राशिद समनाके, न्यु एज इस्लाम
4 सितम्बर, 2012
(अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
जैसा कि मर्द और औरतें के बीच शारीरिक अंतर को माना जाता है, उसी तरह ये लगता है कि कुरान मोमिन और मुसलमान के बीच अंतर को स्वीकार करता है। इस दुनिया में उनके "ईमान पर आधारित कार्य, के आधार पर क़ुरान उन्हें अलग अलग लोगों के रूप में संबोधित करता है। इसलिए इनमें अंतर है-
(33:35) बेशक मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें और मोमिन मर्द और मोमिन औरतें और फरमांबरदार मर्द और फरमांबरदार औरतें और सिदक वाले मर्द और सिदक वाली औरतें और सब्र वाले मर्द और सब्र वाली औरतें और आजिज़ी वाले मर्द और आजिज़ी वाली औरतें और सदक़ा और खैरात करने वाले मर्द और सदक़ा और खैरात करने वाली औरतें.............. , अल्लाह ने इन सबके लिए बख्शिश और अज़ीम अजर तैयार फ़रमा रखा है।
इसलिए कोई भी इस नतीजे पर पहुंचता है कि सभी मोमिन मुसलमान हैं लेकिन सभी मुसलमान मोमिन नहीं हैं। दलीलों के लिए केवल कुछ और आयात का हवाला कुरान से दिया गया है ताकि समस्या वास्तविक रूप में समझ में आ सके।
मोमिन की परिभाषा कुरान के मुख्य भाग के शुरुआत में ही दी गयी है, यानी, अध्याय दो, जिसका नाम सूरे बक़रा है। ये उन लोगों की इच्छाओं के जवाब में दी गई जो सही रास्ते का मार्गदर्शन चाहते हैं। ये काफी हद तक खुदा की हम्द (स्तुति) है, जो पहले अध्याय में है और जिसका नाम सूरे फातिहा है।
(2:4) और वो लोग जो आपकी तरफ नाज़िल किया गया और जो आपसे पहले नाज़िल किया गया (सब) पर ईमान लाते हैं, और वो आखिरत (परलोक) पर भी (पूर्ण) ईमान रखते हैं।
(कोई भी व्यक्ति जो अरबी के कुछ शब्द जानता है वो हाज़ा जिसका अर्थ 'ये' है और ज़ालेका जिसका अर्थ जो जगह या समय की दूरी पर हो या नज़र से दूर हो। जिसका उल्लेख बाद में किया गया क़ुरान अपनी शुरुआत में उसका इस्तेमाल करता है, हालांकि ये खुद अपने मार्गदर्शन के संदेश के बारे में बयान कर रहा है।
जैसा कि कई अन्य समस्याओं के साथ सलाह दी जाती है कि किसी भी विशेष समस्या के बारे में कुरान में शोध कर वास्तविक अर्थ को तलाश करें, यहां ये स्पष्ट हो जाता है कि हिदायत सभी पिछले दौर के खुदा के पैग़म्बरों पर नाज़िल वही की बुनियाद पर है, इसलिए शब्द ज़ालेका का इस्तेमाल किया गया):
और ये किताब पहले नाज़िल हो चुकी सभी पूर्व किताबों की तस्दीक (पुष्टि) है, जैसा कि आयत 10:37 में उल्लेख किया गया है। जो इस तर्क के संदर्भ में और गहराई में जाती है।
किताब, मानव मस्तिष्क की काबिलियत के इस्तेमाल के आधार पर, अपने पढ़ने वालों से विशेष 'तक़लीद(अमल करने)' की मांग करती है, उदाहरण के लिए:
(25: 73) और (ये) वो लोग हैं कि जब उन्हें उनके रब की आयतों के ज़रिए नसीहत की जाती है तो उन पर बहरे और अंधे होकर नहीं गिर पड़ते (बल्कि गौरो फिक्र करते हैं)।
(17:36) और (ऐ इंसान!) तू इस बात की पैरवी न कर जिसका तुझे (सही) इल्म नहीं, बेशक कान और आंख और दिल इनमें से हर एक से बाज़पुर्स (पूछताछ) होगी"।
और हिदायत हासिल करने के लिए, कुरान से बाहर किसी भी हिदायत के स्रोत का सहारा या निर्भरता पूरी तरह से खारिज कर दिया गया है और बहुत हद तक इस तरह दलील दी गयी है: -
(10:35) आप (उनसे दरियाफ्त) फरमाइये: क्या तुम्हारे (बनाए हुए) शरीकों में से कोई ऐसा है जो हक़ की तरफ रहनुमाई कर सके?
आप फरमा दीजिए कि अल्लाह ही (दीने) हक़ की हिदायत फरमाता है ..... ये फिर अक्ल वालों के साथ बहस करता है और सवाल करता है, तो क्या जो कोई हक़ की तरफ हिदायत करे वो ज़्यादा हक़दार है कि उसकी फरमाबरदारी की जाये, या वो जो खुद रास्ता नहीं पाता मगर ये कि रास्ता दिखाया जाये..... दिमाग के अता किये गये तोहफे का उपयोग न करने पर कुरान की इंसानों पर नाराजगी स्पष्ट रूप से ज़ाहिर होती है, जैसा कि ये सवाल करता है ..... , सो तुम्हें क्या हो गया है, तुम कैसे निर्णय करते हो।
इस मांग पर और ज्यादा बहस उदाहरण के लिए आयत (39: 3) में है:
(39: 3)( लोगों से कह दें:) सुन लो! इताअत व बन्दगी खालिस अल्लाह ही के लिए है.....?
