नास्तिक दुर्रानी, न्यु एज इस्लाम
5 अगस्त, 2013
जब हम हिंसा की बात करते हैं तो हमें तुरंत इस सवाल का सामना करना पड़ता है कि हिंसा क्या है? हम हिंसा को कुछ भयानक अर्थों के द्वारा समझते हैं जैसे युद्ध, मृत्यु, अपराध, आतंकवाद, हत्या, बलात्कार, जलाना, शारीरिक नुकसान, दमन, वर्चस्व, अत्याचार, गुलामी आदि ...
हिंसा को तीन श्रेणियों या वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
1- हल्की हिंसा: शाब्दिक हिंसा जैसे गालियाँ, आहत करना, प्रतीकात्मक हिंसा जैसे तकफ़ीर (दूसरों को काफिर क़रार देना), आरोप प्रत्यारोप, मज़ाक, सामाजिक हिंसा जैसे गरीबी देना, भूख देना, बेरोजगार करना आदि।
2- सख्त हिंसा: जैसे बलात्कार, अत्याचार, कैदी बनाना, संपत्ति पर क़ब्ज़ा करना आदि।
3- निरपेक्ष हिंसा: इसमें कत्ल के सभी प्रकार आते हैं जैसे मतभेद, धर्म, राष्ट्रीयता की वजह से क़त्ल, इसमें राजनीतिक हत्या भी शामिल है।
लेकिन एक हिंसा वो है जो सामाजिक अन्याय व अत्याचार के खिलाफ़ पीड़ित के द्वारा प्रतिक्रिया के रूप में सामने आती है। देश की रक्षा में की जाने वाली हिंसा, वो हिंसा जो कौमें आज़ादी के लिए अंजाम देती हैं। एक क्रांतिकारी हिंसा भी है जिसे लूट मार का शिकार गरीब वर्ग इस्तेमाल करता है जो मार्क्स के अनुसार जायज़ है ताकि अधिकार वापस हासिल किये जा सकें और सामाजिक और आर्थिक शोषण का खात्मा किया जा सके, लेकिन क्या हिंसा का कोई उद्देश्य भी है? और हिंसा जीवन के अस्तित्व के लिए किया जाता है या ये एक बुरा सुलूक है जिसे इंसान किसी वजह या बिना किसी कारण के अंजाम देता है? यानी क्या हिंसक व्यवहार कोई आंतरिक भावना है जो किसी पर हावी हो कर उसे तोड़ फोड़, विनाश और दूसरों को क़त्ल करने पर उकसाता है? क्या हिंसा को धार्मिक कारणों से औचित्य दिया जा सकता है?
हम हमेशा दूसरों की हिंसा को उसी तरह समझते हैं, अमेरिका में यूरोप के बसने वालों का रेड इंडियन पर हिंसा को हमने उसी तरह समझा, मंगोलों के अपराधों को हमने उसी नज़र से देखा, और इसी नज़र से हमने नपोलियन और सलीबी जंगों को देखा, इसराइल का फिलिस्तीन पर क़ब्ज़ा भी हम इसी अर्थ में लेते हैं, सद्दाम हुसैन का कुवैत पर और अमेरिका का अफगानिस्तान और इराक पर हमले को भी हम इसी तरह समझते हैं, यहाँ तक कि जो भी दूर से अपने हथियारों के साथ आता है हम उसे इसी नज़र से देखते हैं।
मगर हमारी अपनी हिंसा क्या जो हमने इतिहास में दूसरों पर किया? हम सभी पूर्वी लोग इस्लामी जंगों को किस तरह समझते हैं? उनकी “जंगों“ और किसी देश को लूटने, उन्हें अपने जीवन के ढंग बदलने और दूसरा धर्म थोपने की गरज़ से बाहर से आने वाले किसी भी क़ब्ज़े में क्या फर्क़ है?
