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Hindi Section ( 13 Apr 2013, NewAgeIslam.Com)

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This Is The Way To Hell, Not To Heaven ये जन्नत का नहीं, जहन्नम का रास्ता है

 

सर्वत जमाल अस्मई

9 मार्च, 2013

(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

अब्बास टाउन की घटना देश में जारी सांप्रदायिक आतंकवाद की दुखद घटनाओं में ताज़ा इज़ाफा है, जिसका निशाना आम तौर पर शिया अवाम और सुन्नी उलमा बन रहे हैं। पाकिस्तान में सांप्रदायिक आतंकवाद की घटनाओं में जो लोग भी शामिल हैं, वो या तो हमारे दुश्मनों के प्रत्यक्ष एजेंट हैं या फिर अनजाने में उनको सहयोग कर रहे हैं। सांप्रदायिक कार्रवाईयों के लिए इस्तेमाल होने वाले आत्मघाती हमलावर आम तौर पर वो सरल लोग होते हैं जिन्हें स्पष्ट करा दिया जाता है कि किसी विशेष मसलक से जुड़े लोगों को क़त्ल करना वाजिब (अनिवार्य) है। और सम्भव है कि इस तरह के फतवे देने वाले लोग वास्तव में ऐसा समझते हों लेकिन वास्तव में इस तरह वो इस्लाम और पाकिस्तान के दुश्मनों के मकसद को पूरा कर रहे हैं जिनका एजेंडा पाकिस्तान को गृहयुद्ध से दो चार कर बर्बाद करना है लेकिन पिछली कई घटनाओं की रौशनी में कहा जा सकता है कि रिमोट कंट्रोल बम धमाकों में आमतौर पर ये धार्मिक तत्व शामिल नहीं होते बल्कि ऐसी कार्रवाईयाँ आमतौर पर पाकिस्तान में सक्रिय विभिन्न बाहरी ताकतों के एजेंट करते हैं। अब्बास टाउन का विस्फोट भी जानकारी के अनुसार रिमोट कंट्रोल धमाका था इसलिए अगर कोई प्रतिबंधित सांप्रदायिक संगठन इसकी ज़िम्मेदारी क़ुबूल नहीं करता तो ये बात लगभग निश्चित हो जाएगी, ये किसी पाकिस्तान दुश्मन ताक़त के एजेंटों का काम है और ऐसा होना कोई हैरत की बात नहीं। ये एक खुला राज़ है कि कई वैश्विक और क्षेत्रीय ताक़तों की ख़ुफ़िया एजेंसियां ​​पाकिस्तान को अस्थिर करने के लिए इस देश के कई इलाक़ों में सक्रिय हैं। भारतीय एजेंसी रॉ के कई तोड़ फोड़ करने वाले एजेमट पाकिस्तान में सज़ा भी पा चुके हैं। रेमंड डेविस जैसे न जाने कितने कारिंदे दिन रात अपना काम कर रहे हैं। मुस्लिम दुनिया में हर प्रकार के जातीय, भाषाई, क्षेत्रीय और धार्मिक विवादों को दुश्मनी में बदल देना वक्त की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति की खुली रणनीति है। जो चाहे अमेरिका के सैन्य नेतृत्व की फरमाइश पर तैयार की गई। रैंड कार्पोरेशन की शोध रिपोर्ट "यूएस स्ट्रैटेजी इन द मुस्लिम वर्ल्ड ऑफ्टर नाइन इलेवन" पढ़ सकते हैं जिसमें अमेरिकी सत्ता को सलाह दी गई है कि मुस्लिम दुनिया में अपने हितों की पूर्ति के लिए हर प्रकार के मसलकी (पंथ), जातीय, भाषाई, क्षेत्रीय खासकर शिया सुन्नी मतभेद को हवा देनी चाहिए।

इराक़ में शिया सुन्नी मतभेद को जानी दुश्मनी में बदल देने का तजुर्बा लगातार साज़िशी रणनीति के बाद अंततः कामयाब हो गया। मार्च 2003 में इराक पर अमेरिकी क़ब्ज़े के बाद से फरवरी 2006 तक शिया सुन्नी एकजुट होकर अमेरिकी क़ब्ज़े के खिलाफ़ विरोध करते रहे। इस दौरान रिकॉर्ड पर मौजूद घटनाओं के अनुसार साम्राज्यवादी एजेंटों की ओर से दोनों मसलकों के लोगों और इबादतगाहों को आतंकवाद का निशाना बनाकर ये प्रतिक्रिया देने की कई बार कोशिश की गई कि ये दूसरे मसलक के लोगों का काम है। तीन साल तक ये साज़िशी कार्रवाईयाँ लगभग बेनतीजा रहीं, लेकिन 22 फरवरी 2006 को सामरा की मस्जिद अस्करी में इस तरह बम धमाका कराया गया कि कुछ पवित्र हस्तियों के मज़ारों को भी नुकसान पहुंचा। इस घटना की जो जानकारी सामने आई उनसे पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि ये किसी बाहरी खुफिया एजेंसी का काम था लेकिन इससे जो तुरंत उत्तेजना फैली, कुछ घंटों में सैकड़ों सुन्नी मस्जिदों और व्यक्ति इसका निशाना बन गए। इसके बाद गंभीर सांप्रदायिक गृहयुद्ध की शुरूआत हो गयी। संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थियों के उच्च आयोग ने अक्टूबर 2006 में मस्जिद अस्करी में धमाके के बाद बेघर होने वाले इराकियों की संख्या पौने चार लाख बताई जबकि इसी संगठन के अनुसार 2008 में ये संख्या 47 लाख तक पहुंच गई। पाकिस्तान में भी यही खेल खेला जा रहा है लेकिन अल्लाह के करम से यहां अब तक साम्प्रदायिक नफ़रत को सार्वजनिक स्तर तक फैलाने की कोशिशें कामयाब नहीं हो सकी हैं।

