प्रखर, न्यू एज इस्लाम
11
मार्च, 2023
सआदत हसन मंटो अपनी कहानी ‘हिंदी और उर्दू’ में कहते हैं कि “ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और ना इन्सानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं।”
बात एकदम सही है लेकिन इसमें एक मुश्किल है। सआदत हसन ये बताना शायद भूल गए कि क्या सरकारी कोशिशें किसी ज़बान का फ़ना कर सकती हैं या नहीं। मैं ये तो नहीं मानता कि उन्होंने इस बात पर ग़ौर नहीं फ़रमाया होगा।
ज़बान बनाई नहीं जाती, बनती है, सही बात है। समाज ही शायद अपनी ज़रूरतों को पूरा करते हुए, किसी ज़बान को जन्म दे देता है। ये ठीक वैसा ही होगा कि कोई जंगल में आम खा कर उसकी गुठली इधर-उधर कहीं फेंका जाए और कुछ सालों में वहाँ एक आम का पेड़ उग आए। ऐसे में फेंका गया बीज, समाज में रह रहे लोग हुए और समाज वो मिट्टी हुआ जिस को बस ये पता है कि बीज के साथ उसका क्या रिश्ता है। इस कथा में किसी भी तरह की परिस्थितियाँ मायने नहीं रखती। बीज और मिट्टी का होना ही परिपूर्ण है। किसी भी तरह कि कोई शर्त नहीं होती।
एक बार अगर कोई भाषा बन गई तो वह अपने आप में एक आईने का रूप धारण कर लेती है, जिसमें समाज झलकता है। हैरत की बात ये है कि समाज उस आईने में ख़ुद को देखने में असमर्थ हो चला है और कुछ ये भी है कि आईने में इतनी तरेड़ पर चुकी हैं कि उसमें सभी तस्वीरों की याद की एक धुँधली परछाई दिखती है। कुछ दो-चार बुद्धिजीवी ही बचे हैं जो तरेड़ के बीच, बचे-कुचे हिस्सों में समाज की बिगड़ती हुई तस्वीर को देख पा रहे हैं और उसकी आलोचना कर पा रहे हैं। इन तरेडों में सबसे बड़ी तरेड़ इंटरनेट और सोशल मीडिया ने डाली है।
हम पहले हिंदी की बात करते हैं। हिंदी समाज की प्रतिष्ठित भाषाओं में से एक है और उसे सरकारी तबक़े का समर्थन भी भरपूर मिला है। आम बोल-चाल की भाषा को सिर्फ हिंदी कहना वैसा ही होगा जैसा दसहरी आम को सिर्फ आम कहकर सम्बोधित किया जाए। यह ग़लत नहीं है, लेकिन अधूरा है। मैं आम बोल-चाल की हिंदी भाषा को टपोरी हिंदी भाषा कहूँगा—ऐसी विभाषा, जिसके इस्तेमाल में मेहनत और सूझ-बूझ का कोई लेना-देना नहीं है। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और रामधारी सिंह दिनकर की हिंदी का कोई नाम-ओ-निशान ही नहीं बचा है। अज्ञेय की तरह हिंदी लिखने वाले ऐसे कम हो रहे हैं, जिस तरह से इनकी लिखी किताबें बाज़ार और संपादक गृहों से।
हिंदी के अध्यापकों ने ख़ुद इस निम्नीकरण में भरपूर सहयोग दिया है। भूमंडलीकरण के चलते अंग्रेज़ी को सीखने पर जो ज़ोर दिया गया, उसी तरह का दबाव हिंदी को न अपनाने पर भी दिया गया। हिंदी अनपढ़ों की भाषा होकर रह गयी। आपका हिंदी में बोलना आपकी कमज़ोरी समझा जाने लगा। अगर आप अंग्रेज़ी में ग़लत बात कर रहे हैं तो आप सही हैं, और अगर हिंदी में सही बात कर रहे हैं तो आप ग़लत हैं। अंग्रेज़ी इसलिए भी इस दर्जे का आनंद ले रही है क्योंकि पिछले कुछ दशकों में पश्चिमी सभ्यताओं के प्रभाव में आकर हमने अपने घर की मुर्गी को दाल बराबर समझा है।
पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के प्रभाव स्वरुप समाज में एक सहूलियत का चलन चल गया है। हर कोई बस ‘मज़े’करना चाहता है। पाँच दिन, नौ घण्टे नौकरी करना आपको यह आज़ादी देता है कि आप बाक़ी दो दिन चौबीस घण्टे मज़े कर सकते हैं और कोई आपसे ये हक़ नहीं छीन सकता। आपका स्ट्रगल (संघर्ष) विश्व का सबसे बड़ा संघर्ष है और आपकी मुसीबतें दुनिया में सबसे मुश्किल हैं। प्राश्चित के नाम पर हम भिकारियों को खाना खिला देंगे, कुछ एक पैसे दे देंगे और अपनी कमाई के एक हिस्से से ऊपर वाले की दुआएँ ख़रीद लाएँगे। लेकिन जो बैरा अभी मेज़ पर आपकी ड्रिंक रख कर गया है, उसका शुक्रिया अदा करना, आपकी शान के ख़िलाफ़ है, क्योंकि वह उसका काम है और आप वहाँ बैठने के पैसे दे रहे हैं। हर चीज़ को पैसे से आँका जा सकता है, लेकिन मैं सोचता हूँ कि भाषा को पैसों से कैसे आँका जा सकता है। भाषा और सभ्यता को, सज्जनता को, नम्रता को।
ख़ैर, चूँकि भाषा का मूल्याँकन नहीं किया जा सकता है, इसलिए उसकी कोई कीमत ही नहीं है। वह बेसहारा,लाचार, अनपढ़ औरत की तरह गली-कूचों में हंड रही है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में भाषा तुच्छ हो गयी है। उस पर किसी का ध्यान नहीं है।
“We
have no time for all this nonsense called culture, values and least of all the
petty thing called language and its correctness…please don’t talk about all
this and waste our time”
यह मैसेज हमारे एक विद्वान् दोस्त को किसी पढ़े-लिखे शख़्स ने भेजा है। हमें हैरानी हुई यह जानकर कि लोग वाक़ई इतनी भ्रष्ट संकल्पना कर चुके हैं। हमारे परिवार के एक सदस्य ने अपने बेटे को लेकर कुछ ऐसा कहा था “मैं इसे हिंदी क्यों पढ़ाऊँ। बस जब तक स्कूल में ज़रूरी है, पढ़ लेगा। उसके बाद क्या ही ज़रुरत है।”
सरकार कह रही है कि हिंदी पूरे देश की भाषा होनी चाहिए लेकिन पूरा देश उसे अपनाने के लिए तैयार है भी या नहीं, ये तो किसी ने पूछा ही नहीं। हिंदी भाषा भारत के राजनीतिक षड्यंत्र का एक बेहिस और बेजान पहलू है। इसके सिवा कुछ भी नहीं। जो लोग इसके समर्थन में नारेबाज़ी करते हैं, हुड़दंग करते हैं या फिर दंगे तक करते हैं, कोई उनसे हिंदी या भाषा को लेकर कोई सवाल कर ले, तो वह फिर से एक नारा दोहरा देंगे, जो शायद सांसद से चल कर सड़क तक आया होगा।
इससे पहले कि हम उर्दू की बात करें, आप हिंदी और उर्दू का फ़र्क जान लें। ये काम आप ख़ुद ही कर सकते हैं। सबसे आसान तरीक़ा है मंटो की वह कहानी पढ़ना जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है। यदि आप वह कहानी समझ जाते हैं तो आगे आपको ही आसानी होगी और आप हिंदी और उर्दू का फ़र्क बेहतर समझ पाएँगे।
