सैयद मंसूर आग़ा
7 फरवरी, 2013
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
मुझे इस खुशी का खुद अनुभव है जो माँ बाप को उस वक़्त हासिल होती है जब तमाम मुश्किलों के बावजूद किसी औलाद को, खासकर बेटी को कोई अविश्वसनीय कामयाबी हासिल होती है। शायद इसीलिए जब मुंबई से ये खबर आई कि इस साल सी.ए. की परीक्षा में हमारी क़ौम की एक बेटी 'प्रेमा जय कुमार' ने टॉप किया है, तो खुशी के एहसास से आंखें छलक गईं। प्रेमा की ये कामयाबी सिर्फ इसलिए खास नहीं कि उसने एक कठिन परीक्षा में टॉप कर लिया बल्कि ये सफलता इसलिए महत्वपूर्ण है कि जिन हालात में उसने ये मैदान जीता है वो शिक्षा को जारी रखने के लिए बिल्कुल भी अनुकूल नहीं थे।
प्रेमा का संबंध जिस परिवार से है उसमें न तो शिक्षा हासिल करने की परंपरा है और न आमदनी ही इतनी है कि जिसमें बच्चों की शिक्षा को जारी रखा जा सके। रिहाइश भी ऐसे इलाके में नहीं है जहाँ पढ़ने लिखने का माहौल हो और पढ़ाई के लिए सुकून मिल सके। ऐसे हालात में न सिर्फ पढ़ लेना बल्कि पहली ही कोशिश में सी.ए. जैसा मुश्किल इम्तेहान पास कर लेना और उसमें शीर्ष स्थान पर आ जाना शिक्षा जगत की एक दुर्लभ घटना है। ये बात उल्लेखनीय है कि आमतौर पर सी.ए. परीक्षा का हर चरण एक ही प्रयास में पार कर लेना बहुत कठिन होता है और इसका रिज़ल्ट बमुश्किल 15 फीसद रहता है। सी.ए. करते करते कई लोगों की जवानी ढल जाती है जबकि प्रेमा की उम्र सिर्फ 24 साल है और उसने सी.ए. के प्रारंभिक पाठ्यक्रम को एम. काम. परीक्षा के साथ पास किया है। इतना ही नहीं प्रेमा ने अपने छोटे भाई धनराज को अपने साथ लगाए रखा, इसलिए उसने भी अपनी बहन के साथ सी.ए. कर लिया और 22 वीं पोज़ीशन हासिल कर ली। ये भी कोई मामूली बात नहीं, खासकर जबकि शिक्षा का खर्च उठाने के लिए वो वोडाफोन के कॉल सेंटर में काम करता है। शायद ऐसा कम ही हुआ हो जब बहन भाई ने एक साथ कामयाबी हासिल की।
प्रेमा जय कुमार का सम्बंध एक श्रमिक परिवार से है। उसके पिता जय कुमार पेरूमल ऑटो रिक्शा चलाते हैं। माँ लिंगामुल घरेलू महिला हैं। हर तरह से प्रेमा ने मुंबई का नाम रौशन किया लेकिन ये परिवार तमिलनाडु के दूरदराज़ गांव सनकापुरम जिला विलुपुरम से बीस साल पहले मुंबई में आकर बस गया था। मुंबई में कुछ दिनों जय कुमार ने एक मिल में काम किया, लेकिन वेतन कम था इसलिए आटो रिक्शा चलाने लगे, जिसमें अब 15 हजार रुपये मासिक तक मिल जाता है। माँ ने भी कुछ दिनों एक फैक्टरी में काम किया लेकिन सेहत ने साथ नहीं दिया। नौकरी छोड़ दी। तंगी के बावजूद उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया। बड़ी लड़की की तो शादी हो गई, जो अब दो बच्चों की माँ है। छोटी बेटी प्रेमा पढ़ाई में शुरू से तेज़ थी, इसलिए पढ़ती चली गई। बी. काम. किया और एम. काम. के साथ सी.ए. ज्वाइन कर लिया और 24 साल की उम्र में वो कारनामा कर दिखाया, जिस पर उसके माँ बाप, उसके राज्य तमिलनाडु को ही नहीं बल्कि पूरे मजबूर हिंदुस्तान को फख़्र होना चाहिए। मजबूर हिंदुस्तान को इसलिए कि हमारे देश की बड़ी आबादी विभिन्न प्रकार की मजबूरियों से दो चार है और सबसे बड़ी मजबूरी कम हिम्मती (साहस की कमी) है।
