नीलोफ़र अहमद (अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यू एज इस्लाम डॉट काम)
जीवन और मृत्यु के रहस्य को कुरानी शिक्षा की रौशनी में स्पष्ट किया जा सकता है और इस समझ के साथ कि आत्मा शरीर को जीवन देती है और जैसे ही आत्मा शरीर से निकलती है शरीर मृत हो जाता है। जैविक रूप से जीवित होने के बावजूद माँ के गर्भ में भ्रूण तभी जीवित चीज़ में तब्दील होता है जब उसमें जान फूंकी जाती है (32:9)।
नफ़्स, रूह या आत्मा को परिष्कृत शरीर कहा जाता है और उसे भी शरीर की तरह भोजन और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। क्योंकि आत्मा आस्मानी पदार्थ से बनी है और शारीरिक आवश्यकताओं से छुटकारा पाने के लिए अलग दुनिया में रहना चाहती है। सूफी अक्सर शरीर को एक पिंजड़े के रूप में देखते हैं जिसमें आत्मा कैद है। ये लोग उस समय के लिए बेकरार होते हैं जब आत्मा आज़ाद होगी, शरीर फानी (नश्वर) है जबकि आत्मा लाफानी (अमर) है।
चूंकि विकास के तीन व्यापक चरण हैं जिनमें शरीर और आत्मा का विकास साथ साथ होता है। एक इंसान का विकासशील आत्मा के रूप में जिक्र किया गया है। क़ुरआन में इन कदमों को नफ़्स अम्मारह बिस्सू (12:53) या न्यूनतम या मूल आत्मा कहा है जो स्वार्थी है। उसे छोटे बच्चों के अमल में देखा जा सकता है जिनकी रुचि अपने निजी हित में होती है, जब तक कि उन्हें इससे अलग होने की तरबियत न दी जाए। अगर प्रशिक्षण न दी जाए तो ये बुराई बन सकती है। दूसरे नफ़्स लव्वामह (75:2) यानी कठोर मलामत करने वाला या ज़मीर कहते हैं, और तीसरा नफ्स मुत्मइन्ना (89:27-30), यह पाक साफ और शांति और संतोष की आला मंजिल है।
खुद पर केंद्रित पहली स्थिति नफ़्स अम्मारह बिस्सू शारीरिक अस्तित्व के लिए आवश्यक है, क्रिया प्रकृति प्रदान कर यह बाकी रहने में मदद करती है, खुद की रक्षा, क्षमताओं को बेहतर करने में मदद करता है। यहाँ आत्मा की बुनियादी इच्छा शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करना है, शारीरिक धन को जमा करना और अपने विकास की इच्छा है। ये सभी रूहानी तौर पर उसे नीचे लाते रहते हैं।
चूंकि जटिल मानव मस्तिष्क को स्वतंत्र इच्छा का उपहार दिया गया है। मनुष्य शरीर की बुनियादी जरूरतों को और बेहतर व जटिल माध्यमिक आवश्यकताओं में तब्दील करता है उदाहरण के लिए दुनियावी चीज़ों जैसे बेहतरीन खाना और शानदार लिबास आदि।
इस प्रक्रिया में प्रतिस्पर्धा करने की उत्सुकता, सबसे बेहतर होने की इच्छा, आराम आसाइश और मनोरंजन की ख्वाहिश और ख्याति प्राप्त करने की इच्छा पैदा होती है। इन सब को प्राप्त करने के लिए मनुष्य ईर्ष्या करने वाला (हसद), आक्रामक, धोखे बल्लेबाज़ और ज़ालिम हो सकता है।
लेकिन लालच और अधिक लालच को पैदा करती है जिसको जितना मिलता है वह और अधिक की इच्छा करता है जब तक वह इस दुनिया की न खत्म होने वाली इच्छाओं के बवण्डर में फंस नहीं जाता है।
नफ़्स अम्मारह बिस्सू में शक्तिशाली ऊर्जा है और इसकी तुलना गैर प्रशिक्षित जंगली घोड़े से की गई है जिसके गुणों का उपयोग नहीं किया जा सकता है। अगर घुड़सवार ने नहीं सीखा है कि कैसे घोड़े को नियंत्रित करें, तो जंगली घोड़ा भाग निकलेगा। जब प्रारंभिक समय में उचित प्रशिक्षण दिया जाए और बाद में जब इंसान ईमानदारी और दया जैसे मूल्यों को प्राप्त करने की कोशिश करे और संतुलित और बीच के रास्ते को अख्तियार करे तो नफ़्स दूसरे चरण में पहुंच जाती है जिसे नफ्स लव्वामह (75:2) या मलामत करने वाली आत्मा कहते हैं।