इतिहास में हिंसा दूसरों की दौलत पर क़ब्ज़ा करने के उद्देश्य से शुरू हुई, सोने की चमक ने अमेरिका में रेड इंडियन पर हिंसा के पहाड़ तोड़े, सलीबी जंगों के पीछे पूर्व के संसाधन थे जिन्हें धार्मिक औचित्य हासिल था। नई कालोनियों पर कब्जा के लिए दो विश्व युद्ध हुए। इसराइल का बीज एक ऐसे क्षेत्र में बोया गया जहां पश्चिम के हित थे, परिणामस्वरूप एक क़ौम अपनी ज़मीन से बेदख़ल कर दी गयी। बीसवी सदी के अंत में तेल की चाहत में इराक़ पर क़ब्ज़े में अहम भूमिका निभाई थी जिसके लिए ऐसे बहाने घड़े गए जिसे वक्त ने ग़लत साबित कर दिया।
हिंसा ऐसे ही नहीं आती, ये इंसान के व्यवहार के स्तर पर उस समय प्रकट होती है जब शोविनिस्ट (CHAUVINISTIC) अर्थ एक नस्ल को दूसरी नस्ल से बेहतर करार देते हैं। फतावा और धार्मिक ग्रंथों का लोगों के विचारों और विश्वास का आधार होना हिंसा पर उकसाने और उसे औचित्य प्रदान करने का एक अहम कारण है।
हिंसा इंसान को इंसान खाने वाला भेड़िया बना देता है। इंसान अपने ही इंसान भाई के हाथों मारा जाता है। सैन्य उपकरणों और हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है और इसके परिणामस्वरूप हजारों इंसान मारे जाते हैं। देश व शहर तबाह व बर्बाद कर दिये जाते हैं। हिरोशिमा और नागासाकी में जो कुछ हुआ और इसराइल ने जो कुछ गज़ा में किया उसके गवाह हैं।
इसी संदर्भ में यहूदी धार्मिक विद्वान इसहाक शाबीरा का फतवा सामने आया है जो यहूदी शरीअत से मर्दों, औरतों और बच्चों के क़त्ल के “धर्मशास्त्रीय औचित्य“ प्रदान करता है और जिससे पता चलता है कि ऐसे धार्मिक फतवे किस तरह से हिंसा पर उकसाते हैं और उसे औचित्य प्रदान करते हैं और लोगों को और ज़्यादा धार्मिक और राजनीतिक कट्टरपंथ की तरफ ले जाते हैं।
हिंसा का पूर्वी इतिहास धर्म का लबादा ओढ़े हुए था, जो लोग हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के बाद आए वो धार्मिक औचित्य के तहत फिलिस्तीन में दाखिल हुए कि यही वो “धरती“ है जिसे अल्लाह ने यहूदियों को उनके दावे के अनुसार प्रदान कर दी है। आज भी यहूदी विद्वानों के फतवे फिलिस्तीनियों के क़त्ले आम का धार्मिक औचित्य प्रदान करते हैं।
इस्लामी इतिहास बताता है कि पड़ोस की क़ौमों के साथ इस्लाम की “जंग“ का कारक धर्म था। ये जंगे अपने आप में धर्म के लबादे में लिपटी हुई हिंसा थी जहां विजेताओं के जमगठे यानी इस्लामी सेनाओं ने आसपास की क़ौमों पर धावा बोला और उनके संसाधनों पर कब्जा किया और उनके सामाजिक और राजनीतिक जीवन को ज़बरदस्ती बदल दिया। अरब प्रायद्वीप से सम्बंध रखने वाले विदेशी “वालियों“ को उनका शासक नियुक्त किया ताकि उनके कब्जे वाले देशों में इस्लाम का शासन मज़बूत रहे। ये “इस्लामी जीत“ मोरक्को और स्पेन से होते हुए दक्षिण फ्रांस तक पहुंचीं जहां वाटरलू की लड़ाई के बाद रुक गई। यूरोप में इस्लामी जीत की सेनाओं ने जिन देशों पर क़ब्ज़ा किया वो रेगिस्तान से आने वाले अरब बद्दुओं से अधिक विकसित थे।
इस्लामी खिलाफत के दौर में हिंसा ने एक ही क़ौम और एक ही धर्म के मानने वालों में कई खूनी रूप धारण कीं। तीन ख़लीफ़ा तलवारें और खंजरों से काट कर क़त्ल कर दिए गए। अली और मुआविया के दोनो गुटों में भी हिंसा ने कई रंग अख्तियार किये और जब हालात मुआविया के लिए अनुकूल हो गये तो उसने खिलाफ़त को विरासत बनाते हुए अपने बेटे यज़ीद को खिलाफत का वारिस बना दिया ताकि ख़िलाफ़त बनी उमैय्या के हाथ से न निकल सके।
हिंसा का बदतरीन रूप उमवी खलीफा यज़ीद बिन मुआविया बिन अबी सुफियान के दौर में देखने को मिली जो “वाकेआ हरा“ के नाम से जानी जाती है जिसमें यज़ीद की सेना ने मुस्लिम बिन उक़बा के नेतृत्व में मदीना में तीन दिन तक मार काट का बाज़ार गर्म रखा। कोई ग्यारह हज़ार इंसान क़त्ल हुए। शहर को लूटा गया और एक हज़ार कुंवारी लड़कियों को बलात्कार का निशाना बनाया गया जिसके बाद नागरिकों को मजबूर किया गया कि वो यज़ीद की बैअत करें या गुलाम बन जाएं। इस ज़माने में जब कोई व्यक्ति अपनी बेटी की शादी करता था तो कहता था किः मैं इसके कुंवारी होने की गारंटी नहीं दे सकता, शायद हरा की घटना में इसकी इज़्ज़त लूट ली गई हो?
