प्रखर
30 मई 2022
इस वक़्त भारत जिस आतंक की गिरफ़्त में है, उसे आप सांप्रदायिक या सामुदायिक
कहेंगे या धार्मिक? क्यों समुदाय छोड़कर आज शत्रुता धर्मों के बीच आ बैठी है? शत्रुता है ही क्यों? ऐसा है ही क्या जिसके लिए लड़ना
इतना ज़रूरी है कि जानें ली जा रही हैं और जानें दी जा रही हैं? इस समाज में न ही हम बड़े हुए
हैं,
और अगर यह हमारा आने
वाला कल है, तो हमें इसमें नहीं रहना है। हम, हम वो लोग हैं जो अभी ज़िंदा हैं, पढ़ते हैं, लिखते हैं, स्कूल जाते हैं, कॉलेज जाते हैं, नौकरियों पर जाते हैं, हँसते हैं, रोते हैं, नाचते हैं, गुनगुनाते हैं, मुस्कुराते हैं, सिनेमा देखते हैं, गाने सुनते हैं, खाना पकाते हैं, दावतें करते हैं, सेर पर जाते हैं, दोस्तों से मिलते-जुलते हैं।
न जाने यह सब करने के बाद भी हमें इतना वक़्त कैसे मिल रहा है कि हम बिलकुल अपने ही
जैसे लोगों से नफ़रत भी कर पा रहे हैं, और उनसे आड़े हाथों लड़ भी रहे हैं।
पीड़ा होती है, किसी से लड़ने में, नफ़रत करने में; किसी से नाराज़ तक होने में दुःख होता है, और हम लोगों को मार रहे हैं, सर-ए-राह, दिन-दहाड़े, खुलेआम। "लोग टूट जाते हैं
एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में " आपने शायद बशीर बद्र का यह शेर नहीं
सुना। ख़ैर, शायरी सुनी होती तो बात ही क्या थी।
और तो सब छोड़ दीजिए, आज के हालात ऐसे हैं कि दो देशों के बीच जंग छिड़ी हुई है। यह
कैसा वक़्त है? क्या वाक़ई एक भी इंसान बचा नहीं है, बचे हैं तो सिर्फ आदमी? (इंसान एक अरबी शब्द है जो 'उन्स' से बना है, जिसके अरबी में मायने होते हैं इश्क़/मोहब्बत। आदमी शब्द बना है 'दम' से, जिसके मायने 'दम लेना, साँस लेना' से हैं।)
हम सिर्फ आदमी बने रहें, यह हमारा मरकज़ नहीं हो सकता। इंसानी सभ्यता में 'इंसान' और 'सभ्य', दोनों ही शब्दों के मायने ख़त्म
होते जा रहे हैं। क्यों है ऐसा कि हम, जिन्होंने धर्म बनाया, आज ख़ुद उसके इशारों पर नाच रहे हैं। धर्म के इशारों पर तो आदमी
सदियों से नाच रहा है लेकिन धर्म के रूढ़िगत संरक्षकों के इशारों पर क्यों नाच रहे हैं? कहाँ है हमारी सोच और समझ? क्यों आज धर्म घरों और मंदिरों
से निकल कर गली-मोहल्लों में निकल आया है? क्यों हर आदमी अपने धर्म का तमग़ा लगा कर घूम रहा है? इंसान का मरकज़ इंसान होना क्यों
नहीं रहा, क्यों धर्म इंसान का मरकज़ बन गया है? क्या यह हुकूमत की सोची-समझी साज़िश है या फिर कुछ सरफ़िरों के
एक झुण्ड की करामात?
यह सारे सवाल आपको शायद जायज़ न लगें मगर हैं, और इसका एकमात्र कारण यह है कि
चूँकि हुकूमत नहीं चाहती कि आप यह सवाल करें। इसकी और कोई वजह नहीं है और न ही वजह
की ज़रुरत ही है। आज के इंसान को आदमी बनाने में जितना हाथ धर्म और हुकूमत का है, उतना ही हाथ मोबाइल और सोशल मीडिया
का है,
गोया हुकूमत ने कोई कसर
छोड़ी भी थी जो मोबाइल ने पूरी की हो।
भारतीय परिवेश में रोज़ ऐसी घटनाएँ हो रही हैं जो कहीं-न-कहीं
हमारे अंदर की सामाजिक असुरक्षा और धार्मिक/मानसिक अस्थिरता को बढ़ावा दे रही हैं। हमें
जितनी ज़रुरत लोगों से दूर रहने की है, उतनी ही ज़रुरत यह घटनाएँ हमारे अंदर लोगों के प्रमाण, ख़ासकर अपनी जात और धर्म के लोगों
के प्रमाण, पाने की बना देती हैं। सुरक्षा की भावना ने ही मनुष्य को हमेशा साथ रखा है और यह
निर्विवाद सत्य है कि जब तब सामाजिक तौर पर सुरक्षित रहेंगे, आप निश्चिन्त रहेंगे।
ग़ौरतलब है कि धर्म आपकी इसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाता है। यही वजह
है कि आज पूरा देश अपने धर्म का तमग़ा लगाए घूमता है। 'नमस्ते' और 'आदाब' कहीं सुनने को नहीं मिलते, सारा देश 'जय श्री राम', 'जय जिनेन्द्र' और 'अल्लाह-हाफ़िज़' जैसी कुप्रथाओं की गिरफ़्त में
है। कुप्रथाएँ इसलिए क्योंकि धर्म कभी भी ऐसा मसअला रहा ही नहीं कि वह आपके या आपके
घर से बाहर निकलकर गली-कूचों में फिरे। इसका सीधा-सीधा कारण यह है कि देश में ऐसे हालात
