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Hindi Section ( 21 Jul 2014, NewAgeIslam.Com)

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Majruh Sultanpuri मजरूह सुल्तानपुरी

 

 

 

 

 

सादक़ा नवाब सहर

13 जुलाई, 2014

अक्सर यूँ होता है कि इंसान अपनी पहचान पूरी दुनिया में तो करवा लेता है लेकिन अपने ही घर में वो एक अजनबी व्यक्तित्व बनकर रह जाता है और फिर इत्तेफ़ाक़न शायर हो तो बात ही क्या है .........

'बैठे रहें तसव्वुरे जानाँ किए हुए' ... बहुत कम ऐसे हैं जो घर और बाहर दोनों जगहों पर मोहब्बत और भरोसे के लायक़ होते हैं। शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपूरी उन्हीं कुछ भाग्यशाली लोगों में से थे। वो हर जगह कामयाब रहे। शायर की हैसियत से, परिवार के प्रमुख की हैसियत से। इंसान बाहर की दुनिया में कितना ही कामयाब रहे, अगर वो घर में कामयाब नहीं तो वो अधूरा है।

मजरूह साहब घर में रहे या बाहर उन्हें अपने बीवी बच्चों, रिश्तेदारों, दोस्तों का हमेशा खयाल रहता। मजरूह अपने बच्चों को मुशायरों में ले जाना पसंद नहीं करते थे लेकिन शायरी के विभिन्न पहलू उन्हें ज़रूर समझा दिया करते थे। आश्चर्य हुआ ये जानकर कि उन्होंने अपने बच्चों को उर्दू नहीं पढ़ाई, शायरी के लिए उनका उत्साहवर्द्धन नहीं किया और बच्चों ने भी इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। I.C.S.C. स्कूल की पढ़ाई और होमवर्क में ही उनका समय निकल जाता था और मजरूह साहब अपने बच्चों को ज़माने की ठोकरों से सुरक्षित रखना चाहते थे।

बच्चों की पढ़ाई और प्रशिक्षण में वो समझौता नहीं करते थे। कभी कभी स्कूल वालों की किसी कोताही का एहसास होता तो स्कूल जाकर प्रिंसिपल और शिक्षकों को डांट आते।

वो बेचारे लिहाज़ में खामोश हो जाते। लेकिन अक्सर जब वो स्कूल के किसी समारोह में शेरवानी, सफेद कुर्ता, पाजामा पहनकर जाते तो बच्चों को लगता कि प्रोग्राम की रौनक़ हमारे पिता से है और ये सही भी होता।

मजरूह साहब की तीन बेटियां थीं नौगुल, नौबहार और सबा और दो ​​बेटे इरम और अंदलीब। नौगुल कनाडा में हैं। उनकी शादी भोपाल के बैरिस्टर सबा रशीद क़ाज़ी के बेटे वक़ार क़ाज़ी से हुई। नौबहार अंसारी साहब के बेटे खुर्शीद से ब्याही गईं। सबा, संगीतकार नौशाद साहब के संगीतकार बेटे राजू नौशाद की पत्नी हैं। तीन बेटियों के बाद इरम का जन्म हुआ तो मजरूह साहब ने शकीला बानो भोपाली की क़व्वाली का प्रोग्राम रखा। इरम जिन्हें प्यार से अमू कहते थे, हार्ट अटैक का शिकार होकर भरी जवानी में दुनिया से सिधार गए। ये एस.एम. सागर की बेटी से ब्याहे गए थे। दूसरे बेटे अंदलीब ने फिल्म लाइन ज्वाइन की। 'जानम समझा करो' बनाई लेकिन पिता के निधन के बाद दाढ़ी बढ़ा ली और इस्लाम के करीब हो गये।  

जिगर साहब से मजरूह की निकटता और मोहब्बत मशहूर है। एक बार जिगर ने नन्ही सबा को एक रुपये का नोट दिया था। मजरूह साहब ने सबा की तस्वीर के निचले हिस्से में नोट फ्रेम करवा दिया। लेकिन एक दिन किसी नौकर ने नोट चुरा लिया। ये वाकया सुनाते हुए सबा की आँखों में पिता के लिए प्यार और बचपन की यादें उभर आईं।

