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Hindi Section ( 26 Jun 2012, NewAgeIslam.Com)

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In Search of a Universal Focus for Humanity इंसानियत के लिए एक आलमगीर मर्कज़ की तलाश में


राशिद समनाके, न्यु एज इस्लाम

20 जून, 2012

(अंग्रेज़ी से तर्जुमा- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

अपनी तख़लीक़ के ज़माने से ही इंसानियत अगर ज़हनी तौर पर नहीं तो कम से कम जिस्मानी तौर पर दुनिया के तजाज़बी खिंचाव से हाल फ़िलहाल तक बंधा रहा था। फ़लकी तबीइयाती साईंस का शुक्रिया जिसकी वजह से अब इंसानियत आस्मानों की बुलंद परवाज़ कर रही है और बैनुल अक़वामी ख़लाई स्टेशन के ज़रिए ज़मीन के महवर में चक्कर लगा रही है और इंसान चांद पर चल रहा है और एक लंबी छलांग लगाते हुए मरीख़ के लिए मंसूबी बंदी कर रहा है। इस तरह मर्द और औरतें अपनी आँखों से मुशाहिदा कर सकते हैं कि ज़मीन किसी भी तरह सपाट नहीं है और इसलिए लोग ये नतीजा निकाल सकते हैं कि ज़मीन की सतह पर उसका कोई मर्कज़ नहीं है।

मज़हबी मराकज़ के अलावा भी दूसरी इक़साम के मर्कज़ हैं। मिसाल के तौर पर बहुत से लोग सियासी तौर पर यक़ीन कर सकते हैं कि वाशिंगटन डीसी आज ज़मीन का मर्कज़ है जैसा कि गुज़रे ज़माने में मशरिक़ और मग़रिब दोनों में लंदन या ब्रसेल्ज़, बीजिंग, रोम, बग़दाद, इस्तांबूल और बड़ी तादाद में दीगर दारुल हकूमतें थीं। ताहम, एक और बंधन इंसानियत के लिए है जो इस दुनिया से आज़ाद होने के लिए है। और ये मज़हबी मराकज़ का बंधन है जो क़दीम ज़माने से लेकर मौजूदा ज़माने तक है। हालिया ज़माने में जो अब भी इस्तेमाल हो रहे हैं इनमें ल्हासा, वेटिकन, अयोध्या, क़ुम, यरूशलम, मक्का और दीगर मराकज़ हैं। इनमें से ज़्यादा तर ख़ालिसतलन रुहानी और मज़हबी नौईयत के एतबार से हैं लेकिन माद्दी तौर पर ज़मीन के मर्कज़ हैं।

आख़िर में ज़िक्र किए गए शहर को इंसानियत के बड़े हिस्से की तरफ़ से इस्लाम की बुनियादी जगह और इसके आख़िरी मोब्बलिग़ पैग़ंबर मोहम्मद रसूल अल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की पैदाइश की जगह तसव्वुर किया जाता है। रसूलल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के पैरोकारों का ख़याल है कि मक्का ना सिर्फ मज़हबी मर्कज़ है बल्कि क़िबला और इस ज़मीन की तवज्जो का मर्कज़ और ज़मीन पर ख़ुदा की दारुल हकूमत है। ये ग़ौर करने के लिए कुछ मुनासिब सवालात उठाता है। ये इब्तेदाई मुसलमानों के तब्क़े के ज़रिए एक कामयाब और दुनियावी रियासत क़ायम करने के लिए जद्दोजहद की तारीख़ पर मबनी है और जैसा कि हम जानते हैं और ये सवाल करता है:

अगर मक्का शहर अमन और सलामती का शहर है, जैसा कि क़ुरान में दिया गया है " अलबलदिल अमीन " 95-3 तो फिर ख़ुदा के रसूल को ख़ुदा के अपने अहकाम को क़ायम करने के जद्दोजहद में अमन और सलामती क्यों नहीं मिली? आप को वहां से हिजरत करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?

" ख़ुदा के रसूल मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने ख़ुदा की हिफ़ाज़त में तिजारती और मूर्ती की इबादत करने वाले शहर मक्का से हिजरत की और दूर दराज़ शहर मदीना मुनव्वरा में पनाह ली।(www.newageislam.com/ The Most significant Event 16th May, 2012) इसके बाद आपने इस तरफ़ मुड़ कर नहीं देखा सिवाए ज़िंदगी के आख़िरी साल में इस दुश्मन शहर को मह्कूम बनाने के जहां आप पैदा हुए थे। लेकिन आप दुनियावी हुकूमत के दारुल हकूमत शहर मदीना में अपनी मुहिम के मोकम्मल होने के बाद ही वापिस आए, क्यों?

