सैफ शाहीन, न्यु एज इस्लाम
28 दिसंबर, 2011
इस्लाम का असल पैग़ाम
लेखक: मुहम्मद यूनुस और अशफाक अल्लाह सैयद
आमना पब्लिकेशन, यू.एस.ए., 2009
इस्लाम और मुसलमानों के बारे में गलत बयानी इस कदर व्यापक है कि वो कभी कभी ज़ोम्बी फिल्मों में नाम्रदगान की तरह लगते हैः जो हर दरवाजे और खिड़की से आपको घूर रहे हैं, और हर कोने से आप की तरफ आ रहे हों और आपको नोचने खसोटने के लिए झुके हों। आपको बताया जाता है कि मुसलमान चार बीवियाँ रखते हैं और उनका ज़्यादातर वक्त उनकी पिटाई में खर्च होता है, यहाँ तक कि आप हैरान होते हैं कि किस तरह आप अपनी इकलौती बीवी की बेतहाशा खरीदारी से निपटे। मुसलमान गैर पढ़े लिखे, बेवकूफ और मिलनसार नहीं होते हैं जो तवे की उल्टी तरफ अपनी रोटी को सेंकते हैं। आप ये सब चेहरे पर बनावटी मुस्कान के साथ सुनते हैं।
जबकि यह अपेक्षाकृत गैर हानिकारक फर्जी कहानी गैर मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय हैं, ये इस्लाम के बारे में झूठ है जिस पर बहुत से मुसलमान भी यकीन करते हैं जो सबसे खतरनाक है। बरसों, दशकों और सदियों के दौरान यह झूठ इकट्ठा हुए हैं जो मज़हब की रगों में रुकावट पैदा कर रहे हैं और उसके दिल और दिमाग से जिस्म को अलग कर रहे हैं, और इस्लाम की एक हिंसक शक्ल, जो हो सकती है, उसमें बदल रहे हैं।
इस्लाम का असल पैग़ाम अकीदत की मेहनत है जिसमें मोहम्मद यूनुस और अशफाक अल्लाह सैयद इन गलत बयानियों को बेनकाब करने के लिए कुरान से रुजू करते हैं। इसके अलफाज़, मुहावरे, इस्तआरे और जुमले के मानी को पूरे मतन में इनके इस्तेमाल से हासिल कर रहे हैं, और इसके "व्यापक नैतिक शिक्षा" से इसकी सूरे और आयात के पैगाम की तशरीह कर रहे हैं।
मिसाल के तौर पर, मुसलमान अक्सर उम्मत (सभी मुसलमानों के भाईचारे) के बारे में बात करते हैं, लेकिन मोहम्मद यूनुस और अशफाक अल्लाह सैयद का कहना है कि कुरान भाईचारे में पूरी इंसानियत को शामिल करने का तसव्वुर रखता है। "कुरान इंसानी नस्ल, ज़बान और रंग की विविधता को तस्लीम करता है (30:22) और इसका ऐलान करता है कि अगर ख़ुदा चाहता तो वो सबको एक क़ौम बना देता (10:18 11:118) और सबको रहनुमाई अता करता है (6:149)।
जिस तरह पूरे कुरआन में दीन अल-इस्लाम और तक़वा का इस्तेमाल किया गया है, लेखक इस तशरीह पर पहुंचते हैं। वो कहते हैं कि "कुरान दीन अल-इस्लाम को वही आफाकी पैग़ाम (सार्वभौम संदेश) वाला बताता है जो पहले के नबियों पर उतरा था, जो सभी सच्चे मुसलमान थे (2:131-133), और इसी असल पैग़ाम को उन्होंने लोगों तक पहुंचाया था। "वो कहते हैं कि ईमान का खुलासा इंसानियत की खिदमत के ज़रिए खुदा की इताअत करना है। इसी तरह तक़वा जो कुरान आयात में किसी न किसी शक्ल में सैकड़ों बार इस्तेमाल हुआ है, वो "किसी शख्स के आलमगीर सामाजी और एखलाकी ज़िम्मेदारियों के लिहाज़....." को ज़ाहिर करता है।
कुरान की जिन आयात पर विचार करने के लिए लेखक ने हवाला दिया है वो फिरका परस्त किरदार की मुखालिफ और आलमगीरी किरदार वाली हैं। लेखकों ने भी इस्लाम को एक विशिष्ट आस्था के बजाय उदारवादी धर्म के रूप में पेश किया है जो मतभेद को न सिर्फ स्वीकार करता है बल्कि मतभेद का स्वागत भी करता है: "ऐ लोगों हमने तुम्हें मर्द और औरत से पैदा फरमाया और हमने तुम्हें (बड़ी बड़ी) कौमों और क़बीलों में (तक्सीम) किया ताकि तुम एक दूसरे को पहचान सको। बेशक अल्लाह के नज़दीक तुममें ज़्यादा बाइज़्ज़त वो है जो तुममें ज़्यादा परहेज़गार हो, बेशक अल्लाह खूब जानने वाला खूब खबर रखने वाला है" (49:13)।
