एस. इरफान हबीब
22 फरवरी 2014
मौलाना आज़ाद का इस्लाम समकालीन कठोर और लड़ाकू इस्लाम के मुकाबले में बहुत अधिक उदार था।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का निधन 22 फरवरी 1958 को हुआ था। ये सिर्फ एक असाधारण इंसान की मृत्यु नहीं थी बल्कि एक विचारधारा की मौत थी जिसने कई दशकों तक लोगों को रास्ता दिखाया- ये अविभाजित हिंदुस्तान की एक विचारधारा थी जिसमें हिन्दू बहुमत के साथ मुस्लिम खुशी खुशी रह सकें। मुसलमानों ने सदियों पहले भारत को अपना घर बनाया और मौलाना आज़ाद के अनुसार भारतियता के विचार में मुसलमानों की बहुत बड़ी हिस्सेदारी थी। लेकिन मौलाना आज़ाद की विचारधारा को 1947 में उस समय झटका लगा जब बँटवारे की हिंसा ने भारत को तबाह कर दिया। मौलाना आज़ाद ने नये भारत को लगे ज़ख़्म और चोट के उपचार और देश के पुनर्निर्माण में दस साल औऱ बिताए।
मौलाना आज़ाद ने 19वीं सदी के अंत में अपनी शिक्षा के संदर्भ में शैक्षिक व्यवस्था और पाठ्यक्रम पर व्यापक टिप्पणियाँ की थीं। ऊपर 1955 की एक तस्वीर में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, सैयद महमूद और कैलाश नाथ काटजू के साथ (बीच में) मौलाना आज़ाद
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मौलाना आज़ाद ने कई ज़िंदगियों को जिया। जिनमें से कुछ अच्छी तरह से जानी जाती हैं जबकि उनके जीवन के कुछ पहलू अभी तक रहस्मय तरीके से अज्ञात बने हुए हैं। जनता इनके बारे में बहुत ज़्यादा नहीं जानती या इनके बारें में बहुत कुछ लिखा नहीं गया है। मौलाना आज़ाद के जीवन के शुरुआती दिनों में एक दशक ऐसा था जब उन्हें विरासत में मिली आस्था से मोहभंग हो गया और इस्लाम के बारे में कुछ मुश्किल और असुविधाजनक सवालों को उठाया।
इस स्थिति पर पहुंचने से पहले वो बच्चे के रूप में एक विद्रोही थे जो अपने पिता की धार्मिक आस्था से असहमत था, उसे सर सैयद अहमद के आधुनिकवाद से आसक्ति हो गयी थी और जिससे उसके पिता मौलवी खैरुद्दीन नफरत किया करते थे, हालांकि उनके पिता संगीत को पसंद नही करते थे लेकिन मौलाना आज़ाद ने चुपचाप सितार सीखने का फैसला किया। विरासत में मिली आस्था के प्रति उनकी असहमति और भी आगे बढ़ गयी और वो नास्तिक (दहेरिया) हो गए और सिर्फ भौतिकवाद और तर्कवाद पर विश्वास करने लगे। 14 से 20 साल की उम्र तक मौलाना आज़ाद सिर्फ दिखावे के लिए आस्तिक बने रहे जबकि इस दौरान वो आंतरिक रूप से बिना किसी आस्था के रहे।
एक अलग इस्लाम
उनके जीवन का ये छोटा चरण अल्पकालिक था इसलिए कि वो जल्द ही इस्लाम की तरफ लौट आए लेकिन अब भी उनका इस्लाम गुणात्मक रूप से अलग ही था। और इस मामले में मौलाना आज़ाद स्पष्ट रूप से हर किसी से अलग थे। और वो इस तथ्य से भी परिचित थे कि बहुत सारे लोगों ने उनका समर्थन नहीं किया जब उन्होंने कहा: "जब भी धर्म, साहित्य, राजनीति और दर्शन के मार्ग पर चला, मैं अकेला ही चला। समय के कारवाँ ने मेरी किसी भी यात्रा में मेरा साथ नहीं दिया।"
मौलाना आज़ाद ने अपने पूरे जीवन में मूल भावना के साथ कुरान पर विचार करने पर ज़ोर दिया जो कि इस्लाम के मानने वाले सभी लोगों के अंदर थी। उन्होंने परंपरागत इस्लाम को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, इसके बजाय उन्होंने विश्वास की व्याख्या करने के लिए स्वतंत्र तर्क या इज्तेहाद को अपनाने का समर्थन किया। उन्होंने कुरान में जो अवगत कर दिया है उससे अधिक समझने के खिलाफ भी चेतावनी दी। ये समकालीन संदर्भ में पैगम्बरी दृष्टिकोण लगता है, जहां बहुत सारे लोग इस्लाम का हवाला इस तरह देते हैं जिस तरह वो चाहते हैं कि कुरान बोले।
