नास्तिक दुर्रानी, न्यु एज इस्लाम
11 मई 2013
एक छोटा सा सवाल पेश है: संसाधन व परिवहन में से किसी एक का हादसा मानते हैं, जैसे ट्रेन, पानी के जहाज़, बस, कार या हवाई जहाज़, एक यात्री संयोग से लेट हो जाता है और इसके नतीजे में संभावित हादसे से बच जाता है। क्या ख़ुदा ने उसे जानबूझकर बचाया? स्थिति का ज़रा तार्किक परीक्षण करते हैं। आम तौर पर ज़्यादातर यात्री पहले से बुकिंग कर लेते हैं, यात्रियों का लेट होना या सिरे से ना आना अक्सर होता रहता है और अधिक संभावना यही होती है कि सवारी अपनी मंज़िल पर सही सलामत पहुंच जाती है तो क्या ये सब ख़ुदा की कृपा से होता है? सवारी अगर किसी हादसे का शिकार हो जाए और कोई यात्री मर जाए तो क्या ये भी ख़ुदा के हस्तक्षेप से होता है? अगर किसी हादसे का शिकार होने वाली किसी सवारी का मुसाफिर समय पर न पहुंच सके और बच जाए तो क्या ख़ुदा उसे बचाना चाह रहा होता है? ये हादसे दुनिया के सभी देशों में होते रहते हैं चाहे वो मोमिन हों या काफिर, ईसाई हों या मुसलमान, बौद्ध हों या हिंदू। यहां तक कि नास्तिक भी इससे अलग नहीं, तो क्या हम कह सकते हैं कि ख़ुदा ने नास्तिक की जान बचाने के लिए, उसमें देरी के कारण पैदा किए? इसका मतलब ये है कि ख़ुदा ने मोमिन पर नास्तिक को प्राथमिकता दी? ये करम क्यों? क्या ख़ुदा सबका ख़ुदा नहीं? वो किसी एक को किसी दूसरे पर प्राथमिकता क्यों देता है?
खेल के मैदानों की तरफ चलते हैं। मुसलमान टीम के जीतने पर मुसलमान शुकराने की नफ़िल नमाज़ अदा करते नज़र आते हैं। ईसाई खिलाड़ी मैच से पहले जीसस से कमयाबी की दुआएं मांगते हैं और कामयाबी पर उसका शुक्र अदा करते हैं! शायद किसी के लिए इसमें कोई ऐसी बड़ी बात न हो लेकिन मैं मामले को ऐसी ही गुज़रने नहीं दे सकता! क्या ख़ुदा एक टीम के मुक़ाबले में किसी दूसरी टीम का साथ देता है? क्या ख़ुदा पाकिस्तानी है या हिंदुस्तानी है? या वो सिर्फ अच्छे खेल के साथ है! क्या हिंदुस्तानी पाकिस्तानियों की तरह ख़ुदा की मख्लूक नहीं और क्या दोनों ही इस पर यक़ीन नहीं रखते? तो ख़ुदा हिंदुस्तान का साथ दे कर पाकिस्तान को शिकस्त से दो चार क्यों करेगा? क्या ख़ुदा क्रिकेट खेलता है? क्या वो सारी कायनात की व्यवस्था को छोड़कर हिंदुस्तान और पाकिस्तान का मैच देखने स्टेडियम की तरफ रुख करता है और किसी एक टीम के समर्थकों की दुआओं का इंतेजार करता है और उसके जीतने का कारण बनता है? क्या मोमिन टीम कुफ़्फ़ार की टीम से जीत जाती है? और अगर दोनों टीमें मुसलमान हों तो ख़ुदा किस टीम का साथ देगा? क्या जीत की निर्भरता खिलाड़ियों के अच्छे प्रदर्शन पर है या ख़ुदा के हस्तक्षेप पर! और अगर हम खुद इस बात को इजाज़त दें तो खिलाड़ियों की तैयारी करा कर अपना प्रदर्शन बढ़ाने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है क्योंकि ख़ुदा सारी मेहनत को नज़रअंदाज करते हुए जिसे चाहेगा जीत दिला देगा!
