पुष्पेश पंत
10 अक्टूबर 2014
इस वर्ष शांति का नोबेल पुरस्कार संयुक्त तौर पर भारत के सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई को दिए जाने के फैसले को कई तरह से देखा जा सकता है। एक ऐसी लड़की को, जो इस्लामी कट्टरपंथी समुदाय का निशाना बन चुकी हो, और एक ऐसे समाज से ताल्लुक रखती हो, जिसे पश्चिम जाहिल समाज के तौर पर देखता है, शांति का नोबल पुरस्कार देकर पश्चिम यह संदेश देना चाह रहा है कि उनकी लड़ाई कट्टरपंथी जेहादियों के साथ है, और वह मानवाधिकारों को बेहतर बनाने वाली किसी भी पहल की सराहना करता है।
दूसरी ओर, भारत के कैलाश सत्यार्थी हैं, जो बचपन बचाओ नामक गैर-सरकारी संगठन चलाते हैं, और बच्चों को हर तरह के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। सत्यार्थी पिछले दो दशकों से बालश्रम के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। उनको नोबल मिलना कहीं न कहीं इस बात की ओर जरूर इशारा करता है कि आजादी मिलने के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी भारत में बच्चों की स्थिति में सुधार की काफी गुंजाइश बनी हुई है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं, बालश्रम और लड़कियों की शिक्षा ऐसे मुद्दे हैं, जो भारत और पाकिस्तान, दोनों ही देशों के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं। मगर इन पुरस्कारों को एक अलग नजरिये से भी देखा जा सकता है।
दरअसल, नोबल पुरस्कारों के वितरण की नीति से मैं ज्यादा सहमत नहीं हूं। नोबल पुरस्कारों की अपनी एक राजनीति होती है। अगर मानवाधिकारों के लिए पुरस्कार देना था, तो इरोम शर्मिला को अब तक यह पुरस्कार क्यों नहीं मिला? ऐसी तमाम हस्तियां क्यों पीछे छूट जाती हैं, जो नोबल के योग्य होते हुए भी, पुरस्कार हासिल नहीं कर पाती हैं।
सवाल उठता है कि अगर शांति के लिए ही नोबल मिलना था, तो हांगकांग में वर्षों से जो लोग संघर्ष कर रहे हैं, उन पर क्यों नहीं विचार किया गया। आखिर उन्हीं मुद्दों पर काम करने वालों को नोबल के योग्य क्यों माना जाता है, जिन्हें पश्चिम उपयोगी मानता है।
नोबेल की पूरी कहानी यह है कि जो मुद्दे पश्चिम को अपने अनुकूल लगते हैं, उनके लिए काम कर रहे लोगों को वह सम्मान देता है, और जिन मुद्दों को वह गैर-जरूरी मानता है, उनकी उपेक्षा करता है। सामाजिक सरोकार वाले कामों की उसकी अपनी परिभाषा है, जो लगातार बदलती भी रहती है। आज पर्यावरण का मुद्दा उसकी सूची में थोड़ा नीचे चला गया, तो उसने बच्चों के कल्याण के मुद्दे को तवज्जो दे दी।
नस्लवाद की समस्या पूरी दुनिया में फैली हुई है, चाहे वह जर्मनी हो, स्पेन, या ऑस्ट्रेलिया। ऑस्ट्रेलिया में तो भारतीय छात्रों पर कई हमले हो चुके हैं। मगर उनकी नजर में यह कोई समस्या ही नहीं है। इससे नोबल का नस्लवाद ही प्रमाणित होता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि नोबल पुरस्कारों के जरिये दूसरे देशों को उनके पिछड़ेपन का एहसास दिलाने के पश्चिम के मंसूबे छिपे होते हों। ऐसे में, यह क्यों न माना जाए कि नोबेल पुरस्कार के पूरे तंत्र पर अमेरिका, पश्चिमी देश, संयुक्त राष्ट्र और ईसाइयत का दबदबा है।
