सैफ शाहीन, न्यु एज इस्लाम
11 जुलाई, 2012
मेरे बचपन का ज्यादा हिस्सा दो रहस्यों की वजह से बेवकूफियाँ करने में गुज़रा। उनमें से पहला, केयरफ्री का विज्ञापन है। मैं समझ नहीं पाता था कि खूबसूरत नौजवान लड़की पूरे शहर में उछलती कूदती फिरती है और "बहुत आरामदेह" होने का दावा करती है, जैसे ही ये विज्ञापन टीवी पर प्रसारित होता हमारे घर के लिविंग रूम में खामोशी की वजह बन जाता था। इसके अलावा, मैं ये बिल्कुल भी नहीं समझ पाता था कि आख़िर इसमें ऐसा क्या है जो इस लड़की को इतना आरामदायक होने का एहसास कराता है। यक़ीनन ये सिर्फ उसकी टी-शर्ट और स्कर्ट नहीं थी। इसी उत्पाद के दूसरे विज्ञापन हमारे परिवार के बड़े लोगों में इस तरह की बेचैनी नहीं पैदा करते थे।
खुद से ये इत्मिनान करने के बाद कि इसमें कुछ भी बेहूदगी नहीं है। एक बार मैंने लापरवाही से पूछा, "मम्मी, केयरफ्री क्या है"? जवाब में माँ ने कहा " क्या तुम्हारे पास और कोई काम नहीं है, तुम कुछ ज़्यादा ही टीवी देख रहे हो। जाओ, जाकर पढ़ाई करो। कल क्या तुम्हारा कोई इम्तेहान नहीं है"?
मुझे कुछ साल लगे, ये रहस्य खुद ही मुझ पर खुल गया।
दूसरा बड़ा रहस्य "बड़े का" की परिभाषा थी। मैंने इसे अक्सर अपने घर में सुना और खास कर खाने की मेज़ पर । असल में इसका मतलब क्या है मैं खुद निकाल सकता थाः "बड़े का” या किसी बड़ी चीज़ से संबंध रखने वाला"। लेकिन मेरा विश्वास कीजिए मुझे बिलकुल भी नहीं मालूम था कि ये ‘बड़ी’ चीज क्या है और उसका संबंध किससे है। केयरफ्री के विपरीत जब भी कोई "बड़े का" ज़िक्र करता था इसके बहुत खराब बात होने का इशारा मिलता था। लोग आवाज नीची कर इसकी बात करते थे, हालांकि सभी (सिवाय मेरे) जानते थे कि वो किस बारे में बात कर रहे हैं।
इसकी समझ मुझे धीरे धीरे हुई: शुरुआत में मुझे पता चला कि ये किसी तरह का गोश्त है और अंत में ये पता हो गया कि ये गाय का गोश्त है। लेकिन ये समझने में कुछ और साल लगे इसके बारे में धीमी आवाज़ में बात क्यों करते हैं। हिंदू इसे नहीं खाते हैं इसलिए इसके बारे में ज़ोर से या सार्वजनिक रूप से बात करना अनैतिक (और कभी कभी खतरनाक) होता था।
लेकिन कुछ पुरानी पहेलियों की तरह, इस बात की जानकारी मुझे नए सवालात की तरफ ले गयी। गाय के गोश्त को अच्छे किस्म का गोश्त नहीं माना जाता था, खासकर चिकन और निश्चित रूप से मटन की तुलना में तो बिल्कुल भी नहीं। इसे हासिल करना भी मुश्किल था। इसे लेने के लिए खास तौर से उपनगरीय इलाके में जाना पड़ता था और इसे बनाना भी मुश्किल था। तो फिर हम में गाय ka गोश्त खाने को लेकर इतना जुनून क्यों है? इसमें बड़ी बात क्या थी?
