राफिया जकारिया
10 जनवरी 2015
पिछली सात जनवरी को फ्रेंच व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो के 10 पत्रकारों और दो पुलिस अधिकारियों की हत्या पर दुनिया भर में गुस्सा है। उस भीषण हत्याकांड के एक दिन बाद फ्रेंच एजेंसी प्रेसे ने आईएस की लीबियाई शाखा द्वारा दो ट्यूनीशियाई पत्रकारों की हत्या की रिपोर्ट छापी। इन दो खोजी पत्रकारों, सोफीने शौरेबी और फोटोग्राफर नादिर खत्री को पिछले सितंबर में ही अगवा कर लिया गया था। उन पर एक ऐसे सैटेलाइट चैनल के लिए काम करने का आरोप था, जो धर्म से लड़ता है। इन दो पत्रकारों की हत्या की अब तक उतनी चर्चा नहीं हुई है, पर अगर इन दो हत्याओं की पुष्टि हो जाती है, तो ये हत्याएं वर्ष 2012 के बाद नए साल के शुरुआती महीने में ही पत्रकारों के लिए खूनी महीना बना है।
पश्चिम के दूसरे देशों की तरह फ्रांस में भी शार्ली एब्दो के दफ्तर में हुए आतंकी हमले की निंदा की गई है और मारे गए उन पत्रकारों को ऐसे शहीदों के तौर पर देखा जा रहा है, जिनका कामकाज अभिव्यक्ति की आजादी का साहस और विद्रोहपूर्ण उदाहरण था। यह हैरान करने वाली बात है कि अभिव्यक्ति की आजादी की इस लड़ाई को मुस्लिमों के संघर्ष के तौर पर कभी नहीं देखा जाता। जबकि पत्रकारिता की आजादी के लिए मारे जाने वाले मुस्लिम पत्रकारों की कहानी कुछ और ही कहती है। पिछले साल दुनिया भर में 61 पत्रकार मारे गए, जिनमें से आधे से अधिक मुस्लिम थे, और वे इराक, सीरिया, पाकिस्तान और सोमालिया जैसे खतरनाक मुल्कों में काम कर रहे थे। पर उनमें से कुछ को ही शहीद हुए पश्चिमी पत्रकारों या पश्चिम के मीडिया में काम करने वाले पत्रकारों की तरह याद किया गया।
अभिव्यक्ति की आजादी चूंकि एक सार्वभौमिक मूल्य है, इसलिए दिग्गज मुस्लिम पत्रकारों की कुर्बानी को भी उसी तरह याद करना चाहिए, जिस तरह पेरिस में मारे गए पत्रकारों को याद किया गया। कुछ पाठकों को लग सकता है कि आतंकवाद की भीषणता के इस दौर में मारे गए पत्रकारों की पहचान बताना नैतिक रूप से ठीक नहीं है। लेकिन यह बताने का उद्देश्य यह जाहिर करना नहीं है कि आतंकवाद के निशाने पर ज्यादा कौन है। लेकिन आतंकवादी घटनाओं पर भी दोहरेपन का परिचय देना या चुनिंदा लोगों का ही महत्व बताने का औचित्य नहीं ठहराया जा सकता। जब-जब पश्चिमी पत्रकारों को निशाना बनाया जाता है, तब-तब इस मानसिकता का परिचय मिलता है।
मसलन, पिछले साल जेम्स फोले और स्टीवन सॉटलॉफ की हत्याओं के वीडियो दुनिया भर में खबरों की सुर्खियां बने। लेकिन वहशियों का निशाना बने कुछ मुस्लिम पत्रकारों की अनदेखी कर दी गई। विगत अक्तूबर में सॉटलॉफ की हत्या के बाद आईएस ने इराक की सदा न्यूज एजेंसी के पत्रकार मोहम्मद अल अकीदी और शमा सालेह अलदीन टीवी के इराकी कैमरामैन और फोटोग्राफर राद मोहम्मद अजावुई की हत्या की थी। उसके एक महीने बाद मोसूल में चार और इराकी पत्रकारों की हत्या हुई। ये हत्याएं सुर्खियां तो बनीं, लेकिन इन मौतों पर सामूहिक शोक या गुस्से का कोई भाव नहीं दिखा। आतंकवाद का शिकार बनने वालों की कुर्बानी पर क्षुब्ध न होना या उसकी अनदेखी करना भी जोखिम को न्योता देना ही है। पश्चिम या पश्चिम के लोगों के शिकार बनने पर ही आतंकवाद की निंदा करना आतंकवाद को दूसरी दृष्टि से देखने का उदाहरण है।
लोगों को मार डालने पर ही मुस्लिम आतंकवादियों को याद करना और आतंकियों के हाथों मारे गए हजारों निर्दोष मुस्लिमों की अनदेखी कर देना स्वस्थ नजरिया नहीं है। पेरिस के हादसे को इस तरह देखा गया, मानो पश्चिम और पश्चिमी लोगों को निशाना बनाने वाला आतंकवाद ही ज्यादा खतरनाक है। लेकिन पेशावर के एक स्कूल में पिछले महीने हुआ आतंकी हमला, जिसमें सैकड़ों बच्चे मारे गए, और इसी सप्ताह नाइजीरिया में बोको हराम द्वारा सोलह गांवों को ध्वस्त कर देने की घटना, जिसमें करीब दो हजार लोग मारे गए, भी आतंकवाद की भीषणता के उदाहरण हैं।
सच्चाई यह है कि दूसरे समुदायों की तुलना में मुस्लिम समुदाय जंग और विस्थापन को ज्यादा झेलते हैं। लाखों सीरियाई, इराकी और अफगान नागरिकों ने जंग के कारण जॉर्डन और पाकिस्तान जैसे मुल्कों में शरण ली है। आतंकी घटनाएं कई खतरनाक सोच को भी जन्म देती हैं। ऐसे हादसे नागरिकों की सुरक्षा और आतंकियों पर जवाबी हमले की मानसिकता बनाते हैं। आतंकवाद का दोष सामूहिक रूप से मुस्लिमों पर मढ़ दिया जाता है। दुनिया भर के मुसलमानों को आतंकवादी या भविष्य के आतंकी करार दिया जाता है।
Source: http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/charlie-hebdo-attack-hindi-rk/
URL: https://newageislam.com/hindi-section/let-talk-those-martyred-journalists/d/101017