शबीना अख्तर
6 मार्च, 2013
जुलाई 2012 में दिल्ली के मौलवी मुस्तफा रज़ा ने कथित तौर पर एक छोटी बच्ची की शादी एक शादीशुदा आदमी से करके अपराध को बढ़ावा दिया। इस लड़की की इच्छा के बिना और उसके माँ बाप की अनुपस्थिति में उसका निकाह कराया गया।
हाल ही में तीस हज़ारी कोर्ट दिल्ली की अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लॉव ने एक खास फैसला दिया जिसमें उन्होंने मौलवी मुस्तफा रज़ा की इस दलील को खारिज कर दिया कि शरीयत के अनुसार एक मुस्लिम मर्द को एक समय में चार बीवियाँ रखने की इजाज़त है। उन्होंने फैसला देते वक्त कहा कि ''मैं देख सकती हूँ कि ऐसे देशों में भी जहां हुकूमत शरई कानून के अनुसार चलती है, दूसरी शादी की इजाज़त कुछ विशेष परिस्थितियों में ही दी गई है, जैसे पहली पत्नी की कमज़ोरी या बच्चा पैदा करने में अक्षम होना। इन परिस्थितियों में एक व्यक्ति पहली बीवी की सहमति के साथ दूसरी शादी कर सकता है और ये बहुविवाह के तौर पर जाना जाता है। कुरान एक मुस्लिम मर्द को एक ही समय में एक से अधिक (चार) शादी करने की इजाज़त देता है, लेकिन ऐसा करने को बढ़ावा नहीं देता है।''
इस्लाम बहुविवाह को बढ़ावा नहीं देता है, लॉव के इस बयान की बहुत सारे लोगों ने सराहना की है, लेकिन उनके द्वारा की गई शरीयत की इस व्याख्या से ऐसा लगता है कि इससे बहुत से लोग नाराज़ भी हैं। निसंदेह इस फैसले ने एक बार फिर ये बहस छेड़ दी है कि सिविल अदालतें शरीयत की व्याख्या कर सकती हैं या नहीं।
ऑल इंडिया मुस्लिम विमेंस पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अम्बर ने कहा,''मुझे एक ऐसी लड़की जिसके साथ अन्याय हुआ हो उसको न्याय देने के लिए अदालत द्वारा शरीयत की व्याख्या करने में कोई आपत्ति नहीं लगती है।'' राजस्थान में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए सक्रिय कार्यकर्ता निशात हुसैन ने इससे सहमति जताई और कहा कि, ''एक कार्यकर्ता होने के नाते मैं इस फैसले का स्वागत करती हूँ।''
मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्याख्या सही तौर पर करने पर शोर और हंगामा केवल इस मामले में ही नहीं हुआ है, बल्कि हाल ही में इसके अलावा एक और मामले में भी ऐसा हुआ था। जिसमें हैदराबाद में एक काज़ी ने एक छोटी बच्ची सहित एक महिला की शादी मोटे महेर के बदले में अरबी लोगों से करवा दी थी। इसके अलावा कुछ सालों पहले इमराना का मामला सामने आया था, जिसमें क्षेत्रीय मुस्लिम नेताओं ने शरीयत की व्याख्या की और उसे उसके ससुर से शादी करने के लिए कहा जिसने उसके साथ बलात्कार किया था।
लेकिन हैरान कर देने वाले इन मामलों के अलावा भी, दूसरे बहुत से लोगों को सिविल अदालतों के द्वारा शरीयत की व्याख्या करने पर सख्त एतराज़ है। जैसे दिल्ली के एक इस्लामी संगठन जमाते इस्लामी के राष्ट्रीय सचिव मोहम्मद सलीम इंजीनियर ने कहा कि, लॉव की टिप्पणी असंवैधानिक है। उन्होंने कहा कि ''मैं सिविल कोर्ट के द्वारा शरीयत की व्याख्या किए जाने के खिलाफ हूँ। इसके लिए हमारे पास दारूल उलूम और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है।''
लेकिन शरीयत की व्याख्या करना क्या वास्तव में केवल इस्लामी विद्वानों का ही दायित्व है? सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के वकील और एमिकस ज्यूरीज़ लायर्स, नई दिल्ली के मैनेजिंग पार्टनर सैफ़ महमूद ने कहा कि ''ये कहना गलत है कि सिर्फ काज़ी और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ही इन कानूनों की व्याख्या कर सकते हैं। भारतीय अदालतें उनका सामना करती हैं और इसीलिए रोज़ाना इस्लामी सिद्धांतों और नियमों की व्याख्या करती हैं। उन्होंने ये भी कहा कि ''हमारी अदालतें मुसलमानों के घरेलू विवाद में हस्तक्षेप करने में सक्षम हैं, इसलिए इसका मतलब है कि उन्हें मुस्लिम कानून की भी व्याख्या करने की आज़ादी है।''
