सारा अर्कल
5 मार्च, 2014
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1979 में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर कंवेंशन (The Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination against Women (CEDAW)) को अपनाया था। इसके बाद सात देशों ईरान, सोमालिया, दक्षिण सूडान, सूडान, संयुक्त राज्य अमेरिका, पलाऊ और टोंगा के अलावा सभी देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए। जिन देशों ने (CEDAW) को मंज़ूर किया है उन्होंने भी घोषणा पत्रों और शर्तों के रूप में इसे खारिज करने वालों के साथ ऐसा ही किया। इन देशों पर आरोप लगाये गये कि उन्होंने सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से CEDAW को स्वीकार किया है, क्योंकि इन्होंने आनर किलिंग, जबरन शादी और बलात्कार पीड़ितों के लिए कारावास की सज़ा जैसे अन्याय को इजाज़त दी है।
ये अंतर्राष्ट्रीय कानून के दायरे में कई समस्याएं पैदा करता है। पहला, मध्य पूर्व के कई देशों में घरेलू कानून कुरान की व्याख्या पर आधारित हैं, जो जायज़ हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं। दूसरा, इस्लाम में महिलाओं की अधीनता की बात अक्सर इस्लाम और दुनिया के बाकी हिस्सों, विशेष रूप से पश्चिमी देशों के बीच वैचारिक खाई को बढ़ाती है। और अंत में, CEDAW की शर्तें इतनी व्यापक हैं कि दस्तावेज़ के मौलिक स्वभाव को बदलने की ज़रूरत पढ़ती है, तो CEDAW और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त समझौतों की वैधता काफी हद तक कम हो जाती है।
11 सितम्बर, 2011 की घटना के बाद से पश्चिमी देशों और विशेष रूप से अमेरिका में इस्लामोफ़ोबिया तेज़ी से फैला है। आतंकवाद के खिलाफ युद्ध ने मुस्लिम विरोधी भावनाओं को बढ़ावा दिया है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा की वकालत न तो क़ुरान और न ही इस्लाम करता है, बल्कि कुरान की व्यक्तिगत व्याख्याएं ऐसी वकालत करती है और जो विवादास्पद हैं। औरत विरोधी कानून का स्रोत क़ुरान को बताना कई पश्चिमी लोगों के दिलों में इस्लाम के प्रति भय और नफरत को बढ़ावा देता है।
अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ अक्सर संस्कृति, धर्म और रंग व नस्ल की परवाह किये बिना मनुष्यों के बीच एकता स्थापित करने के लिए की जाती है। इससे लोगों में सामुदायिक भावना पैदा होनी चाहिए साथ ही किसी सतह पर ये भावना भी कि हम सभी एक सामाजिक समूह के सदस्य हैं। इस्लाम और पश्चिमी देशों के बीच की खाई को मज़बूत करना किसी भी तरह से फायदेमंद नहीं है, क्योंकि इस तरह की खाई अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में रुकावट पैदा करती है और पूर्व व पश्चिमी देशों के बीच नाज़ुक रिश्ते में और तनाव पैदा होता है।
सम्भवतः खास बात ये है कि गलत आरोप नारीवादियों को आपस में बाँटता है। पश्चिमी देशों के नारीवादी अक्सर औरतों की अधीनता के लिए इस्लाम की आलोचना करते हैं जो इस्लामी नारीवादियों को गुस्सा दिलाता है और जो अपने मज़हब और संस्कृति को छोड़ना नहीं चाहते बल्कि पश्चिमी देशों की महिलाओं की दुर्दशा स्वीकार न करने पर उनकी तरफ उंगली उठाते हैं।
हमें अंतर्राष्ट्रीय रूप के नारीवाद को विकसित करना चाहिए जिसे दुनिया भर की महिलाओं पर लागू किया जा सके और वो इसे अपना भी सकें। इस्लाम को नारी विरोधी और पितृसत्तात्मक बताने के बजाए हमें इस्लामी विद्वानों से धार्मिक विश्वसनीयता को बनाए रखते हुए क़ुरान की ऐसी वैकल्पिक व्याख्या करने के लिए कहना चाहिए जो महिलाओं को समानता की इजाज़त देती हो। अगर विश्व समुदाय नारीवादी आंदोलनों को पूरी तरह से सेकुलर बनाने की कोशिश करता है तो इससे कई मुस्लिम महिलाएं अलग हो जाएंगी। और ये किसी भी नारीवादी के हित में नहीं है। मध्य पूर्व के देशों में महिला अधिकारों की समस्याओं के समाधान के लिए मैं फातिमा मरनिसी का हवाला पेश करना चाहूँगी जो मुस्लिम नारीवाद की विशेषज्ञ मानी जाती हैं। फातिमा मरनिसी इस्लाम के लैंगिक समतावादी प्रकृति पर ज़ोर देते हुए क़ुरान और दूसरे प्रासंगिक ग्रंथों का फिर से अध्ययन करने की सलाह देती हैं, क्योंकि अक्सर इनकी अनदेखी की गई, छिपाया गया या इन्हें गलत तरीके से समझा गया है। फातिमा मरनिसी और दूसरे मुस्लिम विद्वान नारीवाद के प्रति सुधारवादी रवैय्या अपनाने की वकालत करते हैं, जो कुरान की आयतों को हुक्म मानते हैं, और इस्लाम और पश्चिम के बीच की खाई को पाटने की कोशिश में सेकुलर या पश्चिमी नारीवाद को प्रारम्भिक बिंदु के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
फातिमा मरनिसी कहती हैं कि हम क़ुरान की उन आयतों की अनदेखी करते हैं जो अस्पष्ट या शायद स्पष्ट रूप से पुरुषों के वर्चस्व को बल प्रदान करती हैं, क्योंकि ये आयतें इस्लाम की समग्र प्रकृति से सुसंगत नहीं हैं। फातिमा मरनिसी इन आयतों को इनके नाज़िल होने के स्थान और समय की सामाजिक, राजनीतिक और सैन्य ढांचे से जोड़ती है और इनको और अधिक आधुनिक सोच को मन में रख कर व्याख्या करने की सलाह देती हैं। ये स्वीकार करना अहम है कि इस्लाम ने कभी महिलाओं को ऐसे समाज में उत्पीड़न से आज़ादी दी थी जहाँ '' ..... महिलाओं को माल, संपत्ति माना जाता था, जिनको पुरुष प्रधान समाज में किसी भी तरह का कोई अधिकार नहीं था।'' ये धारणा तर्कसंगत नहीं है कि जिस धर्म ने किसी समय महिलाओं को आज़ादी का परवाना दिया वो अचानक महिलाओं का उत्पीड़न करने चाहेगा।
पवित्र ग्रंथों की पारम्परिक व्याख्या कभी कभी पुरुष प्रभुत्व के सिद्धांतों का कारण हो सकती है जबकि आधुनिक व्याख्याएं लैंगिक समानता की तरफ झुकाव रखती है। स्वाभाविक रूप से मैं लैंगिक समानता के साथ सुसंगत व्याख्या का प्रस्ताव रखूँगी जो महिला अधिकारों को पश्चिमी और इस्लामी नारीवादियों के बीच की खाई को पाट कर फायदा पहुँचायेगी। आइए हम सब मिलकर इस लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ें।
स्रोत: http://www.brownpoliticalreview.org/2014/03/islam-is-not-the-enemy
URL for English article: http://www.newageislam.com/islam,-women-and-feminism/sara-erkal/islam-is-not-the-enemy/d/56011
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/islam-enemy-/d/56034
URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/islam-enemy-/d/56055