है कि धन धनी लोगों के बीच ही सिमट कर न रह जाए और ग़रीब निर्धनता की पीड़ा में सिसकता न रहे। क़ुरआन चेतावनी देते हुए कहता है कि धन सिर्फ़ धनी लोगों के बीच ही चक्कर न काटता रहे।
इस्लाम ने सूद (ब्याज) पर प्रतिबन्ध लगा दिया है, जो लोगों के विशेष कर ग़रीब लोगों के शोषण का बड़ा ज़रिया है। धनी लोग तो सूद से हुई आय से मौजमस्ती करते हैं, जबकि ग़रीबों का जीवन सूद की चक्की में पिसता रहता है।
इस्लाम धनवान लोगों को इस बात पर उभारता है कि वे धन जमा करने का रोग न पालें। उन्हें उभारता है ग़रीबों के उत्थान पर अपना धन खर्च करें। धनी लोगों पर वार्षिक जक़ात अनिवार्य है, जो ग़रीबों और ज़रुरतमन्दों पर ख़र्च होता है। क़ुरआन धनवनों को बार – बार याद दिलाता है कि उन के माल में ग़रीबों और आर्थिक रुप से वंचित रह जाने वाले लोगों का हक है।
“और उनके मालों में मांगने वालों का और उनका हक़ है, जो पाने से रह गए हों।” (ज़ारियातः19)
अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते है-
“वह मोमिन नहीं है, जो ख़ुद तो पेट भर खाए और उस का पड़ोसी भूखा सोये।” (मिश्कात)
यह इस्लामी राज्य का कर्तव्य है कि देश में कोई नंगा और भूखा न सोये। इस्लामी राज्य की आर्थिक नीति शोषण के तमाम दरवाज़े बन्द करके ग़रीबी का उन्मूलन करती है। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और उनके बाद खलीफ़ा युग का इतिहास इसका गवाह है।
इस्लाम और आतंकवाद
अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए आतंक से काम लेने का तरीक़ा पुराना है। कभी यह काम व्यक्ति की ओर से हुआ है, कभी व्यक्तियों के किसी समूह की ओर से और कबी सत्ता और सरकार की ओर से। आधुनिक युग का इतिहास बाताता है कि आतंकवाद की शुरुआत यूरोप से हुई और वहीं इसे राजनैतिक साधन बनाया गया।
जहाँ तक इस्लाम का सवाल है, इसमें आतंकवाद की कहीं कोई गुंजाईश नहीं है। इस्लाम शांति का धर्म है और इसी को पसंद करता है। इंसानी जान और माल का आदर करना सिखाता है। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सही साधन अपनाने का पक्षधर है।
“ज़मिन में बिगाड़ पैदा न करो।” (बक़राः19)
“और ज़मीन में उस के सुधार के बाद बिगाड़ न फैलाओ और भय तथा लालसा से उसे पुकारो। निस्सन्देह अल्लाह की दयालुता उत्तमकारों के समीप है।” (आराफः56)
“जिस ने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या ज़मीन में फ़साद फैलाने के सिवा किसी और कारण से क़त्ल किया, तो मानों उसने समस्त मनुष्यों की हत्या कर डाली और जिस ने किसी की जान बचायी उसने सारे इंसानों को जीवनदान किया।” (मायदाः32)
इस्लाम कैसा समाज बनाता है?
इस्लाम ऐसा आदर्श समाज स्थापित करता है, जो चैन और शांति की जगह हो। जहां ऊँच – नीच, पूछ – छात, ज़ात – पात, ग़रीब – अमीर का भेदभाव न हो और इस कारण कोई पक्षपात न हो जहां आदमी का ग़ुलाम न हो। हर एक को सच्ची आज़ादी प्राप्त हो। हर कोई गर्व से सिर उठा कर चल सकता है। कोई भूखा नंगा और बेसहारा न हो। लोग एक – दूसरे का सहारा देने वाले हों। हर एक को न्याय प्राप्त हो । महिलाओं का सम्मान हो, उनके अधिकारों की रक्षा हो और उन्हें पुरुषों की हवस का निशाना न बनना पड़े। अवैध काम करने वालों को बार – बार सोचना पड़े। जहां नैतिक मूल्यों का आदर किया जाता हो, यहाँ युवकों का चरित्र विश्वसनीय हो और वे रचनात्मक कामों में लगे हो, जहाँ भलाई के कामों में प्रतिस्पर्धा हो और लोग स्वच्छता और पुर्णता की ओर बढ़ रहे हों।
इस्लाम कैसा इंसान बनाता है?
