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Hindi Section ( 25 Dec 2013, NewAgeIslam.Com)

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Importance of Female Education महिलाओं की शिक्षा का महत्व और आवश्यक रणनीति

 

सुरैय्या बतूल अल्वी

29 नवम्बर, 2013

मानव समाज के निर्माण और विकास के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण, ज्ञान और जागरूकता व चेतना का बुनियादी महत्व है। दूसरी तरफ ये भी सच है कि महिलाएं समाज का आधा हिस्सा हैं इसलिए इस वर्ग की शिक्षा और प्रशिक्षण समाज की सुधार और कल्याण के लिए ज़रूरी और अपरिहार्य है।

शब्द शिक्षा और प्रशिक्षण दो शब्दों से मिलकर बना है। एक शिक्षा, यानि ज़िंदगी गुज़ारने के लिए बुनियादी गुणों की चेतना देना, सिखाना, पढ़ाना और साथ में मालूमात देना है और दूसरा शब्द प्रशिक्षण है, जिसका मतलब परवरिश करना, अच्छी आदतें, यानी नैतिकता के फायदे सिखाना और बुरी नैतिकता से बचाना और बच्चों में खुदा का डर और तक़्वा (धर्मपरायणता) पैदा करना है। इसलिए शिक्षा और प्रशिक्षण दोनों का इस्लाम में बुनियादी महत्व है।

इस्लामी दृष्टिकोण

इस्लाम ने ज्ञान और धर्मपरायणता यानि शिक्षा और प्रशिक्षण को प्रारंभ से ही बुनियादी महत्व दिया। शरीयते इस्लामी ने मर्दों व औरतों दोनों को समान अधिकार और कर्तव्य दिये हैं और दोनों ही अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। ये बात स्पष्ट है कि जब तक अपने कर्तव्यों की पूरी तरह जानकारी न हो, कोई अपने कर्तव्यों से सही तौर पर बरी नहीं हो सकता, इसलिए जब तक धर्म का ज्ञान हासिल न किया जाए तब तक धर्म के आदेशों को पूरा करना असंभव है। यही कारण है कि इस्लाम ने ज्ञान प्राप्त करने को मर्द और औरत दोनों के लिए समान रूप से ज़रूरी करार दिया है। नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का इरशाद है:

'हर मुसलमान (मर्द और औरत) पर इल्म हासिल करना फ़र्ज़ है।' (तिब्रानी: 10/ 240)

कुरान और हदीस में इल्म (ज्ञान) बेमिसाल गुणों को बताया गया है बल्कि मालूम होता है कि इस्लाम में ज्ञान प्राप्त करने से बढ़कर कुछ भी नहीं। कुरान में इरशाद होता है:

''दरहक़ीक़त अल्लाह के बंदों में से सिर्फ इल्म रखने वाले लोग ही उससे डरते हैं।'' (सूरे फातिर: 28)

पैगंबर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम पर जो पहली वही नाज़िल हुई उसकी शुरुआत भी शब्द इक़रा (यानि पढ़ो) से हुआ था। हक़ीक़त भी यही है कि ज्ञान वाले लोगों का मुक़ाबला अज्ञानी लोग कैसे कर सकते हैं। इसलिए इस्लाम ने ज्ञान प्राप्त करने की बहुत ताकीद की है। मिसाल के तौर पर कुरान में इरशाद होता है:

''उनसे पूछो! क्या जानने वाले और न जानने वाले दोनों कभी यकसाँ (समान) हो सकते हैं'' (सूरे अलज़ुमर: 9)

पैग़म्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के निम्नलिखित कथन हदीस की कई किताबों में मौजूद है:

''इबादतगुज़ार के मुक़ाबले में आलिम को वही फज़ीलत हासिल है जो चौदहवीं रात को चाँद को आम तारों पर।''

''उलमा नबियों के वारिस हैं, क्योंकि नबियों ने विरासत में दिरहम व दीनार नहीं छोड़े बल्कि इल्म छोड़ा है। सो जिसने इल्म हासिल कर लिया उसने नबियों की विरासत में से बड़ा हिस्सा हासिल कर लिया।'' (सही तिर्मज़ी : 2159)

ज्ञान के महत्व के बारे में बतौर नमूना कुछ आयतें और हदीसें पेश की गयी हैं जिनसे ज्ञान की अत्धिक महत्ता साबित हो रही है। मगर ये बात याद रखने की है कि ये ज्ञान के जितने फायदे बयान हुए हैं, सिर्फ उसी आलिम के लिए हैं जो खुद अपने ज्ञान का पाबंद है। उसका पूरी तरह पालन करता है। इस ज्ञान के माध्यम से अल्लाह को राज़ी करने में व्यस्त रहता है। उसके आदेशों का पूरी तरह पालन करता है और आदेशों के न मामने से दूर रहता है क्योंकि इल्म बिना अमल के बवाल होता है।