जवाब दिव्य भोजन करने की कला (Gastronomy) के इतिहास में नहीं पाया जाता है। लार बनाने वाली ग्रंथियाँ (Salivatory glands) और अग्नाशय रस (Pancreatic Juice) से इसके कुछ संबंध है। हिंदुस्तानी मुसलमानों के पास गाय का गोश्त खाने का एक गहरा मतलब है: ये उनकी खुद की परिभाषा का एक हिस्सा है, वास्तव में ये उनके पूरे व्यक्तित्व का 50 फीसद है।
सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञ फ़्रेडरिक बार्थ ने दलील देते हुए कहा है कि सांप्रदायिक पहचान इसके अंदर जुड़े होने की तुलना में सीमा पर स्थित होती है। यानी, हम खुद को बुनियादी तौर पर अपने आसपास के लोगों से किस तरह अलग हैं, इस तौर पर देखते हैं। ये मतभेद आंतरिक रूप से बहुत कम हैसियत रखते हैं लेकिन हम उन्हें बनाए रखने की कोशिश इसलिए करते हैं ताकि हम स्पष्ट कर सकें कि हम कौन हैं।
और ऐसा ही हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए गाय के गोश्त खाने के साथ है। गुणवत्ता में कमजोर, हासिल करने में मुश्किल और बनाने में भी मुश्किल है इसके बावजूद इसे खाना ज़रूरी है क्योंकि हिंदू इसे नहीं खाते हैं। पहला कल्मा अल्लाह की विशिष्टता और नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम अल्लाह के नबी होने तक खुद को सीमित करता है और गाय के गोश्त का बाकी के चार स्तंभों में भी कहीं कोई ज़िक्र नहीं है। पूरे कुरान और हदीसों में इसका जिक्र हो सकता है लेकिन ये प्रमुखता से नहीं होगा। इसके बावजूद गाय का गोश्त खाना हिंदुस्तानी मुसलमान होने का लिटमस टेस्ट है।
किसी नये मुसलमान से पूछिए। विश्वास परिवर्तन का जश्न सभी तरह के गोश्त के मसालेदार खाने की दावत के साथ मनाया जाता है। एक हिंदू ने जिसने एक मुसलमान से शादी की है उससे पूछिए। जैसे ही निकाह होता है रिश्तेदार ये सवाल करना शुरू कर देते हैं क्या इसे 'बड़े का' के मसलक (पंथ) में शामिल किया गया। बेशक, किसी भी हिंदुस्तानी मुसलमान से बात कीजिए, उसकी परवरिश के दौरान क्या किसी ने उससे नहीं कहा कि अगर वो गाय का गोश्त खाने के 'पवित्र' काम से जी चुराता है तो वो अपने को उम्मत में शामिल न मानें। "अमाँ यार, बड़े का नहीं खाओगे तो मुसलमान क्या हुए"?
ये किसी और जगह के मुसलमानों के लिए सही नहीं है। एक अमेरिकी मुसलमान, हाईवे पर एक बीफ स्टैक डाईनर देखने पर पहचान के संकट का सामना किए बिना अपने सफर को जारी रख सकता है। एक अरब को तला हुआ गाय का गोश्त दें, वो इसे खा भी सकता है और आखिरत की ज़िंदगी का खयाल किये बगैर वो इससे इन्कार भी कर सकता है। लेकिन एक हिंदुस्तानी मुसलमान ऐसा नहीं कर सकता है, जिसके लिए गाय का गोश्त का खाना आधा ईमान है।
और बाकी के आधे में उसका अरबी नाम शामिल है। जाहिर है मोहम्मद सबसे पसंदीदा नाम है, इसके बाद अन्य अम्बिया किराम,, सहाबा किराम, ताबेईन, तबे ताबेईन के नाम हैं। कई अधिक उत्साही और धर्म से मुँह मोड़ने वाले अपने बच्चे की अच्छी किस्मत के लिए अरबी नाम इसके धार्मिक मूल्य के बजाय इसके ध्वनात्मक पहलू को ध्यान में रखकर चुनते हैं (उदाहरण के लिए, सैफ)। लेकिन नाम अरबी में ही होना चाहिए।
बेशक, दुनिया भर में मुसलमान अरबी नाम रखते हैं, लेकिन हिंदुस्तानी मुसलमानों के अलावा किसी दूसरी जगह के मुसलमान इस अमल से इस कदर चिपके हुए नहीं हैं। मिसाल के लिए उत्तरी अमेरिका की इस्लामिक सोसाइटी अपना नेता एंगर्ड मैटसन नाम की महिला को बिना किसी परेशानी के चुन सकती है। इंडोनेशिया में कोई भी मुसलमान पिता अपने बच्चों का नाम मेगावती सुकर्णोपुत्री या सेलो बाम्बांग योधोयोनो रख सकता है और दुनिया के सबसे मुस्लिम आबादी वाले देश में उनके राष्ट्रपति बनने के सम्भावना पर इससे कोई आँच भी नहीं आती है।
लेकिन ऐसी कोई नक़ल हिंदुस्तानी मुसलमानों के बीच नहीं हो सकती है। ये मतभेद बरकरार रखने के अलावा कुछ और नहीं है। कोई हिन्दू कभी अरबी नाम नहीं रख सकता है, इसलिए एक हिंदुस्तानी मुसलमान के लिए हमेशा ऐसा ही नाम रखना ज़रूरी है।
इस प्रकार, हिन्दुस्तान में एक मुसलमान होने के लिए खूब गाय का गोश्त खाने वाला और अरबी नाम रखने वाला होना चाहिए। मतभेद के कुछ अन्य निशानियों बुर्का और दाढ़ी पर हाल के वर्षों में द्वयाधिकार पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं, लेकिन इस पर बहुत कम ध्यान है। आप लोगों को धोखा दे सकते हैं और जितना चाहें झूठ बोल सकते हैं यहाँ तक की आप कत्ल कर सकते, किसी को नाकारा बना सकते हैं। आपका खयाल रखने वाली हिंदुस्तानी उम्मत के मन में आप मुसलमान ही रहते हैं।
सैफ शाहीन, आस्टिन में स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कालर हैं। वो न्यु एज इस्लाम के लिए नियमित रूप से कॉलम लिखते हैं।
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