बनाए जा रहे हैं जिनमें आप असुरक्षित महसूस करें और उस तरफ दौड़ें जहाँ आप सुरक्षित
महसूस करते हों, यानी धर्म की शरण में।
युवल नोआह हरारी ने अपनी किताब 'सेपियन्स' में कहा है कि 'पूरे मानवीय इतिहास में आदमी
को सफलतापूर्वक संगठित रूप से साथ लाने का काम सिर्फ धर्म और पैसा ही कर पाया है।' यह एक मुसीबत के तौर पर हमारे
सामने 2014 के बाद ही आया है क्योंकि 2014 में बीजेपी की सरकार बनने के
बाद,
'कल्चरल चैज़्म' नामक सिद्धांत, (जिसका ज़िक्र मैंने पहले भी एक
मज़मून में किया है, जो NewAgeIslam
पर ही प्रकाशित हुआ है), हमारे सामने स्पष्ट रूप से आ
जाता है। इस सामाजिक खाई का नतीजा यह हो रहा है कि हर कोई अपने धर्म की तरफ दौड़ रहा
है क्योंकि वह उसकी छाँव में सुरक्षित महसूस करता है।
चुनाँचे यह एकदम साफ़ है कि भारत की हुकूमत एक विशिष्ट धर्म के
लोगों की तरफ ले रही है। बाद इसके यह भी ज़ाहिर है कि सरकार के धर्म के तरफ़दार अपनी
वफ़ादारी का सबूत देने वाले लोग, दैर-ओ-हरम से निकलकर गली-कूचों में, स्कूलों में, कॉलेजों में, दफ़्तरों में, बसों में, ट्रेनों में, और घर के बाहर, हर जगह मिल ही जाएँगे। इससे पहले कि उनपर कोई मुसीबत आए वे इस बात को ज़ाहिर कर
देना चाहते हैं कि उनका धर्म उनके साथ खड़ा है। हालाँकि सच यह है कि उनका धर्म, सत्ता के साथ मिलकर, उन्हीं का शिकार करने सड़कों पर
निकल आया है।
संपन्न और सुरक्षित महसूस करने के लिए यह हर आदमी की मौलिक ज़रूरतों
में शुमार हो चुका है कि वह अपने समुदाय और अपने धर्म के लोगों से प्रमाणीकरण प्राप्त
करे। (It has become vitally important for
everyone to seek validation from their community and religion to feel secure
and accomplished.) इस धर्म की शक्ल एकदम नई-सी लगती है। पहले कभी इस स्तर पर किसी ने भी धार्मिक उन्माद
नहीं देखा था और लोग, इस नए धर्म में अपनी हिस्सेदारी जताने के लिए भरसक कोशिशें कर रहे हैं। नया-नया
मुसलमान ज़्यादा प्याज़ खाता है।
वह ऐसा अपने-आप को बचाने के लिए ही कर रहा है। यदि वह ऐसा नहीं
करेगा तो कहीं ऐसा न हो किसी दिन उस पर कोई मुसीबत आ जाए और उसका धर्म उसे बचाने के
लिए वहाँ न हो। लेकिन चूँकि वो प्रमाणित है, चूँकि उसने अपने धर्म का प्रदर्शन किया है, उसके धर्म के और लोग उसे शायद
बचा लें। उसने इसी प्रमाणीकरण के लिए, धर्म को एक ढाल के रूप में इस्तेमाल करने के लिए, अपने धर्म को अपने मंदिर-मस्जिद
से निकालकर सड़क पर रख दिया था, और एक तमग़े की तरह उसे हर जगह लेकर घूमता भी है।
यह सब शायद आपको समझने में मुश्किल लग रहा होगा मगर सच भी यही
है। थोड़ा और खोजबीन करेंगे तो आप पाएँगे कि किस क़दर देश की आर्थिक स्थिति जर्जर हालत
में है। गेहूँ और चीनी का निर्यात बंद कर दिया गया है, पेट्रोल के दाम रोज़ बढ़ रहे हैं, महँगाई की दरें हर साल बढ़ रही
हैं,
बेरोज़गारी चरम पर है, गर्मी के मौसम में कोयला ख़त्म
हो जा रहा है, और जलवायु परिवर्तन ने सारी हदें पार कर दी हैं; लेकिन सब मंत्री-संत्री मौन हैं, राजनीतिक सभाओं में बैठे, धर्म का नाम जप रहे हैं और धार्मिक
सभाओं में बैठे राजनीती कर रहे हैं।
अवाम की भी कोई ग़लती नहीं है, कोई इन मुद्दों पर तो तब बात करेगा जब वह सुरक्षित महसूस करेगा।
हुकूमत की सोची-समझी साज़िश है कि कोई सुरक्षित महसूस नहीं करेगा तो इन मुद्दों पर चर्चा
भी नहीं होगी, बस चाय पर चर्चा होगी। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। ऐसा क्या ख़तरा है एक
धर्म को दुसरे से? औरंगज़ेब ने भारत पर 50 से भी ज़्यादा सालों तक राज़ किया। यदि वह चाहता तो पूरी आवाम
का धर्म परिवर्तन करवा देता। किसने रोका था उसे, बादशाह था वह हिंदुस्तान का। आज बादशाह कौन है, किसका राज है हिंदुस्तान पर, कौन है यहाँ का सम्राट? सोचिए।
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