अब्बासी जिनका परिवार पैगंबर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के एक चाचा अब्बास से जा मिलता है। उनके दौर में अब्बासी खिलाफत के संस्थापक अबु अलअब्बास जिनको “अलसुफ्फा“ यानी खूंखार के उपनाम से जाना जाता है, ने बेशुमार उमवी क़त्ल करवाए और उनका मोरक्को तक पीछा किया। उमवियों में सिर्फ एक अब्दुल रहमान अलदाखिल ही बच सका, जो कि स्पेन भाग गया और वहां पर एक उमवी खिलाफत स्थापित की। उसका एक प्रसिद्ध कथन है किः “अल्लाह का शुक्र है कि जिसने मेरे और मेरे दुश्मन (अब्बासियों ) के बीच समुद्र बनाया“।
मध्यकाल में जादूगरनियों के खिलाफ हिंसा को बाइबल से औचित्य दिया गया जो कहती हैः “जादूगरनियों को ज़िंदा मत रहने दो। “इसलिए औरतों को जादूगरी के इल्ज़ाम में बड़ी तादाद में ज़िंदा जलाया गया। जादूगरनियों की हथौड़ा (Malleus Maleficarum) नामक किताब को मानव इतिहास का सबसे भयानक दस्तावेज़ करार दिया गया जिसे जादूगरनियों के क़त्ल का आधार बनाया गया और जिसे पोप का आशीर्वाद हासिल था।
यहां सवाल जो अपने आप खुद उठता है, वो ये है कि हम धर्मों और पवित्र ग्रंथों को इतनी ताक़त क्यों देते हैं कि वो हिंसा का औचित्य दें। इंसानों में मतभेद के बीज बोएँ और मानव सम्बंधों को खराब करें? एक ही धर्म में व्याख्या में मतभेद ही लोगों में फूट डालने और उन्हें हिंसा के लिए भड़काने के लिए पर्याप्त होता है।
पुर्तगाल के नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक जोस सारामागो (José de Sousa Saramago) धर्म को इतिहास में लड़ाईयों का मुख्य स्रोत बताते हुए कहते हैं किः “बिना किसी अपवाद के कभी भी कोई धर्म लोगों को इकट्ठा करने और उन्हें सुलह करने पर राज़ी नहीं कर सका, इसके विपरीत ये पहले भी और अब भी क़त्ले आम, शारीरिक और आध्यात्मिक बर्बर हिंसा का मुख्य कारण है जिन्हें शब्दों में बयान ही नहीं किया जा सकता। ये निराश मानव इतिहास का सबसे अंधकारमय पहलू है“, मालूम होता है कि धर्म एक ऐसा हत्यारा है जिसका कोई ठिकाना नहीं, ये शायद दूसरों से ज़्यादा अपने मानने वालों का खून ज़्यादा बहाता है।
इतालवी लेखक अम्बरटो ईको (Umberto Eco) कहते हैं: “ धर्म भक्त इंसान एक ऐसा जानवर है जो हमेशा नशे में रहता है“ ज़ाहिर है कि धर्म भक्त इंसान जब हिंसा पर उतरता है तो एक ऐसे जानवर का रूप धारण कर लेता है जो अपने शिकार के पीछे भाग रहा हो, वही उसका लक्ष्य और शिकार होता है जिसे खत्म करने के लिए उसे किसी नैतिकता या इंसानियत की परवाह नहीं होती। ब्लेज़ पास्कल (Blaise Pascal) ने कहा था किः “आदमी खुशी से कोई बुरा काम तब तक नहीं कर सकता जब तक वो उसे धार्मिक संतोष से न करे“।