इसी तरह कुरान बार बार मज़हब में किसी भी जब्र से मना फरमाता है (2:256, 50:45 - 2288:21) और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से फरमाता है कि वो लोगों को अपने रास्ते की पैरवी करने पर मजबूर न करें। ये भी हुक्म देता है कि मुसलमान, गैर मुसलमानों के साथ भेदभाव न करें (4:94) और खुदा के अलावा जिन लोगों को ये लोग पुकारते हैं उनकी तौहीन मत करो (6:108) हालांकि ये वो अमल नहीं था जो तालिबान ने किया, जब उन लोगों ने बामियान में बुध की प्रतिमा को तबाह कर दिया या खुद साख्ता इस्लामी जेहादी जब मंदिरों, चर्चों और यहूदियों के पूजा स्थलों को निशाना बनाते हैं।
एक अहम आयत (5:48) में ज़िक्र है: "हमने तुममें से हर एक के लिए अलग शरीयत और कुशादा राहे अमल बनाई है, और अगर अल्लाह चाहता तो तुम सब को (एक शरीयत पर मुत्तफिक़) एक ही उम्म्त बना देता लेकिन वो तुम्हें इन (अलग अलग एहकाम) में आज़माना चाहता है जो उसने तुम्हें (तुम्हारे हस्बे हाल) दिए हैं, सो तुम नेकियों में जल्दी करो। अल्लाह ही की तरफ तुम सबको पलटना है, फिर वो तुम्हें इन (सब बातों में हक व बातिल) से आगाह फरमा देगा है जिनमें तुम एख्तेलाफ करते रहते थे।"
इस विविधता के फ्रेमवर्क के भीतर ही गैर मुसलमानों के खिलाफ मुसलमानों को जंग करने पर जोर देने वाली कुरानी आयात को समझना ज़रूरी होगा। इस्लाम की आमद के बाद 12 साल की अवधि के दौरान (610-622), जब मुसलमान मक्का में रहते थे, "कुरान बार बार नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम और उनके पैरोकारों से गैर हिंसक तरीके से ज़ुल्म व जब्र बर्दाश्त करने को कहा है। लेकिन ये कारआमद साबित नहीं हुआ और आखीर में नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम और उनके पौरोकारों को अपना घर छोड़ना पड़ा और ज़ुल्मो सितम से बचने के लिए खुद को मदीना में निर्वासित करना पड़ा। मदनी अवधि (623) के पहले साल के आसपास ही कुरान ने लोगों को आयात 22:39-40 में देफाई जंग करने की इजाज़त दी।
अगले कुछ सालों में मुसलमानों ने बद्र (624), अहद (625) और जंगे खंदक (627) लड़ी। "इन वाकेआत में एक लम्हे से दूसरे लम्हे, दिन और कभी कभी महीनों तक मुसलमानों को गैर यक़ीन सूरते हाल का सामना था, क्योंकि , उनके दुश्मन बेहद शक्तिशाली थे, फौजी एतेबार से उन्हें मिटा देना चाहते थे। "इसका मतलब ये है कि जंग की इजाज़त तभी दी गई जब पूरी मुस्लिम आबादी के फ़ना हो जाने का खतरा था।
नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के कुछ पैरोकार जंग लड़ने को नापसंद कहते थे, लेकिन कुरान और, गीता में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में खतरनाक समानता है। कुरान में ज़िक्र है "जबकि जंग तबाही थी लेकिन मज़हबी ज़ुल्मों सितम और जिलावतनी (निर्वासन) के लिए लोगों को मजबूर रना, उससे भी बदतर था (2:217, 4:75)। "ये आयत भी आयत भी मख्सूस हालात का बयान करती है जिसमें जंग की इजाज़त थी, साथ ही मुसलमानों को ताकीद थी कि वो दूसरों पर मजहबी ज़ुल्मों सितम में शामिल न हों। कुरान ने मुसलमानों पर मज़ीद जोर दिया है कि वो हद से आगे न बढ़ें (2:190) और उनसे जंग करते रहो हत्ता कि कोई फ़ितना बाकी न रहे और दीन (यानी ज़िंदगी और बंदगी का नेज़ाम अमलन) अल्लाह ही के ताबे हो जाये, फिर अगर वो बाज़ आ जायें तो सिवाय ज़ालिमों के किसी पर ज़्यादती रवा नहीं (2:193)।