इस्लाम में महिलाओं की शिक्षा और प्रशिक्षण की विशेष व्यवस्था

इस्लाम से पहले अनपढ़ समाजों में औरतें हर प्रकार के अधिकारों से वंचित थीं। जहां महिलाएं जीवन के अधिकार से वंचित हो, वहाँ पढ़ने लिखने के अधिकार का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। मगर इस्लाम ने जहां महिलाओं को उच्च स्थान दिया है उस पर एक एहसान ये भी किया है कि उसे शिक्षा और प्रशिक्षण में मर्दों के बराबर ही अधिकार दिये हैं। शरीयते इस्लामी ने मर्दों और औरतों दोनो को सम्बोधित किया है, धार्मिक आदेशों का पालन दोनों पर वाजिब है और क़यामत के दिन मर्दो की तरह औरतें भी खुदा के सामने जवाबदेह हैं इसलिए औरतों के लिए भी ज्ञान प्राप्त करना जो उनको मुख्य धार्मिक मामलों की शिक्षा दे और इस्लामी आदेशों के अनुसार जीवन जीने का ढंग सिखाए वो उनके लिए फ़र्ज़े ऐन करार दिये गये हैं। फ़र्ज़े ऐन का मतलब है कि इसे सीखना ज़रूरी है और अगर औरत या मर्द इसमें कोताही करे तो वो मुजरिम है।

इसलिए पैग़म्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने शुरु से ही महिलाओं की शिक्षा की तरफ ध्यान दिलाया। आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने सूरे अलबक़रा की आयतों के बारे में फरमाया:

''तुम खुद भी उनको सीखो और अपनी औरतों को भी सिखाओ।'' (सुनन दारमी: 3390)

प्रशिक्षण के लिए आपकी सेवा में हाज़िर होने वाले प्रतिनिधिमण्डलों को आप हिदायत फरमाते कि:

''तुम अपने घरों में वापस जाओ, अपने परिवार वालों के साथ रहो, उनको दीन की तालीम दो और उनसे धार्मिक आदेशों पर पालन कराओ। (सही बुखारी: 63)

आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया है:

''जिसने तीन लड़कियों की परवरिश की, उनकी अच्छी तालीम व तर्बियत की, उनसे अच्छा व्यवहार किया, फिर उनका निकाह कर दिया तो उसके लिए जन्नत है।'' (अबू दाऊद: 5147)

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के तब्लीग़ी मिशन में हफ्ते में एक दिन सिर्फ महिलाओं की शिक्षा व प्रशिक्षण के लिए विशेष होता था। इस दिन महिलाएं आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होतीं और आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से विभिन्न प्रकार के सवाल और दैनिक जीवन के मसले पूछतीं। ईद की नमाज़ के बाद आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम उनको अलग से सम्बोधित करते। आपने आपनी बीवियों को भी हुक्म दे रखा था कि वो मुस्लिम महिलाओं को दीनी मसलों से अवगत कराएं। फिर आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने महिलाओं के लिए किताब यानि लिखने की ताकीद फ़रमाई। हज़रत शिफ़ा बिंत अब्दुल्ला लिखना जानती थीं। आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने उन्हें हुक्म दिया कि तुम मोमिनों की माँ हज़रत हफ्सा रज़ियल्लाहू अन्हा को भी लिखना सिखा दो। इसलिए उन्होंने हज़रत हफ्सा रज़ियल्लाहू अन्हा को भी लिखना सिखा दिया। धीरे धीरे महिलाओं में लिखने और पढ़ने का शौक बहुत बढ़ गया। नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के समय के बाद चारों ख़लीफ़ा के मुबारक दौर में भी महिलाओं की शिक्षा दीक्षा की तरफ भरपूर ध्यान दिया गया। हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हू बिन खत्ताब ने अपने राज्य के चारों तरफ ये फरमान जारी कर दिया थाः

''अपनी औरतों को सूरे अलनूर ज़रूर सिखाओ कि इसमें घरेलू और सामाजिक जीवन के बारे में कई मसले और हुक्म मौजूद हैं। (अलदर अलमंसूर: 5/ 18)

महिलाओं की शिक्षा का महत्व

इस्लाम में महिलाओं की शिक्षा के बारे में कभी दो रायें नहीं हो सकतीं। एक ही पूर्ण और पुख्ता हुक्म है और वो है औरतों को इल्म के आभूषण से सजाने का क्योंकि अनपढ़ और अज्ञानी महिला समाज के पिछड़ेपन का कारण बनती है। जाहिल औरतों को न कुफ्र व शिर्क का कुछ भेद होता है, न दीन और ईमान की कुछ जानकारी। अल्लाह और रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के मर्तबा  व मक़ाम से अनभिज्ञ और कभी कभी तो खुदा की शान में बड़ी गुस्ताखी और बेअदबी से गिले शिकवे करती रहती हैं। इसी तरह शाने पैग़ंबरी में बड़ी निडरता से बेअदबी करती हैं। शरई आदेशों के ज्ञान और उपयोगिता से परिचित न होने की बिना पर उल्टी सीधी बातें करती हैं। इसके अलावा हर तरह के फैशन,  बिना हिजाब के और नग्नता और बेवजह के रस्मो रिवाज के पीछे भागती हैं, बच्चों और पति के बारे में तरह तरह के मंत्र झाड़ फूंक और जादू टोने में लगी रहती हैं। पति की कमाई इसी तरह के गलत और झूठे कामों में तबाह कर देती हैं। पति से उनकी बनती है न ससुराल रिश्तेदारों से, उन्हें अपने भाई बहनों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के अधिकारों की ज़रा भी खबर नहीं होती। लड़ाई झगड़ा और गाली गलौज, ज़बान से बुरा भला कह कर सबसे बिगाड़ कर खुश रहती हैं। वक्त की भी उसको कदर नहीं होती।