दूसरे स्रोत के हवाले अगली ही आयत में दिये गये हैं जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है:
(10: 36) इनमें से अक्सर लोग सिर्फ गुमान की पैरवी करते हैं, बेशक गुमान हक से मामूली सा भी बेनियाज़ नहीं कर सकता, यकीनन अल्लाह खूब जानता है जो कुछ वो करते हैं!
(10: 37) ये कुरान ऐसा नहीं है कि इसे अल्लाह (की वही) के बिना गड़ लिया गया हो लेकिन (ये) उन (किताबों) की तस्दीक (करने वाला) है जो इससे पहले (नाज़िल हो चुकी) हैं और जो कुछ (अल्लाह ने लौह में या एहकामे शरीअत में) लिखा है उसकी तफ्सील है, इसकी (हक्कानियत (सत्यता)) में जरा भी संदेह नहीं (ये) तमाम जहाँनों के रब की तरफ से हैं।
इस संदर्भ में इसने इस बात पर जोर दिया है:-
(2: 62) बेशक जो लोग ईमान ले आए और यहूदी हुए और (जो) नसारा और साबी (थे उनमें से) जो (भी) अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर ईमान लाया और उसने अच्छे काम किए, तो उनके लिए उनके रब के यहाँ उनका अजर (इनाम) है, उन पर न कोई खौफ होगा और न वो रंजीदा (दुःखी) होंगे।
इसी तरह अध्याय 72 और आयत 13 में इसका हवाला इस तरह दिया गया है:-
(72: 13) और हमारे दरमियान कुछ मुसलमान- मुसलिमीन हैं और वो लोग जो समझौता चाहते हैं......
इसलिए मुसलमान की परिभाषा में मतलब वो है जो पूरी तरह से खुदा के हुक्म का पालन करे, कुरान के आदेशों के खंडन की तो बात ही छोड़ दीजिए, यहां तक कि जरा भी समझौता चाहते हैं यानी जो दीने इस्लाम के कानून को तोड़ता है वो मोमिनों की बिरादरी से बाहर निकल जाता है।
(31:22) जो शख्स अपना रुखे इताअत अल्लाह की ओर झुका दे और वो (अपने अमल और हाल में) साहबे एहसान भी हो तो उसने मजबूत हल्क़ा को मजबूती से थाम लिया, और सब कामों का अंजाम अल्लाह ही की तरफ़ है।
यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मानवता को संबोधित करते समय बुद्धि रखने वालों के लिए किताब तर्कसंगत हो सकती है, और आम मामलों में आदेशात्मक नहीं हो सकती है सिवाय कुछ दुनियावी मामलों में ये आदेशात्मक लग सकती है लेकिन ये मोमिनों से अपेक्षा करती है कि वो खुदा के दिये हुए दिमाग का प्रयोग करेंगे और इससे फायदा हासिल करेंगे। आमेनू वा आमेलूस्वालेहाते- ईमान रखो और दयानतदारी से पालन करो।
(2: 12) आगाह हो जाओ! यही लोग (हकीकत में) फसाद करने वाले हैं मगर उन्हें (इसका) एहसास तक नहीं।
ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जो लोग अपने आपको मुसलमान की तरह पेश करते हैं लेकिन अमल खुदा के आदेश के विपरीत करते हैं और फसाद पैदा करते हैं, वह मोमिन नहीं हैं, दरअसल वो मुनाफिक हैं!:
(9:64) मुनाफिकीन इस बात से डरते हैं कि मुसलमानों पर कोई ऐसी सूरत नाज़िल कर दी जाए जो उन्हें उन बातों से खबरदार कर दे जो इन (मुनाफिकों) के दिलों में (छिपी) हैं। फ़रमा दीजिएः तुम मजाक करते रहो, बेशक अल्लाह वो (बात) जाहिर फरमाने वाला है जिससे तुम डर रहे हो। कृपया इसके बाद की आयतों का भी अध्ययन करें।
ये दलील उस वक्त तक पूरी नहीं हो सकती है जब तक कि कम से कम मुनाफिकों की एक ताजा और आम तौर पर जिसमें वो शामिल रहते है उस उदाहरण को पेश न कर दिया जाए। मासूम और बगैर हथियार वाले लोगों, यहां तक कि अपने रिश्तेदारों की अपने व्यक्तिगत हितों के लिए बेरहमी से हत्या करते है लेकिन ये उसे कुरान के आदेश का नाम देते हैं और कहते हैं कि वो इस्लाम पर अमल कर रहे हैं:
(17: 33) और तुम किसी जान को कत्ल मत करना जिसे (कत्ल करना) अल्लाह ने हराम क़रार दिया है सिवाय उसके कि (उसका कत्ल करना शरीयत के मुताबिक) हक़ (उचित) हो..... और बहुत सी ऐसी आयते हैं जो जीवन को पवित्र बताती हैं (5: 35), और जिनका आदेश रोज़ाना और खुले तौर पर टूटता है!
आयत (49: 14) से, जो इस तरह के लोगों से कहती हैं। तुम लोग कहते हो कि हम ईमान ले आए हैं लेकिन ईमान अभी तुम्हारे दिलों में दाखिल नहीं हुआ है यानी किताब की ज़बान में ये लोग मुनाफिक और दगाबाज़ हैं, क्योंकि ये लोग आदेशों को तोड़ते हैं।
(16: 90) बेशक अल्लाह (हर एक के साथ) अद्ल (इंसाफ) और एहसान का आदेश करता है और रिशतेदारों को देते रहने का.....!!
राशिद समनाके भारतीय मूल के इंजीनियर (रिटायर्ड) हैं और चालीस सालों से आस्ट्रेलिया में रह रहे हैं और न्यु एज इस्लाम के लिए नियमित रूप से लिखते हैं।
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