नफ़्स लव्वामह अब ख़ुदा को जवाबदेही की चेतना के साथ अपनी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करना शुरू कर देता है और सभी गलतियों के लिए अपने को मलामत करता है। ऐसा लगने लगता है कि किसी बाहरी नियंत्रण की जरूरत नहीं है। चूंकि ज़मीर और बुलंदी के लिए बेकरार करने वाली स्थिति को इंसान पा चुका है इसलिए उसकी नज़र में उद्देश्य आख़िरत होती है न कि यह दुनिया होती है। अंतिम नतीजा यह होता है कि स्वार्थ कम होता जाता है और समर्पण में वृद्धि होती है और लेने और जमा करने की तुलना में देना और लोगों में बांटना अधिक संतुष्ट करने वाला महसूस होने लगता है।
अब सभी प्राकृतिक आरज़ुओं को संतुष्ट किया जा सकता है, लेकिन संतुलित तरीके से जैसा की ख़ुदा ने तय किया है। सबसे अच्छा होने की इच्छा नैतिक और आध्यात्मिक रूप से और भी बेहतर करने की कोशिश में तब्दील हो जाती है। ऊंचे पद को जनता की भलाई के लिए एक अवसर के रूप में लिया जाता है। धीरे धीरे इच्छाओं पर नियंत्रण प्राप्त होने लगता है और नफ़्स अम्मारह के हिंसक और हानिकारक जंगली जानवर के बजाय मनुष्य एक सहायक साथी बन जाता है। ऐसा शख्स नफ़्स की एक नई मंज़िल पर पहुंचने के लिए तैयार होता है जिसे सर्वोच्च आध्यात्मिक मंज़िल, नफ़्स मुत्मइन्ना कहते हैं।
नफ़्स मुत्मइन्ना संतोष या खुशी की इस मंज़िल के लिए पूरी ज़िंदगी लगातार तरबियत, परहेज़गारी, रोज़ा, और ज़िक्र के ज़रिए पहुंचा जा सकता है (13:38)। ऐसा शख्स बर्ताव और इबादत के निर्धारित कायदों पर अमल करके और ज्यादा बुलंदी पर पहुंच जाता है और रज़ाकाराना तौर पर इबादत, बेदारी और क़ुर्बानी के ज़रिए इस मंजिल तक पहुँच जाता है, जहां सभी दुनियावी नुक्सान और साथ ही साथ दुनिया का आकर्षण खत्म होने लगता है।
मुत्मइन नफ़्स खुदा की मख्लूक का रहम के साथ रहनुमाई करती है, दूसरों के साथ रहम का बर्ताव करती है और अपनी हिदायत और निजात के लिए दुआ करती है। उनकी नज़र में एक ही उद्देश्य होता है वह है अल्लाह की निकटता प्राप्त करना, उसकी इताअत करना, खुदा से प्यार करना और उसकी शफ़क़त हासिल करना।
ख़ुदा और और उसकी सिफात (गुणों) से मुत्मइन नफ़्स की मोहब्बत ख़ुदा पर पूरा भरोसा, नम्रता और उसकी हम्दो सना व इबादत और उसे राज़ी करने और और उसकी राह में सब कुछ कुर्बान करने के जज़्बे से कायम होती है और उसी से फ़ज़ल औ करम की दुआ करता है। रूह की सबसे बड़ी ख्वाहिश खुदा की क़ुर्बत (निकटता) हासिल करना है और उसके इल्म पर गौरो फिक्र करना है और अपनी तमाम तर कोताहियों को छोड़ कर खुदा के कमालात पर भी गौरो फिक्र करना है।
एक अच्छी रूह के लिए सबसे बड़ा अजर (फल) यही हो सकता है जिसका वह इंतेजार करती है और जिसके लिए वह अमल करती है वह है अपने खालिक (निर्माता) के साथ पूरी तन्मयता और निकटता को प्राप्त करता है, जब नफ्स मुत्मइन्ना को स्वयं खुदा क़यामत के दिन अपनी मौजूदगी में जन्नत में इन शब्दों के साथ (89:27-30) स्वागत करेगें:
‘ऐ इत्मेनान पाने वाली जान अपने परवरदिगार की तरफ़ चल तू उससे ख़ुश वह तुझ से राज़ी तो मेरे (ख़ास) बन्दों में शामिल हो जा और मेरे बेहिश्त में दाख़िल हो जा’।
लेखिका इस्लामी विद्वान हैं और और वर्तमान समय की समस्याओं पर लिखती रहती हैं।
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