संदीप पांडे
30 जुलाई,2014
इजरायल की स्थापना ही अन्याय के आधार पर हुई है। वर्ष 1947 में इंग्लैंड ने संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पारित करवाकर जबरदस्ती इजरायल नामक एक नए राष्ट्र को अस्तित्व में ला दिया, जिसका उस समय भी फलस्तीनियों ने तीव्र विरोध किया था। इंग्लैंड ने लगभग उसी समय भारत का भी विभाजन करवाकर यहां भयंकर हिंसा की परिस्थितियां निर्मित कीं। यही काम उसने फलस्तीन में भी किया। फलस्तीन में 1947 में जो हिंसा शुरू हुई वह आज तक नहीं रुक सकी है। इस प्रकार की न रुकने वाली हिंसक गतिविधियां कभी धीमी गति से चलती हैं तो कभी जोर पकड़ लेती हैं जैसा कि आजकल चल रहा है। यह हिंसा प्राय: एकतरफा ही होती है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दस वषरें में इजरायल-फलस्तीन संघर्ष में मरने वालों की संख्या में करीब 95 फीसद लोग फलस्तीनी हैं।
एक तरफ जहां दुनिया भर से यहूदी यहां आकर बसे और रहने लगे तो दूसरी तरफ लाखों फलस्तीनी लोगों को अपना घर छोड़कर शरणार्थियों की तरह दुनिया के दूसरे मुल्कों में रहने को बाध्य होना पड़ा है। यहूदी आबादी ने धीरे-धीरे आज पूरे फलस्तीन पर कब्जा कर लिया है सिवाय दो हिस्सों को छोड़कर-वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी। जैसे-जैसे इजरायल आगे बढ़ रहा है ये दोनों इलाके भी सिकुड़ते जा रहे हैं। इजरायल दुनिया का अकेला मुल्क है जिसने 1948 में अपनी आजादी के बाद से अभी तक अपनी सीमाओं को घोषित नहीं किया है। इसने जब चाहा अपने सभी पड़ोसियों- मिस्न, जॉर्डन, लेबनान में घुसपैठ की एवं उनके इलाकों पर कब्जा किया। इसने 1967 में मिस्न के सिनाई प्रायद्वीप और सीरिया के गोलन हाइट्स पर कब्जा कर लिया। यह लेबनान में भी घुस गया था जब तक उसे हिजबुल्ला नामक हथियारबंद संगठन ने 2006 में वहां से खदेड़ नहीं दिया। कुछ इलाकों पर इसका कब्जा अभी भी बरकरार है। ऐसे खतरनाक पड़ोसी की लगभग रोजाना की आक्त्रामकता को फलस्तीन की करीब तीन पीढि़यां झेल चुकी हैं। फलस्तीनी लोग बहुत बहादुर हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जब तक आखिरी फलस्तीनी भी जिंदा रहेगा वह इजरायल के खिलाफ संघर्ष करता रहेगा। हरेक फलस्तीनी परिवार के सदस्य अपनी जान देने को तैयार बैठे हैं। असल में वहां तो घर में बैठे-बैठे इजरायल का कोई प्रक्षेपास्त्र कभी भी आकर ऊपर गिर सकता है, किंतु कोई भवन ध्वस्त होते ही फलस्तीनी नागरिक तुरंत पुनर्निर्माण में लग जाते हैं। जल्दी ही भवन दोबारा खड़ा हो जाता है।
फलस्तीनी नागरिक यह दिखाना चाहते हैं कि वह सामान्य जिंदगी जी रहे हैं और इजरायली हमलों का उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। फलस्तीन के लोग बहुत सृजनात्मक भी हैं। उनकी दीवारों पर संघर्ष के तमाम नारे लिखे दिखाई पड़ते हैं तो कला-हस्तकला में वे बहुत ही निपुण हैं। खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने का भी उनको काफी शौक है। ऐसा बताते हैं कि पूरी अरब दुनिया में पीएचडी की उपाधि का सबसे ज्यादा घनत्व फलस्तीन में ही है। यानी रोज-रोज की अनिश्चितता के बावजूद पढ़ाई-लिखाई का काम बाधित नहीं हुआ है या कम से कम वे ऐसा दिखाना चाहते हैं। लगातार इजरायली हमले