सुहैल अंजुम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
2 फरवरी 2011
क्या अंजुम भाई बोल रहे हैं?”
‘जी हाँ! फरमाइए”
‘मैं रहमत भाई बोल रहा हूँ मुंबई से”
‘जी कहिये क्या खिदमत कर सकता हूँ?”
‘आज आपका लेख पढ़ा मुस्लिम समस्याओं से मीडिया की बेतवज्जुही के मामले पर। बहुत अच्छा लगा। मिडिया तो हमारे मामलों को उठाता ही नहीं है।“
‘जी हाँ यही बात है, फिर।
‘फिर हम शिकायत करने के बजाए कोई मीडिया खरीद क्यों नहीं लेते?”
‘जनाब मीडिया खरीदा नहीं जाता बल्कि मीडिया हाउस कायम किया जाता है।“
‘तो बना लो एक मीडिया हाउस, क्या परेशानी है, कितने पैसे लगेंगे? जो भी लगे दिया जाए।
‘आप काम क्या करते हैं रहमत भाई?”
‘अंजुम भाई मुंबई में मेरी फर्नीचर की दूकान है।“
यह था एक मुकालमा जो एक उर्दू कारी के साथ हुआ। अब एक और मुकालमा देखें:
सुहैल अंजुम साहब बोल रहे हैं?”
‘जी हाँ बोल रहा हूँ।“
‘आज आपका लेख पढ़ा अखबार में स्वामी असीमानंद के इकबालिया बयान पर, बहुत अच्छा लगा”
‘जी शुक्रिया।“
‘लेकिन अंजुम! वह मुस्लिम युवा अब्दुल कलीम तो रिहा कर दिया गया जिसके अख़लाक़ से प्रभावित हो कर असीमानंद ने इकबालिया बयान दिया है और जिसने स्वामी जी के ज़मीर को बेदार किया था।“
‘ख़ुशी की बात है, एक मासूम युवा जेल से रिहा हो गया।“
‘लेकिन उसे इतनी जल्दी रिहा क्यों कर दिया गया?”
‘क्या मतलब’
‘मतलब यह कि वह अगर कुछ दिन और जेल में रहता तो दूसरों के ज़मीर को भी बेदार कर देता और दुसरे भी इकबालिया बयान दे देते”
‘लेकिन बहर हाल यह अच्छी बात है ना कि एक बेगुनाह को रिहा कर दिया गया और उस पर बम धमाके करने का आरोप भी ख़त्म हो गया।“
‘नहीं जनाब मुझे तो इसमें कोई साज़िश नज़र आती है। आखिर इसे इतनी जल्दी क्यों रिहा कर दिया गया?
यह दोनों मुकालमे आज के मुस्लिम युवाओं के एक वर्ग की मानसिकता को दर्शाता है। ऐसा अक्सर होता है कि किसी लेख के प्रकाशन पर पाठकों का फोन आता है और वह अपने अपने अंदाज़ में प्रतिक्रिया का इज़हार करते हैं। लेकिन वह फोन काल पर इतना समय बर्बाद करने की बजाए एस एम् एस से अपने ख्यालों की अक्कासी करते हैं और जो लोग ऐसा करते हैं उनकी बातों में कुछ न कुछ गंभीरता होती है और वह केवल जज़्बाती अंदाज़ नजर इख्तियार नहीं करते। लेकिन कम शिक्षित या अनपढ़ मुसलमान जब भी प्रतिक्रिया ज़ाहिर करेंगे तो वह बेहद जज़्बाती होगा। वह हर मामले में नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएंगे और पुरी दुनिया को दुश्मन बताएंगे। सकारात्मक अंदाज़ में सोचने की सलाहियत जैसे सल्ब हो गई है। अगर कौमी मीडिया मुसलमानों के मसलों के संबंध में बेतवज्जोही का प्रदर्शन करता है तो हम उसकी कोशिश नहीं करेंगे कि इससे राब्ता कायम करें और उस तक अपनी बात पहुंचाएं।
हालांकि यह काम आसान नहीं है। मीडिया त्वरित रूप से आपकी बात नहीं सुनेगा। यह बहुत सब्र आज़मा काम है। वह आपकी बात सुने या ना सुने, आपको उसके दरवाज़े पर दस्तक देते रहना चाहिए। ऐसा नहीं है कि मीडिया में मौजूद तमाम लोग ही हमारे दुश्मन हैं। बहुत सारे लोग हमारे खैर ख्वाह भी हैं और वह हमारी बात उठाते भी हैं। हाँ यह बात अलग है कि ऐसे लोगों की संख्या अधिक नहीं है और उनके हाथ अपने इदारे की नीतियों से बंधे होते हैं। लेकिन बहर हाल हमें ऐसे लोगों तक पहुँचने का अपना काम करते रहना चाहिए। दूसरी बात यह मीडिया हाउस कायम करना इतना आसान नहीं है। पहले उल्लेखित कालर ने इस अंदाज़ में कहा कि “तो फिर कोई मीडिया खरीद लेते हैं” जैसे कह रहा हो कि लो पांच रूपये बाज़ार से बताशे ले आओ।