सभी मसलकों के लोग आम तौर पर मिलकर रहते हैं और उनके बीच गहरे भाईचारे के सम्बंध स्थापित हैं लेकिन सांप्रदायिक ख़ून ख़राबे का सिलसिला जल्द से जल्द बंद होना चाहिए अन्यथा साज़िश किसी न किसी दर्जे में कामयाब हो सकती है। कराची में अब्बास टाउन की घटना के दूसरे दिन कुछ क्षेत्रों में मोर्चा बंद फायरिंग की घटनाएं इस खतरे की स्पष्ट पहचान करती हैं। सांप्रदायिक ख़ून ख़राबे का असल कारण ये गलत धारणा है कि दूसरे मसलक के लोगों का क़त्ल करना दीनी फरीज़ा (कर्तव्य) है। अगर इन धार्मिक तत्वों को जो किसी समुदाय के लोगों की हत्या को दीनी फ़रीज़ा समझ कर अंजाम दे रहे हैं, ये समझाया जा सके कि ये जन्नत का नहीं जहन्नम का रास्ता है तो इन्शाअल्लाह ये फसाद खुद ही खत्म हो जायेगा, क्योंकि जब इस पक्ष को मानने वाले तत्व अपने दृष्टिकोण का उल्लेख कर लेंगे तो बाहरी एजेंटों के लिए भी विनाशकारी गतिविधियों के माध्यम से एक समुदाय को दूसरे के खिलाफ उत्तेजित करना सम्भव नहीं रहेगा। सौभाग्य से इस मक़सद के लिए एक अत्यंत उपयोगी चीज़ सामने आई है। पाकिस्तान में आम तौर पर तालिबान और उनसे सहानुभूति रखने वाले संगठनों को शिया लोगों के खिलाफ कार्रवाईयों के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है और उनकी ओर से भी अक्सर ऐसी कार्रवाईयों की ज़िम्मेदारी क़ुबूल की जाती है लेकिन तहरीके तालिबान अफगानिस्तान के प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुजाहिद ने ढाई महीने पहले 14 दिसंबर 2012 को अपने एक इंटरव्यु में स्पष्ट शब्दों में मसलक (पंथ) की बुनियाद पर खून खराबे को इस्लाम दुश्मन ताक़तों का मिशन करार देकर इस अमल को सवाब वाला अमल समझने वालों की गलतफ़हमी पूरी तरह से दूर कर दिया है। ये इंटरव्यु इन लाइनों को लिखे जाने के वक्त तक अमारते इस्लामी अफगानिस्तान की सरकारी वेबसाइट पर मौजूद है। अमारते इस्लामी अफगानिस्तान के प्रवक्ता से सवाल किया गया "शिया सुन्नी मतभेद को आप किस संदर्भ में देखते हैं और इस बारे में अमारते इस्लामिया की पालिसी क्या है?" उत्तर में उन्होंने कहा "शिया सुन्नी के बीच लड़ाई और मतभेद पैदा करना और उन्हें मारना मुसलमानों के हित में नहीं है। मुसलमान उम्मत को इस वक्त कुफ़्र के हमले का सामना करना पड़ रहा है।

अगर इस ज़माने में भी कोई इस्लामी देश में झगड़े फसाद पैदा करता है और घर घर दुश्मनी का माहौल बनाता है तो स्पष्ट रूप से कह दूं कि ये अमल मुसलमानों के हक़ में नहीं। ऐसी घटनाओं से सिर्फ़ कुफ़्फ़ार को ही फायदा होगा। आप जानते हैं कि लगभग सभी मुस्लिम देशों में अहले सुन्नत और शिया लोग साझा तौर पर जीवन बिताते हैं। उनके बीच जंग शुरू हो जाए तो इसका मतलब होगा कि पूरी इस्लामी दुनिया के देशों में गृहयुद्ध शुरू हो जाएगा और ऐसी जंग का कोई अंजाम भी नहीं होगा। अंजाम इसलिए नहीं होगा कि बहुतायत के कारण किसी पक्ष का दूसरे पक्ष को खत्म कर देना और मिटा के रख देना असंभव होगा। इसलिए ये एक गैरज़रूरी जंग होगी जिसके नतीजे बेहद खतरनाक होंगे। आज मुसलमानों में पूरी तरह से एकता की ज़रूरत है। इस सम्बंध में सुन्नियों और शिया लोगों ख़ास तौर से  सोच विचार की ज़रूरत है।अमारते इस्लामिया स्पष्ट पालिसी की बुनियाद पर किसी को भी ये इजाज़त नहीं देता कि किसी व्यक्ति पर सिर्फ इसलिए हमला किया जाये कि वो शिया है, और उसे क़त्ल करे। अमारते इस्लामिया मुसलमानों की एकता के लिए सक्रिय है। सभी मुसलमानों को इस आग की फिक्र होनी चाहिए जो काफ़िरों ने जलाई है और जिसमें बिना किसी भेदभाव के सारे मुसलमान खाक हो रहे हैं।" शिया सुन्नी मतभेद पर तालिबान अफगानिस्तान के इस स्पष्ट फक्ष के सामने आ जाने के बाद कोई वजह नहीं कि पाकिस्तान में उनके समर्थक होने के दावेदार तत्व अपने रुख को तब्दील न करें। अगर वो अब भी ऐसा नहीं करेंगे तो इसका मतलब इसके सिवा क्या होगा कि वो खुद अपने आपको इस्लाम दुश्मन ताक़तों का एजेंट बता देना चाहते हैं।

9 मार्च, 2013 स्रोत: जंग, कराची

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