कैलाश सत्यार्थी और मलाला की उपलब्धियों को छोटा बताने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं है। इन दोनों को मिला यह सम्मान पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए गौरव की बात है। कैलाश के बचपन बचाओ आंदोलन ने अब तक 80 हजार से ज्यादा बच्चों के जीवन में खुशियां बिखेरी हैं। उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी के दौरान राहत अभियान में भी जबरदस्त भूमिका निभाई थी। बच्चों के कल्याण के लिए देश और विदेश में बनाए गए कई कानूनों को अंतिम रूप देने में उनका अहम योगदान रहा है।
मलाला पूरी दुनिया में चर्चित हैं, और उनको मिला सम्मान कइयों के लिए प्रेरणादायक हो सकता है, मगर क्या उन्हें नोबल पुरस्कार दिए जाने में जल्दबाजी नहीं की गई? वह तालिबान की वहशियत का शिकार रही हैं, उनके साथ पूरी दुनिया की सहानुभूति है, वह संयुक्त राष्ट्र की ब्रांड एंबेसडर हैं। फिर उनकी बहादुरी पर भी संदेह नहीं, लेकिन पुरस्कार दिए जाने के पहले कुछ वर्ष और उनके काम को देखा जा सकता था।
फिलहाल तो मलाला का ज्यादा वक्त विदेशों में ही गुजरता है। संयुक्त राष्ट्र समेत तमाम वैश्विक मंचों पर दिए उनके संबोधनों पर चर्चा होती ही रहती है। मगर यह देखते हुए कि दुनिया में तमाम ऐसे चेहरे हैं, जिनका पूरा जीवन मानवाधिकारों की बेहतरी के लिए काम करते हुए बीता, मलाला को पुरस्कार दिए जाने के नोबेल समिति के फैसले पर सवाल उठाए जा सकते हैं। पाकिस्तान में किसी सिविल संगठन को अगर यह पुरस्कार मिल गया होता, तो उस फैसले की भी सराहना ही होती।
हालांकि मैं यह नहीं कहता कि इन पुरस्कारों का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए। मगर यह जरूर समझना चाहिए कि नोबेल पुरस्कार दुधारी तलवार की तरह होते हैं। चाहे सत्यार्थी हों, या मलाला, अब पूरी दुनिया की उम्मीदें उनसे कुछ और बढ़ जाएंगी। साथ ही, उनके काम पर भी अब पूरी दुनिया की नजर होगी।
दूसरी ओर, कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि ऐसे माहौल में जबकि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे हैं, एक भारतीय और एक पाकिस्तानी को शांति का नोबेल मिलना निश्चित रूप से सकारात्मक संकेत है। मगर मैं इस सोच से सहमत नहीं हूं। भारत और पाकिस्तान के रिश्तों के नोबेल पुरस्कारों पर आधारित होने की सोच नितांत बचकानी है।
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जबकि पाकिस्तान एक मजहबी राष्ट्र है। दोनों के बीच तनाव के अलग मुद्दे हैं। मुझे तो लगता है कि अब कुछ वर्षों तक भारत शांत रहेगा, और नोबल पुरस्कार पाने की अपनी उम्मीदों को दबाए रखेगा। फिर कहीं न कहीं दोनों देशों के बीच फिलहाल जो तनाव चल रहा है, उससे ध्यान बंटाने में भी इससे मदद मिलेगी। ऐसे में, दोनों देशों के रिश्तों के मद्देनजर शांति का यह नोबेल सेफ्टी वॉल्व की भूमिका जरूर निभा सकता है। फिर भी, महज नोबेल मिल जाने से दोनों देशों के बीच रिश्तों में बेहतरी की उम्मीद पालना समझदारी नहीं कही जा सकती।
स्रोतः http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/noble-in-indian-subcontinent-hindi/
URL: https://newageislam.com/hindi-section/nobel-prize-indian-subcontinent-/d/99464