उनके उत्साह को नहीं तोड़ पाए हैं और फलस्तीनी लोग अपनी जिंदगी को पूरी तरह से जीना चाहते हैं जिस प्रकार दूसरे जगहों पर लोग सामान्य जीवन जीते हैं। इजरायल ने भौतिक रूप से फलस्तीन को बहुत नुकसान पहुंचाया होगा, किंतु यह स्पष्ट है कि वह फलस्तीनी लोगों के जज्बे को नहीं तोड़ पाया है। वर्तमान इजरायली हमले के विरोध में दुनिया भर में प्रदर्शन हो रहे हैं। इंग्लैंड में करीब एक लाख लोग इसके विरोध में सड़क पर निकल कर आए। फ्रांस में सरकार ने फलस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन पर रोक लगाई तो लोगों ने प्रतिबंध की धज्जियां उड़ाते हुए प्रदर्शन किया। प्रसिद्ध अमेरिकी बुद्धिजीवी नोएम चोमस्की ने कहा है कि इजरायल अत्याधुनिक हवाई जहाजों व पनडुब्बियों का इस्तेमाल कर फलस्तीन के शरणार्थी शिविरों, विद्यालयों, रिहाइशी इलाकों, मस्जिदों व गरीब बस्तियों पर हमला कर रहा है, जिनके पास न तो कोई हवाई सेना है न ही नौसेना, कोई भारी हथियार नहीं, कोई सेना की टुकड़ियां नहीं, कोई टैंक नहीं यहां तक कि कोई युद्ध को नियंत्रण करने वाला भी नहीं या कहें सेना ही नहीं है और इजरायल इसे युद्ध कहता है। नोएम चोमस्की के अनुसार यह युद्ध नहीं नरसंहार है। इजरायल का कहना है कि वह आत्मरक्षा के लिए युद्ध कर रहा है, लेकिन सवाल है कि आखिर उसे खतरा किससे है। ऐसे लोगों से जो 67 सालों से अपना मुल्क भी आजाद नहीं करा पा रहे हैं? इजरायल लगभग एकतरफा नरसंहार की कार्रवाई को जायज ठहराने के लिए अपने हमलों को युद्ध का नाम देता है।
दुनिया भर के 1100 बुद्धिजीवियों, जिसमें 65 इजरायल में रहने वाले यहूदी शामिल हैं, ने एक हस्ताक्षर अभियान के माध्यम से इजरायल के हमले की निंदा की है एवं उसे तुरंत रोकने के लिए कहा है। इजरायल इस क्रूरता पर उतर आया है कि उसने वफा अस्पताल को खाली करने का हुक्म दिया है। क्या किसी अस्पताल को तबाह करना बहादुरी कही जाएगी? दूसरी तरफ नार्वे के एक बहादुर चिकित्सक डॉ. मैड्स गिलबर्ट फलस्तीन में रहकर अपनी जान की चिंता किए बगैर फलस्तीनियों की सेवा में लगे हुए हैं। उन्होंने खुाद को मानव कवच बनाया हुआ है फलस्तीनियों की जान बचाने के लिए। बड़ी मुश्किल से फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में नवंबर 2012 में गैर सदस्य पर्यवेक्षक का दर्जा मिला है। उम्मीद है कि यह उसे एक संप्रभु राष्ट्र मानकर पूर्ण सदस्य का दर्जा दिए जाने की दिशा में पहल होगी। हालांकि इजरायल इसका भरपूर विरोध करेगा। फलस्तीन को आजाद कर उसे स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा देकर ही इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। यदि इजरायल को लगता है कि वह ताकत के बल पर फलस्तीनियों को कुचलकर अपना राज कायम कर लेगा तो वह मुगालते में है। उसे जल्द से जल्द बातचीत की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए ताकि फलस्तीनियों को रोजाना तबाही के खतरे से मुक्ति मिले।
[लेखक संदीप पांडे, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता हैं]
स्रोतः http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-israeli-injustice-11517107.html
URL: https://newageislam.com/hindi-section/injustice-israel-/d/98470