नियाज़ ए शाह
31 अक्टूबर, 2013
क़िसास के कानून का स्रोत इस्लामी कानून का मुख्य स्रोत 'क़ुरान' है। क़ुरान में शब्द क़िसास का इस्तेमाल 'समानता' के अर्थ में किया गया है।
हम सरसरी तौर पर क़िसास के सिद्धांत, इसके उद्देश्यों, इसके अपवाद और अपवाद के उद्देश्यों की समीक्षा करते हैं। मैं क़िसास के सिद्धांत को पाकिस्तान पीनल कोड से जोड़ना चाहूँगा और ये कहना चाहूँगा कि पाकिस्तान पीनल कोड क़िसास की सच्ची भावना को प्रतिबिम्बित करता है लेकिन मैं ये भी बताता चलूँ कि इस कानून की सही व्याख्या करने और कठोर अदालती निगरानी के तहत ही इसे लागू करने की ज़रूरत है।
क़ुरान की सबसे बड़ी मिसाल ये है कि जीवन पवित्र है और इसे बेवजह नहीं लिया जा सकता है। इसके बावजूद इंसाफ करने के लिए जीवन लिया भी जा सकता है।'' ........... और उस जान को क़त्ल न करो जिसे (क़त्ल करना) अल्लाह ने हराम किया है सिवाय हक़े (शरई) के ....... '' (6: 151)
इस्लाम की न्यायिक प्रणाली में हत्या या नुकसान पहुंचाने के मामले में 'बराबरी' एक बुनियादी कानून है। इरादतन क़त्ल के मामले में क़ुरान क़िसास की इजाज़त देता है, ''ऐ ईमान वालों! तुम पर उनके खून का बदला ( क़िसास) फ़र्ज़ किया गया है जो नाहक (बेवजह) क़त्ल किए जाएं ......... फिर अगर इसको (यानी क़ातिल को) उसके भाई (यानी क़त्ल हुए व्यक्ति के वारिस) की तरफ से कुछ (यानी क़िसास) माफ कर दिया जाए तो चाहिए कि भले दस्तूर के मुताबिक़ पैरवी की जाए और (खून बहा को) अच्छे तरीक़े से (मृतक के वारिस) तक पहुंचा दिया जाए, ये तुम्हारे रब की तरफ से रिआयत और मेहरबानी है, बस जो कोई इसके बाद ज़्यादती करे तो उसके लिए दर्दनाक अज़ाब है।''
क़िसास के सिद्धांत का सार मानव समानता और समाज में उनके जीवन की सुरक्षा है (जैसा कि क़ुरान की आयत 5: 45 में इसकी पुष्टि की गयी है)। इस आयत के नाज़िल होने का संदर्भ क़िसास के मकसद को अच्छी तरह स्पष्ट करता है जो इस प्रकार है: इस कानून का उद्देश्य इस्लाम से पूर्व की उस परम्परा को खत्म करना था जिसमें कुछ प्रभावशाली वर्गों के लोगों का खून समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों के खून से ज़्यादा कीमती माना जाता था।
आज़ाद और पुरुषों की तुलना में महिलाओं और दासों का खून भी कम महत्वपूर्ण माना जाता था। क़ुरान ने सभी मानवों के जीवन को समान मूल्यवान और महत्वपूर्ण बनाते हुए, इस परम्परा को प्रतिबंधित करार देता है: जान के बदले जान, लेकिन इसमें एक अपवाद दिया गया है यानी दया के उद्देश्य के लिए माफी। इस क़ानून का उल्लंघन करने वालों को क़ुरान दर्दनाक अज़ाब की चेतावनी देता है।
क़ुरान इरादतन क़त्ल के मुजरिम पाये जाने वालों के लिए दो रास्ते पेश करता है। पहला क़िसास (यानी मुजरिम को भी उसी तरह मार दिया जाए जिस तरह उसने पीड़ित को क़त्ल किया था) दूसरा ये है कि मुजरिम को पीड़ित के परिवारजन माफ कर दें। दूसरा रास्ता ये है कि पीड़ित के परिवारजन हत्यारे से उचित 'दीयत' (खून बहा- मुआवज़ा) की मांग करेंगे और मुजरिम के लिए ये ज़रूरी होगा कि वो अच्छे तरीके से 'दीयत' (खून बहा) का भुगतान करे। दीयत उचित हो और उसे अच्छी तरह से अदा किया जाए इसको सुनिश्चित करने के लिए दीयत की मांग और उसकी अदाएगी के मामले को जजों ने न्यायिक निगरानी में होने पर सहमति जताई है, क्योंकि इसे निजी मामले के तौर पर छोड़ना जोखिम भरा हो सकता है।