मजरूह साहब के सिर पर टोपी और चश्मा रहता, गर्मी के मौसम में भी स्वेटर, मफलर साथ रखते वजह सर्दी की शिकायत। उन्हें सिर में बहुत ठंड महसूस होती थी। सबा के घर जाते तो सीधे नौशाद साहब के म्युज़िक रूम में चले जाते। सबा को बाद में खबर होती। अक्सर शाम को चार बजे वहां जाते। बाहर हॉल में सबा बैठी इंतेज़ार करती। नौशाद साहब की दोस्ती उन्हें उतनी ही प्रिय थी। जब वो मुंबई आते थे तो दादर की एक चाल में नौशाद साहब के साथ ही रहते थे। उस वक्त वे मजरूह थे न नौशाद। नौशाद से ऐसी यारी निभाई कि रिश्तेदारी तक पहुंचाई।

आज रिज़वी कॉलेज बांद्रा के पड़ोस में 'सीगल बिल्डिंग' में मजरूह साहब के घर में उनकी पत्नी फिरदौस साहिबा और अंदलीब अपने परिवार के साथ रहते हैं। यहाँ भी और इससे पहले Lido सिनेमा के पास जुहू के घर में उनके रिश्तेदारों का आना जाना लगा रहता। कुछ को वो गांव से अपना करियर बनाने के लिए बुला लेते, नौकरी और घर मिलने पर ही वो वहां से विदा होते। उनके एक रिश्तेदार मुश्ताक जो उनके सेक्रेटरी भी थे, आखीर वक्त तक उनके साथ रहे। मजरूह साहब की मौत के चौथे दिन यानी 21 जून को उनका जनाज़ा भी उठा।

शायरी के अलावा मजरूह साहब को कुछ और शौक थे। जैसे शिकार खेलना, ताश खेलना, अच्छा खाना, परिवार के साथ सैर करना, टीवी पर क्रिकेट और हॉकी मैच देखना। शिकार के सिलसिले में अक्सर भोपाल में अपने दोस्त अख्तर सईद खान के यहां जाते थे। मछली के शिकार का भी शौक था। इस सम्बंध  में एक दिलचस्प किस्सा यूं है कि मुंबई के पवाई झील में जहा वो अक्सर मछली का शिकार करते थे, एक बार पूरी रात गुज़ार दी। मजरूह साहब छोटी बोट लेकर सुबह तक उसे बाहर निकालने की कोशिश करते रहे और सफलता पाई।

मजरूह साहब को लखनवी खाना बड़ा पसंद था। बेगम फिरदौस असली घी में बड़ा अच्छा खाना पकातीं और बड़े शौक से खाते। हालांकि बहुत कम खाते ..... मजरूह साहब हुक्का भी बहुत शौक से पीते। शाम को आंगन में बैठे हैं, होले (हरे चने) लहसुन की चटनी के साथ चटखारे लेते हुए खा रहे हैं। हुक्का भी चल रहा है। एक ज़माना था जब बेगम रशीद अहमद सिद्दीकी से शब देग़ पकवाते, कबाब, क़ोरमा, रोगनी रोटी के साथ खाने। चावल ज़्यादा न खाते। चावल में सिर्फ पुलाव पसंद था। भुना क़ीमा विशेष रूप से पसंद था। शिकार का गोश्त विशेषकर तीतर, बटेर, कलेजी वगैरह आग पर भुनवा कर खाते। आखीर में लीलावती अस्पताल में भर्ती किये गए तो बिगड़ती परहेज़गारी से परेशान थे। सत्रह मई को ऐडमिट हुए 20 को घर आए, जैसे घर का खाना खाने ही आए हों। 21 मई को दोबारा ऐडमिट किए गए और 23 की रात को निधन हो गया।  