लेखक मदनी मुद्दत के दौरान नाज़िल हो चुकी आयात के अहम मुज़्मिरात (निहितार्थ) दर्ज करते हैं। इस वक्त तक मुसलमानों ने नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की मुत्तहिदा कयादत में एक मोकम्मल तब्के का कयाम कर लिया था, और मोनज़्ज़म व सियासी तौर पर जिम्मेदार अंदाज़ से खुद की दिफा कने की पोज़ीशन में थे। ये व्यक्तिगत क्षमता या बिखरने के अंदाज़ में नाइंसाफी के खिलाफ हिंसक प्रतिक्रिया से अलग था- "जैसा कि अलक़ायदा और अनगिनत दूसरे ग्रुप इस्लाम के नाम पर आतंकवादी हमले को अंजाम देते हैं।"
मोहम्मद यूनुस और अशफाक अल्लाह सैयद कहते हैं: "कुरान ऐसी कोई मिसाल नहीं देता है जिसमें आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने अपने विरोधियों के खिलाफ हथियार उठाया हो या हिंसा के लिए अपने पौरोकारों को उकसाया हो, एक के बाद एक, नबियों को उनके अवाम के नाइंसाफियों को बर्दाश्त करने के लिए हलफ उठाते हुए पेश किया गया है, यहाँ तक कि खुदा हक को वाज़े कर दे।"
कुरान के विविधता के पैग़ाम के साथ मिलाकर पढ़ने पर, ये आयतें स्पष्ट करती हैं कि खुदा चाहता है कि मुसलमान दूसरे समुदायों के साथ शांतिपूर्ण तरीके से सहअस्तित्व में रहें, उन्हें उनके अधिकार दें और अहिंसा के साथ खुद की रक्षा करें। ये उनको जब्र के खिलाफ जंग शुरू करने की इजाज़त देता है, लेकिन मोनज़्ज़म और ज़िम्मेदाराना अंदाज़ में सिर्प उस हाल में जब पूरी मुस्लिम आबादी के मिट जाने का खतरा हो। एक ऐसे वक्त में जब मुसलमानों की आबादी लगभग 1.5 अरब है, या पूरी दुनिया की आबादी का पांचवां हिस्सा हैं और दुनिया के सभी भागों में फैले हुए हैं, ऐसे में इस्लाम की देफा (रक्षा) के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा स्पष्ट रूप से कुरान का उल्लंघन करने वाली होगी।
खासतौर से कुरानी मतन पर निर्भर करते हुए किताब में शादी और तलाक, महिलाओं, मानवाधिकार, इस्लामी राज्य आदि और इस्लाम के बारे में कई अन्य गलत विचारों के बारे में चर्चा है जो मुसलमानों और गैर मुसलमानों दोनों के बीच फैल गई है। किताब सिर्फ कुरान के हवाले पर आधारित नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की संक्षिप्त आत्मकथा भी पेश करती है। "इस तरह ये रचना इसके लेखकों और इसके स्रोत सामग्री की अपनी पसंद के निजी, शैक्षिक और वैचारिक पृष्ठभूमि के प्रभाव को समाप्त करने के लिए डिजाइन किया गया है।"
लेखक ने मुसलमानों से अपील है कि वो "उनके कुछ अपने फुकहा और कानून के माहिरों के ज़रिये अपनी मोक़द्दस किताबों को शैतान सिफ़त बनाने के अमल का विरोध करें, जो कुरानी ज़ाब्तो को लागू करने के नाम पर वाज़े कुरान मोखालिफ संगीन जराएम का जवाज़ पेश करते हैं।" उन्होंने इस यक़ीनदहानी के साथ एख्तेताम किया है कि " हिंसक चरमपंथी ... तेजी से हाशिए पर पहुंचने के लिए प्रतिबद्ध हैं और आखिरकार इस्लाम की दुनिया से तर्क कर दिए जाएंगे।"
इस्लाम का असल पैग़ाम के "इस्लामी आस्था के साथ कोई विवाद न होने" के तौर पर काहिरा की अल-अज़हर युनिवर्सिटी की तरफ से इसे मंज़ूरी हासिल है। पुस्तक के परिचय में, यू.एल.सी.ए., कैलिफोर्निया में प्रमुख इस्लामी विद्वान और कानून के प्रोफेसर, खालिद अबिल फज़्ल का कहना है कि "काश हम एक ऐसी दुनिया में रहते जिसमें ये किताब इस्लाम के सही परिचय में दिलचस्पी रखने वाले मज़हब के छात्रों के लिए एक मानक संदर्भ का माध्यम बन जाए।"
सैफ शाहीन, आस्टिन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कालर हैं।
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