शिक्षा के क्षेत्र की तरफ चलिए, आप देखेंगे कि मोमिन छात्र का ये दृढ़ विश्वास होता है कि आप जितनी चाहे कोशिश कर लें आप के साथ वही होगा जो ख़ुदा चाहेगा! इस तरह की सोच से छात्र को लगता है कि मेहनत करने का कोई फ़ायदा नहीं है क्योंकि इसका अंजाम ख़ुदा के हाथ में है न कि मेहनत में! यही कारण है कि अधिकांश छात्र आपको पढ़ाई में गंभीर मेहनत करने के बजाय धार्मिक पूजा पाठ करते नज़र आएंगे। जो फेल होता है वो आत्मावलोकन करने के बजाय उसे ख़ुदा की मर्ज़ी क़रार देता है! और जो पास होता है वो भी इस कामयाबी का श्रेय ख़ुदा के सिर पर रखता नज़र आता है और अपनी मेहनत का इनकार कर देता है बल्कि उसका ये विश्वास होता है कि सिर्फ ये सोचना भी कि कामयाबी इंसान की मेहनत का नतीजा होती है, एक बड़ा गुनाह है।
मोमिनीन में से अगर आपको कोई धनी व्यक्ति मिल जाए तो आप उसके अमीर होने के कारण को उसके ईमान और परहेज़गारी को क़रार देंगे? लेकिन दौलतमंद तो काफिर और नास्तिक भी होते हैं तो क्या इसकी वजह उनका कोई गैर शरई कारोबार होता है? वास्तव में इन मामलों में ख़ुदा की कोई भूमिका नहीं, ये सब काम आदमी की अपनी मेहनत का सिला होता है। नास्तिक की काहिली (आलस्य) उसे मोहताज बना देगी और मोमिन की भी।
अगर आपको कोई काफ़िर किसी बीमारी का शिकार नज़र आए तो आपकी नज़र में ये क्या ख़ुदा की तरफ से कोई अज़ाब (सज़ा) है? क्या मोमिनीन बीमार नहीं होते? लेकिन बीमार तो धार्मिक नेता भी हो जाते हैं, फिर ऐसा क्यों है कि जब कोई काफ़िर बीमार हो तो कहा जाता है कि ये ख़ुदा की तरफ़ से सज़ा या अज़ाब है और अगर कोई मोमिन बीमार हो तो कहा जाता है कि ये ख़ुदा की तरफ से इम्तेहान है? ये दोहरे पैमाने क्यों?
किसी अपाहिज व्यक्ति को देखने के बाद मोमिन का रवैय्या आश्चर्यजनक होता है, उसके मन में सबसे पहला ख़याल आता है कि ख़ुदा का शुक्र है कि उसने मुझे उस व्यक्ति की तरह अज़ाब में मुब्तेला नहीं किया, और वो अपाहिज की ज़रा भी मदद किए बग़ैर अपने रास्ते पर चल देता है। वो ये तक सोचने की तौफ़ीक़ नहीं करता कि ख़ुदा क्यों किसी को अंधा या अपाहिज बना कर पैदा करता है? क्या आप उससे इसलिए बेहतर है क्योंकि वो अज़ाब में मुब्तेला है, भले ही उस अपाहिज की नैतिकता अपसे कई गुना बेहतर व ऊँची हों! क्या किसी ने साहस कर के ये सवाल उठाया कि इस स्थिति में ख़ुदाई इंसाफ कहाँ है? या सब कुछ सिर्फ इत्तेफ़ाक ही है!
तक़दीर (भाग्य) पर विश्वास सभी मानवीय कौशल को ज़ंग लगा देता है, कि जो माथे पर लिखा है उसे आँख ज़रूर देखेगी और इंसान की ज़िंदगी की सारी जानकारी पहले से ही एक किताब में लिख दी गई हैं... ये विश्वास छात्रों, मज़दूरों और अधिकारियों की मानसिकता को तबाह कर देता है। वो क़िस्मत पर विश्वास रखते हुए आगे बढ़ने के लिए मेहनत नहीं करते, ऐसे विश्वास के कारण असाधारण और प्रतिभाशाली लोग पैदा ही नहीं हो सकते!
इस अस्तित्व की हर चीज़ इत्तेफ़ाक़ पर क़ायम है, तो हमें अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र की पहले से तैयारी करते हुए भविष्य के परिदृश्य की तैयारी करनी चाहिए क्योंकि इस तरह सरप्राइज़ का कारक नहीं बचता क्योंकि अच्छे या बुरे नतीजे की पहले से उम्मीद और उसके लिए तैयारी होती है। इसे क्राइसेस मैनेजमेंट कहते हैं जो कि भविष्य के ज्ञान की एक शाखा है, लेकिन अगर आप ने तर्क बुद्धि से तैय्यारी करने के बजाय मामले को ख़ुदा पर छोड़ दिया तो यक़ीन कर लें कि आपको नाकामी से ख़ुदा भी नहीं बचा सकेगा।
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