“ इसमें कोई शक नहीं कि आज न केवल भारत में बल्कि पुरी दुनिया में मुस्लिम मीडिया हाउस की आवश्यकता है ताकि इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ आलमी सतह पर जो प्रोपेगेंडा किया जा रहा है उसका मुकाबला किया जा सके और इस्लामोफोबिया के बढ़ते रुझान पर कदगन लगाईं जा सके।
लेकिन यह काम आसान नहीं है और मीडिया हाउस चलाना कोई छोटी मोटी दूकान चलाना नहीं है। इसमें बड़े सरमायादारों की आवश्यकता है और मुस्लिम सरमायादारों की उसकी तौफीक अभी तक अल्लाह ने नहीं दी है कि वह अपना ताकतवर मीडिया हाउस कायम कर सकें। बातें तो बहुत होती हैं और इस जरूरत का एहसास भी बहुत है। लेकिन न तो भारत में इस बारे में कोई सिलसिला जज़्बाती की जाती है और न ही आलमे इस्लाम में कोई ऐसा अल्लाह का बंदा है जो इस आवश्यकता को पूरा कर सके। आलमे इस्लाम की बड़ी मुखय्यरा शख्सियात दुसरे धार्मिक कामों के लिए अपने खजाने का दहाना खोल देती हैं जो बहुत अच्छी बात है, लेकिन यह काम केवल जज़्बे से नहीं होगा बल्कि इसके साथ साथ संसाधनों की भी आवश्यकता है और यह काम उसी वक्त हो सकता है जब जज़्बा और संसाधन दोनों हमदोश हो जाएं। जहां तक दुसरे की बात है तो यह आम तौर पर हमारी नफ्सियात का एक अभिन्न अंग बन गया है कि हम मामले में संदेह का इज़हार करें। अगर अब्दुल कलीम जैसे बेगुनाह युवाओं को कैद व बंद की सऊबतें दी जाती हैं तो यह यकीनन बहुत बड़ी ना इंसाफी है। लेकिन अगर उनको रिहा कर दिया जाता है तो इसमें भी मुस्लिम दुश्मनी के जरासीम तलाश करना बहुत गैर अकलमंदी की बात है। यही क्या कम है कि एक बेकसूर को रिहा कर दिया गया, इसका जो शैक्षिक नुक्सान हुआ है उसका इज़ाला नहीं हो सकता लेकिन इसे एक बार फिर अपनी शैक्षिक सरगर्मियों को जारी रखने का मौक़ा मिल गया है।
मज़लूम मां-बाप का बेटा वापस आ गया है और सबसे बड़ी बात यह कि उसकी पेशानी पर आतंकवाद का जो दाग लगा दिया गया था, उसके मिटने के असबाब पैदा हो गए हैं। अब ऐसे में यह कहना कि उसे अभी और जेल में रखना चाहिए था ताकि वह दूसरों के ज़मीर को भी जगा दे, बहुत बेवकूफी वाली बात है। और किसी का भी सोया हुआ ज़मीर किसी भी ठोकर से बेदार हो सकता है। असल में हम मुसलमानों का मसला यही है कि हर मामले में फ़ौरन नकारात्मक पहलु तलाश करने लगते हैं। जबकि हमें सकारात्मक बातों पर ध्यान देना चाहिए। नकारात्मक सोच हमारी बहुत बड़ी दुश्मन है। हमें उस दुश्मन के खिलाफ लड़ना होगा। अपनी सोच को बदलना होगा और नकारात्मक के बजाए सकारात्मक दृष्टिकोण इख्तियार करना होगा। यह सब कुछ उसी वक्त हो सकता है जब हम शिक्षा के मैदान में आगे आएं और नौजवान नस्ल को दीनी और दुनियावी दोनों प्रकार की शिक्षा दिलाएं। जब तक हमारे ज़हनों में इल्म का उजाला नहीं पहुंचेगा हम इस नकारात्मक सोच के जाले को साफ़ नहीं कर पाएंगे। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इस बड़े दुश्मन का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार करें।
Urdu Article: Why Not Buy Any Media? کوئی میڈیا خرید کیوں نہیں لیتے
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