मजरूह साहब को अपने घर वालों से इतना लगाव था कि जहां जहाँ सम्भव होता पत्नी बच्चों को साथ ले कर जाते। आज फिरदौस साहिबा ज़रा सी पति की बात निकलने पर रोती बिलखती हैं, वक्त मरहम नहीं बन पाया तो क्या अजब है। पिछले दिनों प्रोड्यूसर, डॉयरेक्टर नासिर हुसैन का निधन हुआ तो जैसे पुरानी यादें लौट आईं। मजरूह साहब ने नासिर हुसैन के साथ कई फिल्में की थीं। बेक़रार होने लगीं, मजरूह साहब के गीत टीवी पर देख सुन कर, यादों की रेल फिर उल्टी चलने लगी। मजरूह साहब अपनी बेगम को यूरोप, कनाडा, जहां जहाँ फिल्म वाले या साहित्यिक संस्थाएं टिकट देते थे, हर जगह ले गए। 'पुकार' फिल्म तक वो उनके साथ जाती रहीं। फिर स्वास्थ्य की खराबी के कारण इसमें कमी हो गई।  

मजरूह साहब को 30 सितम्बर 1994 में 93 का दादा साहब फाल्के पुरस्कार लेने दिल्ली जाना था। बच्चों को भी ले गए।  हर साल चंडीगढ़ में 'जश्ने रफी' के अवसर पर सर्वश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार दिया जाता है। मजरूह साहब के हाथों पुरस्कार दिया जाना था। वहां गए तो प्रबंधकों से कहा कि बेटी सबा को शिमला घुमा लाऊँ, उन्होंने शिमला की सैर कराने के साथ मुशायरे का प्रबंधन कर लिया। मज़ाक में कहते हैं 'सबा तुम्हारी बदौलत हमने शिमला देख लिया' बच्चियों की शादी के मौक़े पर खुद उन्हें ले जाते और खरीदारी करवाते। मजरूह साहब दोस्तों को पसंद करते थे। राही मासूम रज़ा, सलमा सिद्दीक़ी अलावा कई फिल्मी, साहित्यिक और गैर फिल्मी लोगों से दोस्ती हुई और उसे निभाया भी।  

मजरूह साहब आखीर वक्त तक सकारातमक सोच रखते रहे। लीलावती में भी उन्हें विश्वास था कि संभल जाएंगे। यही जीने की ललक उनमें ज़िंदादिली भरती रही। उम्र और कमज़ोरी थी लेकिन अपनी मृत्यु से दो महीने पहले गाड़ी खुद चलाते थे। बच्चे मना करते कि हाथ काँपते हैं, तो उन्हें डांटते। मजरूह साहब साहित्य और फिल्म के बड़े व्यक्तित्व हैं, लेकिन वो अपनी बड़ाई को घर नहीं लाए थे। घर में वो केवल पिता, नाना, दादा थे, पति थे। घर के हेड जिनके सहारे और भरोसे घर चलता है। बाहर जो संघर्ष करें सो करें। आपके रिशतों पर इसका कोई असर नहीं।

ज़ी टीवी वालों ने 'Making of Legend' कार्यक्रम के लिए जब अंदलीब से पूछा कि तुम्हारे अब्बा तुम्हें कैसे लगते हैं तो उन्होंने बड़े गर्व से कहा था 'Best in the world' ये नहीं कि वो बहुत बड़ी संपत्ति छोड़ गए हैं या दुनिया की तमाम नेमतें बच्चों की झोली में डाली हों। लेकिन ये था कि किसी चीज़ की कमी महसूस होने नहीं दी। अंदलीब ने मुझसे कहा कि आज करोड़पतियों के बच्चे आत्महत्या करते हैं क्योंकि सब कुछ होते हुए भी उन्हें संतुष्टि नसीब नहीं। हम में अब्बा ने वो कूट कूट कर भर दी है। घर में कभी फिल्मी माहौल नहीं रहा। शेरख्वानी भी तभी होती है जब मेहमान घर आते।

मजरूह साहब के गुस्से के बारे में कई बातें मशहूर हैं। कुछ पहचान वाले उनसे नाराज़ भी रहे लेकिन बात कुछ ऐसी थी कि अंतिम समय तक उन्हें काम करना पड़ा। लिहाज़ा कुछ चिड़चिड़े हो गया थे। शुरू के दिन संघर्ष से गुज़रे। पहले तीन बेटियां थीं एक एक करके तीनों की शादी की, बेटे छोटे थे। किसके Support पर आराम करते। इरम की मौत के बाद अक्सर कहते 'खुदा किसी बाप के कंधे पर बेटे का जनाज़ा न उठवाए' अंत में इस बात का भी चिड़चिड़ापन था कि अंदलीब का कुछ क्यों नहीं बन रहा। उन्हें काम मांगने की आदत नहीं थी मगर भाग्यशाली थे। अस्पताल में भी जतिन ललित का इसी सम्बंध में फोन आया था। ज़िंदगी यूं गुज़रती रही कि रोज कुआँ खोदो और रोज़ पानी पियो। चिंता थी कि मेरे बाद इन सब का क्या होगा? कभी इस बात का गुस्सा नहीं था कि बुढ़े से काम करवा रहे हैं या हम ने उन्हें सहारा दे रखा है। इसके तरह की बात न कभी दोस्तों से सुनी गई न रिश्तेदारों से। अंदलीब ने बड़े दुख से कहा कि हम खड़े हो जाते तो वो आराम कर लेते।