ग़ुबारे खातिर 1942-45 के बीच क़ैद के तीन बरसों के दौरान अहमदनगर किले की जेल में लिखे गए उनके पत्रों का संग्रह है जिसमें मौलाना आज़ाद ने कुछ बेहद असामान्य और सांसारिक समस्याओं का जवाब दिया है। मिसाल के तौर एक पत्र में जीवन भर उनके शौक चाय के बारे में उल्लेख है। उन्होंने पत्र में लिखा है कि वो अपना दिन सफेद चीनी चमेली चाय के साथ से शुरू करते थे जिसको वो अकेले ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि कोई और उसके स्वाद की सराहना नहीं कर सकता था। अक्सर लोग दूध और शक्कर से मिलाकर बनाई हुई चाय पीने के आदी थे जिसके बारे में ब्रिटिश लोगों ने उन्हें बताया था कि ये चाय है। वो लिखते हैं: ''सिर्फ जवाहरलाल नेहरू बिना दूध की चाय पिया करते थे लेकिन वो भी असली चीनी चाय नहीं होती थी। एक पत्र में वो खुशियों के बारे में लिखते हैं। उन्होंने एक चीनी व्यक्ति के कथन का हवाला देते हुए लिखा कि "सबसे बुद्धिमान व्यक्ति कौन है? जवाब है किः वो जो सबसे अधिक खुश हो।" दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने ऐसे लोगों का मज़ाक उड़ाया है जो मानते हैं कि धार्मिक और दार्शनिक लोगों को गंभीर और उदास दिखने की ज़रूरत है। वो कहते हैं कि ये सम्मान और सीखने के लिए शर्त नहीं हो सकती।
शिक्षा में सुधार
मौलाना आज़ाद ने 19वीं सदी के आखीर के हिंदुस्तान में शिक्षा और विशेष रूप से इस्लामी मदरसों की शिक्षा के संदर्भ में शैक्षिक प्रणाली और पाठ्यक्रम पर अपनी टिप्पणी की है। उन्होंने लिखा है: "ये एक प्राचीन शिक्षा प्रणाली थी जो हर दृष्टि से व्यर्थ हो चुकी थी जिसमें पढ़ाने का तरीका दोषपूर्ण, बेकार के विषय, किताबों के चयन में त्रुटि, कैलीग्राफी और पढ़ने का दोषपूर्ण तरीका था।" सौ साल से भी पहले इस्लामी मदरसों के बारे में अगर मौलाना आज़ाद की ये राय थी तो हम अच्छी तरह समझ सकते हैं कि समकालीन शिक्षा प्रणाली में तात्कालिक और बुनियादी सुधार की कितनी सख्त ज़रूरत है।
उन्होंने अलअज़हर युनिवर्सिटी की भी आलोचना की और इसके पाठ्यक्रम को घटिया बताया। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए उन्हें इन मदरसों पर निर्भर नहीं होना पड़ा, इस पर संतोष व्यक्त करते हुए वो लिखते हैं: "ज़रा सोचें कि अगर मैं वहीं रुक जाता और नई जिज्ञासा के साथ नए ज्ञान की खोज में नहीं निकलता तो मेरी क्या दुर्दशा होती! जाहिर है मेरी प्रारंभिक शिक्षा से मुझे निष्क्रिय दिमाग और वास्तविकता से बिल्कुल अंजान होने के सिवा और कुछ भी नहीं दिया होता।"
रूढ़िवादिता के बारे में उनके लेखन और अपने ही परिवार की बौद्धिक और धार्मिक विरासत पर सवाल पूछने पर समकालीन इस्लामवादियों को मौलाना आज़ाद जैसे विद्वान की अंतर्दृष्टि से एक या दो सबक़ सीखने की ज़रूरत है। एक पत्र में वो लिखते हैं: "किसी भी व्यक्ति के बौद्धिक विकास में उसकी रूढ़िवादी मान्यताए हीं सबसे बड़ी बाधा हैं। कोई और ताकत इंसान को बंधन में नहीं बाधती जितना कि उसकी रूढ़िवादी मान्यताएं बाँधती हैं। कई बार विरासत में मिली आस्था के बंधन इतने मज़बूत होते हैं कि शिक्षा और माहौल भी इससे छूटकारा दिलाने में मददगार नहीं होते। शिक्षा इंसान को सिर्फ एक नया रंग दे देती है लेकिन वो आंतरिक विश्वास के ढांचे में कभी प्रवेश नहीं करती, जहां जाति, परिवार और सदियों पुरानी परम्पराओं का प्रभाव लगातार सक्रिय रहता है।"
हमें मौलाना आज़ाद की बेशकीमती और लगभग भूला दी गई विरासत को याद करने और उस पर चिंतन करने की ज़रूरत है जिसका आधार स्वतंत्र चिंतन और बहुलवाद है। विशेष रूप से मौलाना आज़ाद का इस्लाम समकालीन कठोर और लड़ाकू इस्लाम के मुकाबले में बहुत अधिक उदार था।
इसलिए जब कभी धार्मिक बुनियादों पर भारतियता को खतरा पेश आए ऐसे समय में हमें मौलाना आज़ाद की विरासत पर ध्यान देना ज़रूरी हो जाता है।
एस इरफान हबीब दिल्ली स्थित नेशनल युनिवर्सिटी आफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद चेयर के प्रमुख हैं।
स्रोत: http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/the-forgotten-inheritance-of-azad/article5714121.ece?homepage=true
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