इसके नायबीन, चार सालेह खुल़्फ़ा अपनी तौसी हो रही सल्तनत के दारुल हकूमत के तौर पर मदीना को क़ायम करने के तीन दहाईयों के बाद भी, वापिस कभी मक्का नहीं गए, जो उनकी भी पैदाइश की जगह थी, क्यों?

बिला आख़िर जब चौथे ख़लीफ़ा हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हा मदीना से बाहर मुंतक़िल हुए तो उन्होंने ख़ुद को कूफ़ा, इराक़ में मुस्तहकम किया ना कि मक्का मुकर्रमा में, क्यों?

तब से किसी ने भी मक्का को अपनी मुस्लिम सल्तनत की दारुल हकूमत नहीं बनाया, यहां तक कि सल्तनते उस्मानिया ने भी जिन्होंने यहां और मुस्लिम दुनिया के बड़े हिस्से पर हुकूमत की और मुस्लिम दुनिया उन्हें खुल़्फ़ा पुकारती थी, क्यों?

ताज्जुब है कि क्यों इस्लाम के बुनियादी मक़ामात या दोनों मोक़द्दस शहरों में से किसी को मक्का और मदीना के मौजूदा ख़ादिमुल हरमैन शरीफ़ैन ने भी अपनी सल्तनत का दारुल हकूमत नहीं बनाया, क्यों?

क्या ये इसलिए था क्योंकि मक्का हमेशा मंदिर का शहर था और क़ुरान "दीन में जब्र से मना करता है 2-256 , और इस्लाम ने अपने मज़हब पर अमल करने के इंतेख़ाब की आज़ादी दी है 39-15 और दूसरे लोगों के देवताओं / मज़हब को बुरा भला कहने से मना करता है 6-108 ", और इस वजह से इसे तबाह नहीं किया जा सकता था?

ये रवायती अक़ीदा कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने अपने हाथों से बुतों को तबाह कर दिया था। ये अक़ीदा भी काबिले एतराज़ है (और जैसा कि कहा जाता है कि माज़ी में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने भी किया था!)। ये कुरानी तालिमात से वाज़ेह तौर पर मोतज़ाद हो जाएगा। इसलिए ये क़ाबिले बहस है कि क्या मक्का ने कभी भी अपने "मंदिर के शहर" की हैसियत खोया था!

दूसरा नुक़्ता जिस का मश्विरा एक आलिम ने दिया कि, हो सकता है कि मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम मदीना के अंसार लोगों की मदद और आपको तहफ़्फ़ुज़ फ़राहम करने से ममनून महसूस करते रहे हों, लिहाज़ा वो वहां ठहरे रहे ताकि उनके दिलों को जीत सकें। जवाब मंतक़ी है, लेकिन दूसरी तरफ़ क्या रसूलुल्लाह की सुन्नत पर अमल दूसरों के लिए वाजिब थी। अगर हाँ तो चौथे ख़लीफ़ा ने शहर को क्यों छोड़ दिया? फिर बाक़ी के सवालात हैं जो जवाब तलब करते हैं।

ऐसा लगता है कि इस ज़मीन पर मज़हबी और दुनियावी मराकज़ एक नहीं है और मोअख़्ख़र ज़िक्र ज़मीन की सतह पर जुग़राफ़ियाई तौर पर एक मक़ाम से दूसरे मक़ाम और एक वक़्त से दूसरे वक़्त में तब्दील होता रहता है जबकि मोतज़क्किरा बाला एक बार क़ायम हो जाने पर इंसानियत के ज़हन में अब्दी तौर पर जगह बना लेता है और इस तरह "इनमें और हम में से" का सिंड्रोम इंसानियत के मुख़्तलिफ़ मराकज़ पैदा करता है और जो क़ुरआन की आयत 10-19 को सही साबित करता है।

लिहाज़ा, क्या ये इंसानियत के लिए बेहतर नहीं होगा कि, कायनात के मर्कज़ के लिए इस मुसल्लिमा हक़ीक़त को लागू किया जाय कि ये दुनिया के मर्कज़ में ही वाक़े है, जो इंसानियत की अज़मत और ला महदुदियत का अहाता करता है और जो खड़े और बैठे और लेटे (हर हाल में) ख़ुदा को याद करते हैं 3-191?

राशिद समन के हिंदुस्तानी नेज़ाद इंजीनियर (रिटायर्ड) हैं और चालीस सालों से आस्ट्रेलिया में मुक़ीम हैं और न्यु एज इस्लाम के लिए बाक़ायदगी से लिखते हैं।

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