चार लोगों का पेरूमल परिवार मलाड इलाके में 280 वर्ग फुट के एक कमरे के मकान में रहता है। ये मकान एक बड़ी बिल्डिंग में है, जो मुंबई की भाषा में चाल कहा जाता है। हर चाल में ऐसे ही एक कमरे के आशियानों में पूरे पूरे परिवार गुज़ारा करते हैं। ज़ाहिर है उनमें लिखने पढ़ने के लिए कोई माहौल नहीं होता, लेकिन प्रेमा और धनराज ने इसी माहौल में रहकर पढ़ाई की। उन्होंने किसी आला अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल से नहीं बल्कि सरकारी प्राइमरी स्कूल से पढ़ना शुरू किया और सरकारी कॉलेजों में ही पढ़ाई पूरी की। उसी की बदौलत छोटे भाई ने भी पढ़ लिया। घर की आमदनी में मदद करने के लिए वो ट्यूशन पढ़ाती रही। घर के कामकाज में माँ का कुछ हाथ भी बटाती होगी। ऐसी स्थिति में शिक्षा के लिए ऐसी एकाग्रता कि हर परीक्षा में बहुत ही अच्छे नंबर, बी. काम. में युनिवर्सिटी में सेकंड पोज़ीशन और एम. काम. के साथ सी.ए. परीक्षा के शुरुआती चरण पास कर लेना और फिर फाइनल में टॉप कर लेना, उसकी दृढ़ इच्छाशक्ति, प्रतिभा और एकाग्रता की असाधारण क्षमता का करिश्मा है।
प्रतिभा तो खुदादाद (खुदा की दी हुई) होती है मगर ऐसी शानदार कामयाबी तभी मिलती है जब वक्त का सही इस्तेमाल किया जाए और सेहत की हिफाज़त के साथ जी तोड़ मेहनत की जाए। प्रेमा ने सी.ए. के फाइनल परीक्षा में 800 में से 607 प्वाइंट हासिल किए हैं। उसकी सफलता की कुंजी उसके जीवन का अनुशासन है। वो हर काम तय टाइम टेबल के अनुसार करती रही और जो काम करती इसमें खुद को पूरी तरह एकाग्र कर लेती। इसलिए आज अच्छी अच्छी नौकरियों की ऑफ़र उसके पास आर रही हैं जबकि शिक्षा प्राप्त युवाओं की बड़ी संख्या को शिकायत रहती है कि ठोकरें खाने के बावजूद नौकरी नहीं मिलती, प्रेमा की कहानी वास्तव में नई पीढ़ी के लिए एक मार्गदर्शन है। क्षमता पैदा कर ली जाए तो क़द्र करने वाले खुद मिल जाते हैं। क्षमता पैदा करने के लिए अनुशासन के साथ सही दिशा में मेहनत की आवश्यकता होती है जो असंभव बिल्कुल भी नहीं अगर दिल में लगन हो।
आमतौर पर आमदनी में तंगी की गाज बच्चों की पढ़ाई पर, खासकर लड़कियों की शिक्षा पर गिरती है। लेकिन प्रेमा के परिवार बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने खुद पढ़े लिखे न होने के बावजूद बच्चों की पढ़ाई के महत्व को समझा। जिस क़ौम में बेटियों को बोझ समझा जाता है, कोख में ही मार दिया जाता है, उसमें बेटी को ऐसा प्रोत्साहन वास्तव में एक अच्छी मिसाल है।
वर्ष 1983 में जब तमिलनाडु के एक गांव 'पेयुली' जिला कोज़ीकोड की एक लड़की पी. टी. ऊषा ने कुवैत में एशियाई खेलों की प्रतियोगिता में 400 मीटर की दौड़ में रिकॉर्ड बनाया, तो मुझे याद है कि मौलाना मोहम्मद अली जौहर अकादमी के पुरस्कार वितरण समारोह में पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह ने कहा कि अब हिंदुस्तान को दुनिया में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में हमारी बेटियाँ आगे निकल रही हैं। ऐसी ही मिसाल टेनिस स्टार साईना नेहवाल की है। उसके जन्म पर तो उसकी दादी को बड़ा दुख हुआ था लेकिन उसके पिता और माँ ने उसकी प्रतिभा को समझा, उसके साथ खुद को खपाया और आज दौलत उस पर बरस रही है और वो दुनिया में हिंदुस्तान का नाम रौशन कर रही है। इस तरह की छोटी बड़ी और भी मिसालें हैं। इस बारे में एक अनुभव का ज़िक्र भी अनुचित नहीं होगा। कुछ साल पहले राइफल एसोसिएशन जौहड़ी, ज़िला बाग़पत ने (जो गांव में हमारी खानदानी हवेली में स्थापित है) बाग़पत एक पूर्व महिला डी.एम. कामिनी रत्न के निमंत्रण पर यूपी के पूर्वी ज़िला सुल्तानपुर में छात्रों और छात्राओं के लिए शूटिंग कैम्प लगाया, जिसमें बड़ी संख्या में मुस्लिम लड़कियों ने भी हिस्सा लिया। ट्रायल के बाद जिन बच्चों में प्रतिभा नज़र आई, हमारी एसोसिएशन के प्रमुख डॉक्टर राजपाल सिंह ने उन पर खास ध्यान दिया। इसलिए कई बच्चों को मिशन ओलंपिक के तहत सेना ने अपने स्कूल में दाखिला दे दिया। कई को नौकरी दे दी। इस इलाके की तीन लड़कियों को इंडियन एयर लाइंस ने अपनी टीम में शामिल कर लिया और वज़ीफे दे दिए। इनमें से एक लड़की महजबीन बानो को हिन्दी माध्यम से इन्टर की परीक्षा सेकण्ड डिवीज़न से पास करने के बावजूद स्पोर्ट्स कोटे में सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली में प्रवेश मिल गया। उसकी बड़ी बहन को खेल कोटे में यू.