मजरूह साहब अपने बच्चों के बचपन को फिल्मी और साहित्यिक व्यस्तता की भेंट नहीं करना चाहते थे, उनके बच्चों ने जो खुद अब छोटे या बड़े बच्चों के मां बाप चुके हैं। अपनी यादों के झरोकों से झांक कर कहा कि हम बीमार पड़ते तो दोहरी खुशी मिलती, एक तो स्कूल से छुट्टी मिलने की दूसरे इम्पोर्टेड खिलौने पाने की, जो उस ज़माने में बहुत महंगे होते।

बच्चों को वो उदास नहीं देख सकते थे। फिल्म 'जानम समझा करो' में बौकग्राउण्ड म्युज़िक की रिकॉर्डिंग हो रही थी कि संगीतकार और निर्माता में कहा सुनी हो गई और एक महत्वपूर्ण सीन रह गया। निर्माता ने संगीत निर्देशक को पैसे देने से इंकार कर दिया। इन दिनों मजरूह साहब 'मशअले जाँ' के नाम से अपने कलाम का संग्रह प्रकाशित करवाने के लिये पैसे इकट्ठा कर रहे थे। उन्होंने घर में सख्ती से कह रखा था कि इतने पैसे मेरे हैं। किसी ज़रूरी काम के लिए भी खर्च न किए जाएं। लेकिन फ़िल्म को पूरा होने के इस चरण में उन्होंने अंदलीब को क़रीब बुलाया, सारे पैसे निकाल कर उन्हें दे दिया और कहा अपना म्युज़िक कंपलीट कर लो।

बहुत कम लोग, सौ से भी कम, इमारत के अहाते में नज़र आए। लोगों को खबर ही नहीं हुई और एक प्रमुख साहित्यिक हस्ती और हज़ारों फिल्मी गीतों के निर्माता, जिनकी मौजूदगी हज़ारों लोगों को इकट्ठा कर लेती थी, कुछ चाहने वालों की मौजूदगी में मनों मिट्टी के नीचे सुला दिया गया।

कभी कभी इस देश का बहुभाषी होना एक तरह से हमारी बदक़िस्मती बन जाता है जब एक ज़बान की क़ाबिलियत दूसरी ज़बान वालों तक पहुंच नहीं पाती। महाराष्ट्र कॉलेज के एक मुशायरे में मैंने मजरूह साहब को सलाह दी कि वो अपना कलाम देवनागरी लिपि में छपवाएँ ताकि देश के कोने कोने में पहुंचे। उनके शेर लोगों की ज़बान पर तो हैं लेकिन कई लोग उन्हें पढ़ नहीं पाते। डॉक्टर राबिया शबनम आब्दी ने मुझसे कहाः तुम ही ये काम क्यों नहीं कर लेतीं। मजरूह साहब ने प्रेरित किया। उन्हीं की सरपरस्ती में मैने दो वर्षों में ये काम पूरा किया। ये संग्रह सारांश दिल्ली 'पैर की ज़ंजीर न देख' के नाम से 2002 में प्रकाशित हुई। इसके बाद वाणी प्रकाशन दिल्ली से उनकी गज़लियात और ग़ज़ल नुमा गीतो का संग्रह 'लोकप्रिय कवि' 'मजरूह सुल्तानपुरी' के नाम से 2002 में प्रकाशित हुआ। इन दो किताबों के अलावा कुछ और किताबें भी संकलित कर रही हूँ।  

13 जुलाई, 2014 स्रोतः रोज़नामा ख़बरें, नई दिल्ली

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