नास्तिक दुर्रानी, न्यु एज इस्लाम
4 जुलाई, 2013
जब इस्लाम चौदह सौ साल पहले अरबों के यहां आया तो उन्हें इसकी सख्त ज़रूरत थी। अगर उन्हें इस नए धर्म से ये खतरा नहीं होता कि इसकी वजह से उनकी शांति तबाह हो सकती है, उनका व्यापार और धार्मिक पर्यटन समाप्त हो सकता है, जो मूर्तियों के ऊपर निर्भर थी और गुलाम बिदक जाएंगे तो वो इसमें पहले ही क्षण बड़ी संख्या में शामिल हो जाते और पैगंबर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को तेरह साल मक्का में तब्लीग़ (धर्म प्रचार) जैसा कठिन काम न करना पड़ता जिसके नतीजे में सिर्फ 150 लोग ही मुसलमान हो पाए। खासकर जबकि इस्लाम से कुरैश कबीले को विशेषकर सबसे ज़्यादा फायदा पहुँचता जो सचमुच बाद में पहुंचा भी। कबीला अमीर हुआ, क़ुरैशियों के घर, सड़कें और व्यापार क़ैदियों और दौलत से भर गए और पूर्व से पश्चिम तक इसने एक बड़ी सल्तनत पर छः सौ साल (632 - 1258) तक लगातार शासन किया।
लेकिन दौलत के अलावा कुरैश और उसके पीछे अरबों ने इस्लाम से सांस्कृतिक फायदा भी उठाया क्योंकि लगातार छः सदियों तक इस्लामी सल्तनत पर सिर्फ अरब मुसलमान कुरैशी ही शासक रहे। याद रहे कि ये सिर्फ अरबी ही नहीं बल्कि एक “इस्लामी सल्तनत“ भी थी जिसका मतलब है कि कोई भी गरीब व्यक्ति इसका शासक बन सकता था बशर्ते वो शासन करने के काबिल होता। लेकिन लगता है कि क़ुरैशियों के अलावा कोई भी व्यक्ति शासन के लिए योग्य नहीं था। यही बात दो साल पहले तक अरब दुनिया पर लागू होती थी और शायद अब भी कुछ हद तक लागू होती है। जहां सक्षम शासक नहीं मिलते हैं और जो हैं वो बहुत कम हैं इसलिए एक ही व्यक्ति दसियों वर्षों तक सत्ता की गद्दी पर विराजमान रहता है।
इस्लाम में ऐसी कौमें (राष्ट्र) शामिल हुईं जो सांस्कृतिक, साहित्यिक, कलात्मक और वैज्ञानिक रूप से विकसित थीं। इसके नतीजे में “इस्लामी सभ्यता “अस्तित्व में आई, लेकिन इस्लाम से पहले स्थापित उन सभ्यताओं के लिए इस्लाम एक रूहानी चादर थी जो उन्होंने ओढ़ ली थी। इन संस्कृतियों ने विभिन्न ऐतिहासिक स्थितियों के मद्देनज़र “इस्लामी सभ्यता“ के साये तले रहना स्वीकार कर लिया था और बाद में जो भी वैज्ञानिक, विचारक, कवि, दार्शनिक, भाषा के ज्ञानी आदि पैदा हुए वो ज्यादातर उन्हीं क़ौमों से सम्बंध रखते थे।
अरबों ने इस्लाम को स्वीकार कर के इसे खुशआमदीद (स्वागत) कहा और इससे चिपके रहे, क्योंकि ये ज़िंदगी में एक “ख़ज़ाना“ होने के साथ “सांस्कृतिक कुंजी“ और “सत्ता का स्रोत“ था। उसी ने उन्हें सत्ता और दौलत दी थी। इसलिए इससे चिपके रहना ज़रूरी था वरना वो भूखों मर जाते और ज़मीन पर आवारा घूमते फिरते क्योंकि दौलत के लिए उनके पास कोई उद्योग नहीं था और पेट भरने के लिए कोई कृषि नहीं थी। ज़मीन के पेट में भी कोई प्राकृतिक दौलत नहीं थी कि जो उनका हाल बदल सकती। इसलिए रोज़ी रोटी का एक ज़रिया रह गया था और वो था जज़िया और युद्ध में लूटा गया माल।
आधुनिक दौर में अन्य देशों पर सैन्य चढ़ाई करने के लिए इस्लाम का हथियार कारगर नहीं रहा क्योंकि इस्लाम से अधिक शक्तिशाली और आधुनिक ज़मीनी विचार मौजूद हैं, जबकि विश्व शक्तियां भी मौजूद हैं जो अरबों से धार्मिक रूस से नहीं बल्कि सैन्य, वैज्ञानिक, औद्योगिक, संचार और विचारों के रूप में अधिक शक्तिशाली हैं।
इसके अलावा मुस्लिम अरब अन्य देशों पर चढ़ाई करने के लिए सैन्य बल तैयार करने के काबिल नहीं रहे, ताकि उनकी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा कर सकें और नए धर्म के प्रचार के लिए संरक्षक नियुक्त कर सकें। इसके विपरीत वो अपनी छीनी हुई ज़मीनें वापस हासिल करने में बुरी तरह नाकाम और असमर्थ हैं।
आधुनिक समय में अरबों के न सिर्फ नारे पतन का शिकार हो गए बल्कि वो ज्ञान, आर्थिक और सामाजिक रूप से भी पतन का शिकार हैं और उनकी कीमत दो कौड़ी की भी नहीं रही। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2002 से 2011 तक की प्रकाशित होने वाली ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट में जब अरबों ने अपना घिनौना चेहरा देखा तो उसे स्वीकार करने से ही इनकार कर दिया और रिपोर्ट तैयार करने वालों को (जो कि अरब ही थे और अत्यंत उच्च शिक्षित और योग्य लोग थे) यहूदियों और अमेरिका का एजेंट करार दिया और रिपोर्ट को अरबों और इस्लाम के खिलाफ एक नई साज़िश करार दिया।
एक लंबे समय तक अरब शासित नहीं शासक थे, अधिकृत नहीं काबिज़ थे, मुल्ज़िम नहीं काज़ी थे, शोषित नहीं अत्याचारी थे .. मगर इस आधुनिक दुनिया में उनकी स्थिति पूरी तरह उलट गयी है। देशों की सूची में उनका नाम सबसे अंत में है। उनसे नीचे अब अफ्रीका के दक्षिणी मरुस्थल ही रह गये हैं।
अब ख्वाब में ही सही अरबों को पिछले समय की महिमा वापस हासिल करने के लिए क्या करना होगा?
उन्हें इस्लाम को अग़वा (अपहरण) करना होगा जो उनकी एकमात्र मिल्कियत है। और उसे अफगानिस्तान के पहाड़ों में दफन करना होगा और एक नया इस्लाम लाना होगा जिसका दुनिया में दूसरों के इस्लाम से कोई सम्बंध न हो, जो इस्लामी जगत के 81 प्रतिशत जबकि अरब सिर्फ 19 फीसद प्रतिनिधित्व करते हैं।
और शायद ये काम अब अरबों के बस का नहीं रहा।
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