पी. पुलिस में सब-इंस्पेक्टर की नौकरी मिल गई। महजबीन बानो ने सख्त मुश्किलों के बावजूद अपनी मेहनत और लगन से बी.ए. पास किया। खुशकिस्मती से पूना के साधना सेंटर फॉर मैनेजमेन्ट ने उसको मानद एमबीए में प्रवेश दे दिया, जहां वो आखरी साल में पढ़ रही है। इसी दौरान एक कंपनी ने उसे एक अच्छी नौकरी की ऑफ़र भी दे दी। उल्लेखनीय बात ये है कि राज्य स्तर के एक कम्पटीशन के दौरान महजबीन के पिता का आकस्मिक निधन हो गया। मगर उसके भाई शोएब ने कहा कि कम्पटीशन खत्म होने तक उसको ये न बताया जाये। इन बहनों ने भी संसाधन की तंगी और गाँव में शिक्षा का माहौल न होने के बवजूद स्थिर होने का परिचय दिया। खास बात ये है कि बानो नमाज़ और रोज़ा की भी पाबंद है। मिसालें और भी हैं, लेकिन इन बहनों के इस ज़िक्र का मकसद इसके सिवा कुछ नहीं कि अगर थोड़ी सी रहनुमाई मिल जाए और घर से हौसला मिल जाए तो सलाहियतें और ज़हानतें निखर आती हैं और संसाधनों की तंगी के बावजूद बच्चे कामयाब हो जाते हैं।
प्रेमा की इस कामयाबी पर इनामों की झड़ी सी लग गई है। महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकर नारायणन ने राज भवन बुलाकर उसे सम्मान दिया और एक लाख रुपये का चेक दिया। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री जे. जयललिता ने दस लाख रुपये, स्टेट शिपिंग मिनिस्टर जी. के. वासन ने पांच लाख रुपये और डीएमके प्रमुख एम. करुणानिधि ने एक लाख रुपये देने की घोषणा की। ये शुरूआत है। असल इनाम तो उसको आगे मिलेगा और सबसे बड़ा पुरस्कार वो संतुष्टि है जो ऐसी सफलता के बाद मिलती है और जिसके बाद तरक्की के दर खुलते चले जाते हैं। यही कमज़ोर तब्कों और लोगों के सशक्तिकरण (इम्पावरमेंट) का रास्ता है। अच्छी बात ये है कि प्रेमा को इस उपलब्धि पर कोई अभिमान नहीं है। गंभीरता उसके चेहरे और उसकी बातचीत से साफ नज़र आती है। उसे ये एहसास है कि उसके पिता ने उसके लिए बड़ी कुर्बानी दी है। अब वो उनको राहत पहुँचाने वाली बन जाना चाहती है। उसकी सफलता से न जाने कितने बच्चों को प्रोत्साहन मिलेगा।
विवरण और भी हैं, लेकिन ध्यान देने लायक़ बात ये है कि संकल्प, हौसला और मेहनत मूल तत्व हैं। हमारी ये ज़िम्मेदारी है कि देश और मिल्लत के जो बच्चे बुद्धिमान हैं उनकी पहचान स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही की जाये। इन पर ध्यान दिया जाएगा, तो अच्छे नतीजे हासिल हो सकते हैं। दूसरी अहम बात ये है कि बच्चियां स्वाभाविक रूप से मेहनती होती हैं। उन्हें अच्छी शिक्षा दी जाए। घर का माहौल चुस्त और दुरुस्त रखा जाए तो वो भी खानदान का नाम रौशन कर सकती हैं। आज शिक्षा का ही बोलबाला है और लड़कियां लड़कों से आगे निकल रही हैं। इसके बावजूद कुछ परिवारों में लड़कों को अनावश्यक प्राथमिकता और उनके मुकाबले लड़कियों के साथ भेदभाव किया जाता है। मुस्लिम परिवारों में ये भेदभाव नहीं होना चाहिए। हमारे रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का फरमान है कि जिसने लड़कियों की अच्छी तरह तालीम व तर्बियत की वो यौमे आखिरत (अंतिम निर्णय) में मुझसे उतना ही करीब होगा जितनी शहादत की उंगली और बीच की उंगली।
सैयद मंसूर आग़ा आल इंडिया एजुकेशनल मुवमेंट के उपाध्यक्ष और राइफल एसोसिएशन जौहड़ी के संरक्षक हैं।
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