इंसान को अच्छा इंसान बनाने की इस्लाम से बेहतर दूसरी कोई व्यवस्था नहीं। इस्लाम मनुष्य को उसका सही स्थान बताता है, उसकी महानता का रहस्य उस पर खोलता है उस का दायित्व उसे याद दिलाता है और उसकी चेतना को जगाता है।उसे याद दिलाता है कि उसे एक उद्देश्य के साथ पैदा किया गया है, निरर्थक नहीं। इस संसार का जीवन मौजमस्ती के लिए नहीं है। हमें अपने हर काम का हिसाब अपने मालिक को देना है। यहां हर काम सोच – समझ कर करना है कि यहाँ हमारे कामों से समाज सुगंधित भी हो सकता है और हमारे दुष्कर्मों से एक अभिशाप भी बन सकता है। इस्लाम जो इंसान बनाता है वह दूसरों का आदर करने वाला, सच्चाई पर जमने वाला, अपना वादा निभाने वाला, कमज़ोर का सहारा बनने वाला और भलाइयों में पहल करने वाला होता है। वह स्वंय भी बुराइयों से बचता है और दूसरों को भी इस से रोकता है। इस्लामी आदर्शों में ढ़ला हुआ इंसान भलाइयों का पुतला और बुराइयों का दुश्मन होता है।
आख़िरी बात
इस्लाम के इस संक्षिप्त से परिचय से उसका अर्थ और जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण हमारे सामने है। यह तथ्य भी साफ है कि धर्म सनातन है। अल्लाह ने जब – जब अपने दूत भेजे उनके साथ इस्लाम ही आया और लोगों तक पहुँचा। सारी धार्मिक पुस्तकों में क़ुरआन ही सुरक्षित हमारे पास है और तमाम धर्मगुरओं में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जीवन पूरे विस्तार के साथ हमारे पास है। हमें इन दोनों चीज़ों की ओर दौड़ते हैं जो खो जाने के बाद हमें मिल गई हो। सच्चाइयां भिन्न – भिन्न स्थानों पर हो सकती हैं,परन्तु हमें समुचित और एकत्रित सच्चाई की ओर हाथ बढ़ाना चाहिए। अन्त में हम अल्लाह के दूत हज़रत यूसुफ (अलैहिस सल्लाम) की बात पर अपनी बात ख़त्म करना चाहेंगें जो उन्होंने जेल के साथियों से कही थीः “हमारा यह काम नहीं कि ईश्वर के साथ किसी को साझी ठहरायें। वास्तव में यह अल्लाह का उदार अनुग्रह है हम पर और सारे लोगों पर (कि उसने सिवा किसी का बन्दा हमें नहीं बनाया) परन्तु अधिकतर लोग कृतज्ञता नहीं दिखाते। हे जेल के साथियों, तुम स्वयं ही सोचो कि बहुत से विभिन्न प्रभु अच्छे हैं या वह एक ईश्वर जिसे सब पर प्रभुत्व प्राप्त है? उसे छोड़कर तुम जिन की बन्दगी कर रहे हो वे इसके सिवा कुछ नहीं हैं कि बस कुछ नाम हैं जो तुमने और तुम्हारे बाप – दादा ने रख लिए हैं, अल्लाह ने उनके लिए कोई सनद नहीं भेजी। शासन की सत्ता अल्लाह के सिवा तुम किसी की बन्दगी न करो। यही ठेठ सीधी जीवन प्रणाली है, परन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं।” (अल – यूसुफः 38-40)
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