महिलाओं की जिहालत के कौन कौन से नुकसान गिनवाए जाएं: पति, बच्चे, घर, अल्लाह की दी हुई नेमतें, किसी भी बात का उन्हें एहसास नहीं होता। उनका जीवन कुरान के शब्दों में खसरेद्दुनिया वल-आखेरतः के जैसी होती है यानी उनकी दुनिया भी बर्बाद और आखिरत (परलोक) भी तबाह हो गई। ऐसी महिलाएं निश्चित रूप से समाज की बर्बादी का कारण साबित होती हैं कि अपनी गोदों में पलने वाले बच्चों की तर्बियत ही न कर सकीं। जैसी गँवार खुद थीं, उनके बच्चे यानि नई पीढ़ी भी उसी तरह गुमराह जाहिल और गँवार साबित हुई। इस तरह वो क़ौम को अपराध के दलदल में फंसाती चली जाती हैं।

इसके विपरीत दीन का ज्ञान रखने वाली महिलाएं सही और गलत, जायज़ और नाजायज़ की हद को जानती और पहचानती हैं और वो अपने जीवन में पेश आने वाले मसलों को अच्छे ढंग से निपटा लेती हैं। इल्मे दीन उनको विनम्र और सुसंस्कृत बनाता है। वो अपने बच्चों की भी सही तर्बियत करके अच्छे समाज के निर्माण का कारण साबित होती हैं।

महिलाओं की शिक्षा का उद्देश्य

महिलाओं की शिक्षा की इस्लाम ने बहुत ताकीद की है और पश्चिमी सभ्यता भी महिलाओं की शिक्षा पर बहुत ज़ोर देती है लेकिन दोनों के उद्देश्यों में ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ है। उद्देश्य अलग होने के आधार पर दोनों शिक्षाओं की प्रकृति और स्थिति भी अलग अलग है।

सही बुखारी और सही मुस्लिम की एक अहम हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहू अन्हू से रवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया:

''सुनो! तुममें से हर एक शख्स निगराँ है और उससे (क़यामत के दिन) अपनी अपन रैय्यत के बारे में पूछा जाएगा। एक मर्द अपने घर वालों का निगराँ है। इससे उसकी रिआया के बारे में सवाल होगा और औरत अपने शौहर के घर और अपने बच्चों की निगराँ है, उससे उनके बारे में सवाल होगा। ग़ुलाम अपने आक़ा के माल का निगराँ है वो उसके बारे में जवाबदेह है।  सुनो! तुममें से हर शख्स निगराँ है और उससे उसकी ज़िम्मेदारियों के बारे में पूछा जाएगा। (बुखारी: 893)

इस लिहाज़ से औरत की तालीम ऐसी होनी चाहिए जो उसको नेक बेटी, वफ़ादार बहन, फरमाँबरदार बीवी और चरित्रवान और हमदर्द माँ बना सके। प्रारंभिक शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। प्रारंभिक पांच साल में एक लड़के और एक लड़की की प्रारंभिक शिक्षा इस्लामी दृष्टिकोण से समान होनी चाहिए, यानी हर मुस्लिम बच्चे को ये सबक़ देना ज़रूरी  है कि अल्लाह ब्रह्मांड का निर्माता और मालिक है, उसने सभी प्राणियों के रोज़ी रोटी का ज़िम्मा ले रखा है और हम सभी उसके बंदे हैं, हमें उसी को मानना और उसी की फरमाँबरदारी करना अनिवार्य है। हर मुसलमान बच्चे के दिल में एक खुदा पर विश्वास तो हैदर, रसूलों और परलोक पर विश्वास और कुरान और सुन्नत के महत्व को सुदृढ़ किया जाए। नेकी औऱ भलाई के कामों की पहचान करवाई जाए। सच्चाई, सफाई, समय की पाबंदी, मोहब्बत, हमदर्दी और समर्पण का सबक़ दिया जाए। पसंदीदा आदतों और तौर तरीक़ो को उनके मन में इस तरह स्थापित करवाया जाए कि वो इस प्रारंभिक शिक्षा और प्रशिक्षण की बिना पर साफ सुथरा और पवित्र जीवन व्यतीत कर सकें।

29 नवम्बर, 2013 स्रोत: इंक़लाब, नई दिल्ली

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