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में पता चला कि पूर्व में धार्मिक प्रवृत्ति इतनी बढ़ रही थी कि मानो ये कौमें धार्मिक उन्माद का शिकार हो गई हों। इक्कीसवीं सदी की दूसरे आधे भाग में हम देख लेंगे कि यही कौमें जो आज धार्मिक उन्माद का शिकार हैं कल धार्मिक अराजकता का शिकार होंगी और धार्मिक अशांति उन्हें मानव विकास के रास्ते से अलग कर देगा और ये विचारों की और सांगठनिक पिछड़ेपन के ऐसे दौर में पहुंच जाएंगी जो उस्मानी खिलाफत से मिलता जुलता होगा जिसने पूर्व और पश्चिम अरबी पर क़ब्ज़ा कर उन क्षेत्रों को ज्ञान और विचारों की प्रगति से अलग कर दिया... पूर्व की कौमें इस धार्मिक अराजकता और वैचारिक पिछड़ेपन से शायद सदियों बाद ही जाग सकेंगी।
हिंसा के प्रति हमारा रुख स्पष्ट होना चाहिए, अगर हिंसा अपने बचाव में किया जाए, अगर कौमें आज़ादी के लिए हिंसा का रास्ता अपनाएं और आमतौर पर अगर आक्रामकता को रोकने के लिए हिंसा अपनाई जाए तो ऐसी हिंसा जायज़ होनी चाहिए लेकिन अगर हिंसा का उद्देश्य दूसरों के माल कल्पना करें कि अगर हर व्यक्ति और क़ौम धार्मिक आधार पर दूसरों पर हिंसा करना शुरू कर दे तो उसका इंसानियत पर क्या असर और देश पर क़ब्ज़ा करना और उन्हें जबरन उन्हें अपने जीवन के ढंग और धर्म बदलने पर मजबूर करना हो तो ऐसी हिंसा जायज़ नहीं होगी?
कभी कभी ताक़त हिंसा का कारण बनती है। ताक़त का एहसास और भौतिक शक्ति के संसाधनों की उपस्थिति के साथ दूसरों की कमज़ोरी का एहसास उजागर होता है और कमजोर की तरफ बढ़ने और उसे कुचलने की भावना जागृत होती है। जब हिटलर की ताक़त बढ़ गई तो इसके साथ ही वो सभी समझौते जो जर्मनी को बाध्य करते थे, भंग हो गये और जर्मनी शक्ति प्रदर्शन करने निकल पड़ा। सद्दाम हुसैन ने भी यही किया। जब माहौल अनुकूल हुआ और उसे अपनी शक्ति का एहसास हुआ तो उसने कुवैत पर चढ़ाई कर दी क्योंकि वो कमज़ोर था।
हिंसा का इतिहास बताता है कि उसने पराजित मनुष्य को विजयी लोगों का गुलाम बना दिया। उन्हें जज़िया अदा करने पर मजबूर किया और अपनी संपत्ति को छोड़कर विस्थापित होने पर मजबूर किया। औरतों को कनीज़ें और खरीदने औऱ बेचने का सामान बना दिया। यहाँ से हिंसा का एक दूसरा चेहरा उभर कर सामने आता है। ये पवित्र विरासत के धार्मिक ग्रंथ हैं जो मानव सम्बंधों को बिगाड़ते और मनुष्यों में फूट डालकर उन्हें ऐसी लगातार दुश्मनी की तरफ धकेल देते हैं जिसका नतीजा लाखों इंसानी जानें होती हैं।
हिंसा का सबसे बड़ा दुश्मन मानव विकास और चेतना है। इसके उन्मूलन के लिए ज़रूरी है कि व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर व्यक्तिगत मतभेद के उन्मूलन के लिए जागरूकता पैदा की जाए, जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ये अनिवार्य है कि क़ौमों को अपनी क़िस्मत का फैसाल खुद करने दिया जाए और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा को सुनिश्चित बनाया जाए। उपनिवेशीकरण के अवशेषों को तबाह किया जाए और इंसानों को अपने ही भाई इंसान के शोषण से रोका जाए।
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