कोलकाता हाईकोर्ट की वकील चन्द्रेई आलम का कहना है कि ''किसी ऐसे केस में जिसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्याख्या करने की ज़रूरत हो, तो कोई भी किसी महिला के पक्ष में फैसला करके विवादों में नहीं घिरना चाहता।''
आलम का कहना है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ की ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की व्याख्या में अक्सर लैंगिक भेदभाव का तत्व शामिल होता है। ये संगठन पुरुष चलाते हैं इसलिए वो इसकी व्याख्या अपनी सुविधा के अनुसार करेंगे।''
निशात हुसैन ने उनसे सहमत होते हुए कहा कि ''दारूल उलूम और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉबोर्ड ने कभी भी महिलाओं के पक्ष में फैसला नहीं किया है'' लेकिन वो सवाल करती हैं कि ''मुस्लिम महिलाएं न्याय के लिए आखिर कहाँ जाएं?' इमराना मामले का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ''जब इमराना को अपने पति को छोड़ने और व्याभिचारी ससुर से शादी करने के लिए कहा गया तो इन काज़ियों और मौलवियों की क्या राय थी। ऐसे ही फैसलों से हमें डर है, इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट शरीयत की व्याख्या करते हैं तो मुझे इसमें कोई बुराई नहीं दिखती है।''
चन्द्रेई आलम का कहना है कि, इस वक्त मुस्लिम पर्सनल लॉ के कोडिफिकेशन (संहिता करण) करने की सख्त ज़रूरत है, जो कि कई मुस्लिम देशों में हो चुका है। लेकिन वो कहती हैं कि , मुश्किल ये है कि अल्पसंख्यकों से जुड़े इस मामले में पहल करने का खतरा कौन मोल ले।
दरअसल तुर्की और ट्यूनीशिया जैसे इस्लामी देशों में बहुविवाह करना अवैध है, यहां तक कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में शादीशुदा मर्दों को पहली पत्नी से लिखित रूप से इजाज़त लेनी पड़ती है और उसके बाद कौंसिल के सामने उपस्थित होना ज़रूरी है। 1961 में मुस्लिम फैमिला ला आर्डिनेंस (MFLO) ने पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में बहुविवाह पर नए नियमों को लागू किया। MFLO के नियमों के अनुसार, दूसरी बार शादी करने के इच्छुक व्यक्ति को MFLO के मुताबिक़ स्थापित स्थानीय कौंसिल को आवेदन देना होता था।
लेकिन जमाते इस्लामी के राष्ट्रीय सचिव मोहम्मद सलीम इंजीनियर के अनुसार हिंदुस्तान की तुलना दूसरे इस्लामी देशों से करना गलत है। उनका कहना है कि ''सभी इस्लामी देशों में पूरी तरह से इस्लाम पर अमल नहीं किया जाता इसलिए हम आँख बंद करके उनका अनुसरण नहीं कर सकते हैं।
लेकिन एक कौंसिल बनाने की मांग बढ़ रही है जो ये निर्धारित करे कि एक मुस्लिम मर्द को दूसरी, तीसरी या चौथी शादी करनी चाहिए या नहीं। शाइस्ता अम्बर ने इस बात पर जोर दिया है कि ''एक ऐसे कौंसिल की बहुत ज़्यादा ज़रूरत महसूस की जा रही है।'' उन्होंने कहा कि,''अगर दारुल उलूम और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का पीड़ित महिलाओं के प्रति फैसला न्याय के मानकों पर खरा नहीं उतरता तो सिविल कोर्ट का रुख करने के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं है।''
ये एक बहुत जटिल समस्या है। और इस बात की कुछ संभावना है कि इस विषय पर चर्चा कि सिविल अदालतों को मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्याख्या करनी चाहिए या नहीं जल्द ही किसी भी समय ठंडी पड़ सकती है।
स्रोत: http://www.telegraphindia.com/1130306/jsp/opinion/story_16638462.jsp # . UTcbZNZyAgp
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