पीड़ित के परिवारजन दीयत को माफ भी कर सकते हैं, जिसे कभी कभी तीसरा रास्ता भी माना जाता है, यानि अल्लाह के नाम पर मुजरिम को माफ करना। क़िसास (जान के बदले जान) के कानून में दीयत एक अपवाद और सज़ा में कटौती है। इस कटौती का कुरानी (2: 178) आधार अल्लाह की तरफ से ''रहम और निजात'' है। मानव समानता और जीवन की सुरक्षा क़िसास के महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं। माफी एक अपवाद है जिसका मकसद दया के उद्देश्यों को हासिल करना है। इसलिए दीयत पात्र और सज़ावार मामलों में दया के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अदा किया जाना चाहिए। दीयत का इस्तेमाल क़िसास की उपादेयता से इंकार करते हुए समाज के गरीब और कमजोर लोगों के खून को खरीदने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
पीपीसी के सम्बंधित प्रावधानों को जो कि ब्रिटेन से लिए गए थे, क़ुरान और सुन्नत के खिलाफ करार दिया गया था (पीएलडी 1983, पेशावर) उच्चतम न्यायालय ने (पीएलडी 1989, धारा 633) इसका समर्थन किया और क़िसास को पाकिस्तान पीनल कोड में शामिल करने पर ज़ोर दिया।
मौजूदा कानून (धारा 302, 309) क़िसास के बारे में क़ुरान का दर्पण है। वो क़िसास की इजाज़त देता है और दीयत के बिना भी क़िसास से छुटकारे की इजाज़त देता है। धारा 210 में सुलह पर अदालती निगरानी प्रदान की गई है।
पीपीसी की (धारा 311) में सबसे गंभीर स्थिति (यानी दंगे की स्थिति) में अदालत को ताज़ीरी सज़ा का अधिकार देकर और अधिक संरक्षण प्रदान किया गया है। हालांकि मृतक के परिवारजनों ने क़ातिल को माफ कर दिया हो।
अदालती निगरानी की दो मुख्य भूमिका है: पहला इस बात को सुनिश्चित करना कि मृतक के परिवारजन उचित दीयत की मांग करें और मुजरिम उसे अच्छे तरीके से अदा करे, दूसरा ये कि वो इस बात का फैसला करे कि क्या ऐसी कोई गंभीर स्थिति पाई जा रही है जो संवैधानिक सज़ा की मांग करती है।
खुलासा ये है कि इस कानून का अस्तित्व है लेकिन क़ुरान की सही उपादेयता के अनुसार इसकी उचित व्याख्या की ज़रूरत है। और क़ुरान में वर्णित इसके मकसद को हासिल करने के लिए अदालत की निगरानी में इसको सख्ती से लागू करने की ज़रूरत है।
गहरी अदालती निगरानी के बिना समाज के पूंजीपति और प्रभावशाली लोग कानून का इस्तेमाल अपने हितों के लिए करेंगे जो कि न सिर्फ क़ुरान की शिक्षाओं के खिलाफ है बल्कि इससे इस्लाम से पूर्व के अरबी समाज की परम्पराओं का जीर्णोद्धार भी होता है जहां शाहज़ेब खान जैसे पीड़ित का खून कम कीमती है।
नियाज़ ए शाह हिल युनिवर्सिटी, ब्रिटेन में लॉ के सीनियर लेकचरार हैं।
स्रोत: http://www.dawn.com/news/1053308/the-principle-of-qisas
URL for English article: https://newageislam.com/islamic-sharia-laws/the-principle-‘quisas’/d/14245
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/the-principle-‘quisas’-/d/14291
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