सुमित पाल न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
5 अक्टूबर 2022
“न दोज़ख़ का डर न खौफे खुदा
हंस कर मैंने मौत से लोहा लिया”
आदिल रामपुरी
“दुआओं का एक शख्स पर सिर्फ झूटा असर हो सकता है या वह बज़ाहिर किसी सूरते हाल की शिद्दत को कम कर सकती है। यह किसी ना उम्मीद सूरते हाल को ड्रामाई अंदाज़ में बदल सकते हैं, यह एक बहुत बड़ी खुद फरेबी है। दुआएं खौफज़दा और मज़हबी हालत में मुब्तिला इंसानों के लिए हैं। “:अहमद हरकान, मिस्री मानवाधिकार के सदस्य और एक निडर नास्तिक
हाल ही में मशहूर का कामेडियन राजू श्रीवास्तव का देहांत हो गया हालांकि पूरा देश लगभग दो महीने तक उनके लिए दिल की गहराइयों से दुआएं कर रहा था। मेरे दोस्त की जवान बहन कैंसर से मर गई, हालांकि उसके घर वालों ने कई दिनों तक लगातार महा मृत्युंजय जाप पढ़ने के लिए यूपी से पंडितों को बुलाया था। अफ़सोस, कि उसे जिन्दा रखने में कोई भी चीज मददगार न हो सकी। ऑस्ट्रेलिया के एडीलेड हस्पताल में बिस्तरे मर्ग पर पड़े एक पुरे काफिर व नास्तिक ने अपने करीबी अजीजों को सख्ती से खा कि आप अब मेरे लिए दुआ न करें क्योंकि मुझे किसी खुदा और दुआ की तासीर पर विश्वास नहीं है। वह मोजज़ना तौर पर सेहत याब हो गया हालांकि तमाम डॉक्टरों ने उसे जवाब दे दिया था। उसे अपने आप पर विश्वास था कि वह जीवित रहेगा। मेरा दृष्टिकोण यह है कि अटल आत्मविश्वास और यकीन की हिम्मत बिना किसी खुदा, नमाज़ या धर्म पर विश्वास के, एक व्यक्ति को जीवन के कठिन चैलेंज से निमटने में मदद कर सकती है। इसमें कोई अभिमान नहीं।
पाठकों के ज्ञान में होगा कि जब 23 मार्च 1931 ई० को एक पूर्ण नास्तिक भगत सिंह को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी जाने वाली थी तो जेलर उनके पास आया और अच्छे अंदाज़ से उनसे दुआ की अपील की। भगत सिंह ने कहा, ‘मैं आपके किसी इल्हामी ताकत पर विश्वास से नफरत नहीं करता, लेकिन मुझे कभी किसी आसमानी ताकत पर विश्वास नहीं रहा। इसलिए, इस मोड़ पर, मैं अपने विश्वास से समझौता नहीं कर सकता। मुझे काफिर ही मरने दो। ‘सर पर सवार मौत किसी को भी कमज़ोर बना सकती है। इसमें लेखक का वाकई कोई अपवाद नहीं है।
लेकिन इंसान अगर पुर्णतः आत्मविश्वासी हो तो सर पर सवार मौत के खौफ पर फतह हासिल कर सकता है और यह अकीदा उसका ‘रूहानी’ सहारा है। किसी भी बातिनी खुराफात के बिना आत्मविश्वास हकीकी रूहानियत है। मैंने अपनी प्रोफेसर और सरपरस्त डॉक्टर ज़ाइफा अशरफ को मरते देखा है। वह भी कैंसर की वजह से लंदन के रायल मार्सडन कैंसर हस्पताल में इन्तेकाल कर गईं। पूरी तरह से नास्तिक, डॉक्टर अशरफ ने शदीद दर्द के बावजूद मौत को गले लगाने का फैसला किया। उसने जिन्दगी में कभी नमाज़ नहीं पढ़ी और न ही उन्हें कभी किसी धर्म (इस्लाम) पर कोई विश्वास था। उनकी देख भाल करने वाले डॉक्टर उनके आत्मविश्वास और इस्तिकामत से हैरान रह गए।
मेरी नास्तिक मां डॉक्टरों को निर्देश दे रही थीं कि वह बिना दुआ और मौत के खौफ के मेरा शरीर चिकित्सा शोध के लिए दान कर दें। लेखक ने भी अपनी पूरी जिंदगी में वाकई में कभी दुआ नहीं की (और कभी दुआ करूँगा भी नहीं)। इसके बावजूद आज मेरे पास सब कुछ है और मेरी तमाम ख्वाहिशात पूरी हो गईं। मैं जानता हूँ, मौत अपरिहार्य है। तो, मैं क्यों फ़िक्र करूँ या इसे रोकने के लिए दुआ करूँ?
मिर्ज़ा असदुल्लाह खान ग़ालिब ने लिखा, ‘मौत का एक दिन निर्धारित है/
नींद क्यों रात भर नहीं आती?’ बिलकुल सच। जब मौत अपरिहार्य हो तो उसका स्वागत निहायत सुकून, यकसुई और वकार के साथ किया जाए।
अगर इस दुनिया में लोगों की अक्सरियत मज़हबी और मोमिन है, तो ऐसे लोग भी हैं जिनका कोई ईमान धर्म नहीं है और वह
पूर्ण रूप से बेदीन हैं। ऐसे गैर मोमिनों के लिए, मौत का करीब आना इतना वहशतनाक नहीं होना चाहिए कि वह
किसी ऐसी चीज पर यकीन करने पर मजबूर हो जाएं जिस पर उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी विश्वास
नहीं किया था।
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English Article: Do Prayers Really Bring About A Change?
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ہیں؟
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