जहाँ तक उर्दू की बात है, देश में उर्दू का बोल-बाला तो है। रेख्ता के भरपूर प्रयासों ने उर्दू के ज़बानदानों की एक सूडो-आर्मी (pseudo-army) तो तैयार कर दी है लेकिन उर्दू की रस्म-उल-ख़त से कुछ ही लोग वाक़िफ़ हैं। ख़ुद रेख्ता भी शायद इस बात से सहमत होगा कि उर्दू के नाम पर देवनागरी और रोमन का इस्तेमाल करके ही इस सूडो-आर्मी को खड़ा किया गया है। न ओपन-माइक की तारीख़ें ख़त्म होती हैं और न ही शायरों की क़तारें। कुछ वक़्त से अन्थोलॉजी
के नाम पर ठगी भी हो रही है। उर्दू के क़द्रदानों ने भाषा पर बहुत मेहरबानी दिखाई है। एक तबक़े को लेकर ये भी कहा जा सकता है कि धूमिल की कविता जैसे संसद से सड़क तक आई, अब वापस उठकर सांसद की ओर जा रही है और वहाँ के दानिशमंदों की पहरेदारी कर रही है। लोग उर्दू से डरने लगे हैं, घबराने लगे हैं। शायद उर्दू इकलौती ऐसी ज़बान है पर जिसपर सबसे ज़्यादा सियासी जुमले उछले और सियासी मुद्दों का निशाना बनाया गया है।
भाषा का एक और पहलू है जिसपर मैं थोड़ी बात और करना चाहूँगा और वह है उसपर गिरोहबंदी (ghettoism) का प्रभाव। जैसे एक मज़हब के लोग एक बस्ती के लोग होकर रह गए हैं उसी तरह एक भाषा भी लोगों की भाषा के सिवा एक बस्ती की भाषा होकर रह गयी है। इसका प्रभाव हिंदी और उर्दू दोनों पर देखने को मिल रहा है। इस्लाम के मानने वालों पर इस गिरोहबंदी (ghettoism) का प्रभाव साफ़ दिखता है। सियासी मसअलों के चलते उर्दू को इस्लाम के साथ जोड़ कर उसे भी दरकिनार कर दिया गया है और यही हाल अब हिंदी का भी हो गया है।
अफ़सोस कि बची-कुची कसर इंटरनेट और सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है। हिंदी के विद्वानों के बारे में कहा जाए तो वे ख़ुद एक ऐसी शिक्षा प्रणाली के शिकार थे जिसपर उनका कोई ख़ासा भरोसा नहीं रहा, और जो कुछ थोड़ा बहुत था, वह इंटरनेट के आने के बाद उठ गया। इसका सीधा सा कारण है कि हम व्हाट्सअप और फ़ेसबुक पर आने वाली जानकारी को परम सत्य मान बैठे हैं और यह इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि इंटरनेट हमारे लिए सारी हदों को लाँघकर दुनिया भर की जानकारी एक मिनट में हमारे सामने ला पटकता है। अब खोजबीन में वक़्त कौन गँवाए इसलिए जो सामने है उसी को सच मान लिया जाए, तो बेहतर।
संचार, संपर्क और सूचना के मेल से भाषा का निर्माण हुआ और यही सामाजिक और मानवीय केंद्रों
की आधारशिला बनी। भाषा को तुच्छ मान लेना और उसे समाज का हिस्सा
न मानना, मानव सभ्यता की सबसे
बड़ी भूल होगी। यह भाषा के होने से ही मुमकिन हुआ है कि मानव जाती इतनी तरक़्क़ी कर पाई है। भाषा के
रूप बदले, उसके ढंग औररंग बदले,
और उसे बोलने वाले बदले,
लेकिन भाषा रही, और रहेगी। भाषा का होना समाज
के होने को स्थायित्व देता है। इसे परम सत्य मान लेना इंसानों के हक़ में होगा। मैं उम्मीद करूँगा ये
बात आप तक व्हाट्सप्प के ज़रिए न पहुँचे।
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